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Friday, 22 November, 2024
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तीन तलाक और 370 पर नीतीश ने बीजेपी का साथ क्यों नहीं दिया?

नीतीश कुमार क्या फिर से दोराहे पर हैं? क्या वे एक बार फिर बीजेपी से अलग हो जाएंगे? ये सवाल बिहार ही नहीं, पूरे उत्तर भारत की राजनीति के लिए बहुत महत्वपूर्ण बन गया है.

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एनडीए का राज्यसभा में बहुमत नहीं है. इसके बावजूद एनडीए सरकार ने तीन तलाक और अनुच्छेद 370 से संबंधित बिल राज्यसभा में पारित करा लिया. ये दो ऐसे विधेयक हैं, जिसका प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस ने विरोध किया है. बीजेपी ने बेहतर फ्लोर मैनेजमेंट दिखाते हुए विपक्षी खेमे में माने जा रहे कई दलों और सांसदों को अपने पक्ष में कर लिया. ऐसे दलों में बीएसपी, आम आदमी पार्टी और बीजेडी शामिल हैं. इसके अलावा निजी तौर पर कई सांसदों को अनुपस्थित रहने के लिए राजी कर लिया गया.

लेकिन सवाल उठता है कि जब राज्यसभा में एक-एक सांसद का वोट इतना महत्वपूर्ण था, तब बीजेपी अपने खेमे को एकजुट क्यों नहीं रख पाई? गौरतलब है कि एनडीए के पार्टनर और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले जेडीयू के सांसदों ने इन विधेयकों पर होने वाले मतदान के दौरान वाक आउट किया और मतदान में हिस्सा नहीं लिया.


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यूं तो जेडीयू के पक्ष या विपक्ष में वोट डालने से इस बिल के पास होने पर कोई फर्क नहीं पड़ता. लेकिन कई बार प्रक्रिया का निष्कर्ष से कम महत्व नहीं होता. जेडीयू के इस राजनीतिक व्यवहार से ये बात सब को पता चल गई कि इन दोनों दलों के बीच सब कुछ ठीकठाक नहीं है. ये बात दो कारणों से महत्वपूर्ण है. एक, इन दोनों दलों की बिहार में साझा सरकार चल रही है और इनमें से एक दल के अलग होने से सरकार गिर जाएगी. दो, अगली सर्दियों में बिहार में विधानसभा चुनाव होने हैं और इन दोनों दलों की खटपट का बिहार की राजनीति पर असर पड़ेगा.

इस लेख में हम सिर्फ यह जानने की कोशिश करेंगे कि नीतीश कुमार ने इन दोनों विधेयकों पर बीजेपी से अलग रास्ता क्यों अख्तियार किया. इसकी तीन परिस्थितियां हो सकती हैं.

एक, नीतीश कुमार ने सिद्धांत के साथ चलने का फैसला किया है. नीतीश कुमार की पृष्ठभूमि समाजवादी आंदोलन की है. वे बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जननायक कर्पूरी ठाकुर की राजनीतिक परंपरा से आते हैं. 1995 के विधानसभा चुनाव से पहले उन्होंने लालू यादव से अलग होकर अपनी समता पार्टी बना ली थी. 1995 के चुनाव में बुरी हार का सामना करने के बाद उन्होंने 1996 में बीजेपी से हाथ मिला लिया. लेकिन उसी समय एक बात उन्होंने स्पष्ट कर दी थी कि वे बीजेपी के तीन विवादास्पद मुद्दों- राम मंदिर, समान नागरिक संहिता और कश्मीर में अनुच्छेद 370- पर अपनी अलग राय रखते हैं और गठबंधन में शामिल होने की शर्त ये होगी कि गठबंधन इन सवालों को नहीं उठाएगा. अब तक बीजेपी ने अपने घोषणापत्र में तो हमेशा इन मुद्दों को शामिल रखा है, लेकिन एनडीए की तरफ से इन्हें कभी उठाया नहीं गया था.

संसद के मौजूदा सत्र में पहली बार एनडीए ने इस दिशा में निर्णायक पहल कर दी. कश्मीर में अनुच्छेद 370 को समाप्त कर दिया गया और तीन तलाक को दंडनीय अपराध बनाकर समान नागरिक संहिता की ओर कदम बढ़ा दिया गया है. ऐसे में नीतीश कुमार अगर अपनी पार्टी को इन मुद्दों पर सरकार के साथ खड़े होने से बचा ले गए तो ये उनका सैद्धांतिक पक्ष माना जाना चाहिए.


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दो, नीतीश कुमार का मौजूदा कदम अवसरवादी है! नीतीश कुमार एक साथ दो चीजों को साधने की कोशिश कर रहे हैं. वे बिहार में सत्ता सुख भोगना चाहते हैं और सिद्धांतवादी भी बने रहना चाहते हैं. जब बीजेपी ने विवादास्पद मुद्दों को उठा ही दिया है, और गठबंधन की सैद्धांतिक बुनियाद को हिला ही दिया है तो नीतीश कुमार किस तर्क के आधार पर एनडीए में बने हुए हैं? नीतीश कुमार के आलोचकों का कहना है कि धर्मनिरपेक्षता नीतीश कुमार के लिए एक सुविधा है, कोई सिद्धांत नहीं. गुजरात में गोधरा कांड और उसके बाद कई दिनों तक चली हिंसा के बाद भी नीतीश कुमार ने बीजेपी का साथ और केंद्रीय मंत्री का पद नहीं छोड़ा, लेकिन 2013 में जब बीजेपी ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया तो जेडीयू ने एनडीए से नाता तोड़ लिया. उस समय एक इंटरव्यू में नीतीश कुमार ने नरेंद्र मोदी के राजनीतिक व्यक्तित्व पर सवाल उठाते हुए कहा था कि ‘प्रधानमंत्री पद के दावेदार का व्यक्तित्व खुरदुरा नहीं होना चाहिए.’

इसके बाद 2014 का लोकसभा चुनाव जेडीयू ने अपने दम पर लड़ा और उसे सिर्फ दो सीटें मिलीं. 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव के समय जेडीयू को एक पार्टनर की जरूरत पड़ी और नीतीश कुमार ने अपने चिर प्रतिद्वंद्वी लालू प्रसाद से हाथ मिला लिया. इस गठबंधन ने बिहार में बीजेपी को रोक दिया. आरजेडी से कम एमएलए होने के बावजूद नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री बन गए. लेकिन इस सरकार के दो साल पूरे होने से पहले ही नीतीश कुमार ने गठबंधन तोड़ दिया और फिर से बीजेपी के साथ मिलकर सरकार बना ली. मतलब ये कि नीतीश कुमार अपने राजनीतिक फैसले जरूरतों के हिसाब से करते हैं और उतने से ही सिद्धांतवादी हैं, जितना राजनीतिक रूप से जरूरी होता है.

तीन, नीतीश कुमार न सिद्धांतवादी हैं, न अवसरवादी. वे व्यवहारवादी हैं. नीतीश कुमार ने इन दो विधेयकों पर बीजेपी के साथ वोट न डालने का फैसला राजनीतिक जरूरतों के हिसाब से किया है. बीजेपी के राजनीतिक व्यवहार से उन्हें शायद ये समझ में आ गया है कि 2020 में बिहार में होने वाले विधानसभा चुनाव में उनका बीजