भारतीय जनता पार्टी के तेलंगाना से सांसद को झटका लग गया है. पिछले गुरुवार नाश्ते के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिली कड़ी फटकार काफी तीखी थी. वहां मौजूद लोगों के मुताबिक, प्रधानमंत्री ने उनसे कम से कम चार बार कहा, “तेलंगाना में आप बीजेपी को और कितना बर्बाद करेंगे.” उन्होंने यह भी कहा, “आप तो विपक्ष की भूमिका भी नहीं निभा रहे हैं.”
जब इन सांसदों को आंध्र प्रदेश के अपने साथियों के साथ नाश्ते पर बुलाया गया, तो उन्हें ऐसी कड़वी बातों की उम्मीद नहीं थी. उन्होंने प्रधानमंत्री को पहले कभी इतना नाराज और कटु नहीं देखा था. वैसे भी संसद सत्र प्रधानमंत्री की उम्मीद के मुताबिक नहीं चल रहा था. कुछ दिन पहले विपक्ष को एक दुर्लभ जीत मिली थी, जब उसने सरकार को संचार साथी ऐप पर जल्दबाजी में कदम पीछे खींचने पर मजबूर कर दिया. वंदे मातरम पर हुई बहस भी ठीक नहीं रही. इसकी शुरुआत खुद प्रधानमंत्री की एक चूक से हुई, जब उन्होंने बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय को “बंकिम दा” कहा. बाद में उन्होंने इसे सुधारा, लेकिन “मास्टर दा” सूर्य सेन का जिक्र करते समय ‘दा’ हटा दिया. सूर्य सेन बंगाल के एक श्रद्धेय स्वतंत्रता सेनानी थे. उन्होंने एक अन्य स्वतंत्रता सेनानी पुलिन बिहारी दास को पुलिन विकास घोष कह दिया. मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इन गलतियों को लपकते हुए प्रधानमंत्री पर बंगाल की सांस्कृतिक और राष्ट्रवादी हस्तियों को छोटा दिखाने का आरोप लगाया.
बंगाल के बंकिम चट्टोपाध्याय द्वारा रचित वंदे मातरम के कुछ छंद हटाने का आरोप लगाकर बीजेपी कांग्रेस को घेरना चाहती थी. लेकिन मामला उलटा पड़ गया क्योंकि इसमें रवींद्रनाथ टैगोर और सुभाष चंद्र बोस की भी भूमिका थी. बंगाल में बंकिम बाबू बनाम गुरुदेव टैगोर दिखाना किसी भी पार्टी के लिए नुकसानदेह हो सकता है. ममता बनर्जी इस मुद्दे को बार-बार उठाकर बीजेपी को ‘बाहरी’ साबित करने की कोशिश करती रहेंगी. “जीभ फिसलने से पैर फिसलाना बेहतर है,” यह सलाह बेंजामिन फ्रैंकलिन ने दी थी, जिनकी आत्मकथा प्रधानमंत्री ने गुरुवार डिनर के दौरान सांसदों को पढ़ने की सिफारिश की.
प्रधानमंत्री ने रात के खाने पर सांसदों से कहा, “मैं तनाव लेता नहीं, देता हूं.” तेलंगाना के सांसदों ने इसका अनुभव गुरुवार सुबह ही कर लिया था. उन्हें यह भी पता था कि प्रधानमंत्री की नाराजगी सिर्फ संचार साथी ऐप की शर्मिंदगी या “बंकिम दा” वाली चूक की वजह से नहीं थी. उनके एक बयान से साफ हो गया कि उनके मन में क्या चल रहा था. उन्होंने कहा, “1984 में हमने दो सीटें जीती थीं. आज गुजरात में हम कहां हैं और तेलंगाना में कहां.”
1980 में स्थापित बीजेपी ने 1984 में पहली बार लोकसभा चुनाव लड़ा और दो सीटें जीतीं. एक गुजरात की मेहसाणा सीट और दूसरी आंध्र प्रदेश की हनमकोंडा सीट, जो आज तेलंगाना में है. तब से मेहसाणा में हुए 11 लोकसभा चुनावों में बीजेपी ने 9 बार जीत हासिल की, जबकि कांग्रेस सिर्फ दो बार, 1999 और 2004 में जीती. हनमकोंडा में हुए 12 लोकसभा चुनावों में बीजेपी एक बार भी नहीं जीत पाई. यह सीट 2008 में समाप्त हो गई और इसके ज्यादातर हिस्से वारंगल सीट में शामिल कर दिए गए. वैसे, 1984 में बीजेपी के चेंदुपतला जंगा रेड्डी ने हनमकोंडा में पीवी नरसिम्हा राव को हराया था. 1985 का विधानसभा चुनाव आखिरी बार था जब कांग्रेस ने गुजरात में जीत दर्ज की. तेलंगाना में बीजेपी ने पिछले विधानसभा चुनाव में अपनी मजबूत बढ़त गंवा दी और लगभग सत्ता की कमान कांग्रेस को सौंप दी.
ट्रिगर क्या था?
हैदराबाद की जुबिली हिल्स विधानसभा सीट पर हुए हालिया उपचुनाव ने भी प्रधानमंत्री मोदी को 1984 के नतीजों और गुजरात व तेलंगाना में बीजेपी की स्थिति पर सोचने के लिए मजबूर किया हो सकता है. जुबिली हिल्स में बीजेपी नौ प्रतिशत वोट भी हासिल नहीं कर पाई. कांग्रेस ने यह सीट भारत राष्ट्र समिति से छीन ली, जबकि बीजेपी का वोट शेयर पिछले विधानसभा चुनाव के मुकाबले पांच प्रतिशत अंक गिर गया. तेलंगाना के सांसदों को शुक्र मनाना चाहिए कि प्रधानमंत्री के साथ उनका नाश्ता ग्राम पंचायत चुनाव के पहले चरण के नतीजे आने से पहले हो गया. जिन 3,834 सरपंच पदों के लिए चुनाव हुए, उनमें बीजेपी समर्थित उम्मीदवार सिर्फ 160 सीटें ही जीत पाए. दूसरे चरण में भी बीजेपी का प्रदर्शन वैसा ही रहा.
प्रधानमंत्री मोदी को सबसे ज्यादा चोट शायद इस बात से लग रही है कि तेलंगाना में उनकी व्यक्तिगत लोकप्रियता काफी ज्यादा है, लेकिन पार्टी विधानसभा चुनाव में इसका फायदा नहीं उठा पाई. यह इस बात से साफ है कि लोकसभा चुनावों में बीजेपी का प्रदर्शन लगातार बेहतर हुआ है, जबकि विधानसभा चुनावों में उसका हाल खराब रहा है.
तेलंगाना के लोकसभा नतीजों पर नजर डालें. बीजेपी ने 2014 में 17 में से एक सीट, 2019 में चार सीटें और 2024 में आठ सीटें जीतीं. इन तीनों संसदीय चुनावों में पार्टी का वोट शेयर क्रमशः 10 प्रतिशत, 20 प्रतिशत और 35 प्रतिशत रहा.
अब पिछले दो विधानसभा चुनावों को देखें. 2018 में बीजेपी को 119 में से एक सीट और करीब 7 प्रतिशत वोट मिले थे. 2023 में पार्टी ने आठ सीटें जीतीं, लेकिन वोट शेयर करीब 14 प्रतिशत ही रहा. साफ है कि लोग प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री के लिए अलग-अलग तरह से वोट देते हैं. तेलंगाना में बीजेपी का बढ़ना मोदी-केंद्रित है, स्वाभाविक या जमीनी नहीं.
2014 में ‘मोदी लहर’ के बाद से कांग्रेस के साथ सत्ता की सीधी लड़ाई में बीजेपी का रिकॉर्ड शानदार रहा है. तीसरे मोर्चे से लड़ाई में भी बीजेपी ने कांग्रेस को मात दी है. प्रधानमंत्री मोदी ने गुरुवार को तेलंगाना के सांसदों को ओडिशा की मिसाल दी. वहां बीजेपी ने पहले कांग्रेस को मुख्य विपक्ष की जगह से हटाया और फिर बीजू जनता दल को पराजित किया. त्रिपुरा में भी पार्टी ने यही रणनीति अपनाई. अब पश्चिम बंगाल में इसे दोहराने की कोशिश हो रही है, जहां वाम दल और कांग्रेस संयुक्त विपक्ष हैं. लेकिन तेलंगाना में यह रणनीति काम नहीं कर रही है. मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी एक बेहद चतुर और जमीन से जुड़े नेता साबित हुए हैं. वह राहुल गांधी द्वारा गौतम अडानी पर हमलों के बावजूद तेलंगाना के विकास के लिए अडानी से फंड लेने को सही ठहरा सकते हैं. वह हैदराबाद की एक सड़क का नाम “डॉनल्ड ट्रंप एवेन्यू” रख सकते हैं, चाहे राहुल गांधी अमेरिकी राष्ट्रपति के बारे में कुछ भी सोचें. ट्रंप मीडिया ने अब अगले दस साल में राज्य में एक लाख करोड़ रुपये के निवेश का वादा किया है. रेवंत रेड्डी कांग्रेस के लिए एक दीर्घकालिक संपत्ति बनकर उभरे हैं, जबकि बीजेपी नेता हताशा में हाथ मल रहे हैं.
तेलंगाना को लेकर प्रधानमंत्री मोदी की झुंझलाहट समझ में आती है, लेकिन वह गलत जगह निशाना साध रहे हैं. असल जिम्मेदारी बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व को लेनी चाहिए. बंदी संजय कुमार को, जिनके तीन साल के कार्यकाल में पार्टी की लोकप्रियता और मौजूदगी में बड़ा उछाल आया था, विधानसभा चुनाव से महज पांच महीने पहले प्रदेश अध्यक्ष पद से हटा दिया गया. उनकी जगह जी किशन रेड्डी को लाया गया. इससे यह संदेश गया कि यह एक अस्थायी व्यवस्था है, क्योंकि रेड्डी केंद्र में मंत्री भी बने रहे. इसके अलावा, 2014 से 2016 तक प्रदेश अध्यक्ष के रूप में रेड्डी का पिछला कार्यकाल भी खास यादगार नहीं रहा. एक ही फैसले में बीजेपी ने 2023 में तेलंगाना की अपनी रफ्तार खो दी. मोदी और शाह रेड्डी के प्रति इतने उदार क्यों हैं, यह पार्टी के भीतर आज भी रहस्य बना हुआ है. विधानसभा चुनाव में करारी हार के बावजूद रेड्डी ने केंद्रीय मंत्रिमंडल में अपनी जगह बनाए रखी. जुलाई में पार्टी ने उन्हें हटाकर रामचंदर राव को तेलंगाना इकाई का अध्यक्ष बनाया. राव पेशे से वकील हैं और पहले विधान परिषद के सदस्य रह चुके हैं. पार्टी के अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि यह बदलाव पार्टी के भीतर अलग-अलग गुटों के साथ काम कर सकने वाले व्यक्ति को लाने की जरूरत के कारण किया गया. यही वजह पहले बंदी संजय को हटाने के लिए भी दी गई थी.
फिलहाल तेलंगाना को लेकर केवल प्रधानमंत्री मोदी ही चिंतित नजर आते हैं. बीजेपी के संगठन महामंत्री बीएल संतोष पर आरोप है कि वह तेलंगाना में वही कर रहे हैं जो उन्होंने कर्नाटक में किया था, यानी काम करने वालों की बजाय अपने करीबी लोगों को आगे बढ़ाना. तेलंगाना के प्रभारी राष्ट्रीय महासचिव सुनील बंसल के पास राज्य के लिए समय नहीं है, क्योंकि उनके पास पश्चिम बंगाल, ओडिशा और युवा मोर्चा की भी जिम्मेदारी है. प्रधानमंत्री मोदी के पास अपनी पीड़ा साझा करने के लिए सिर्फ सांसद ही बचे हैं.
डीके सिंह दिप्रिंट के पॉलिटिकल एडिटर हैं. उनका एक्स हैंडल @dksingh73 है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.
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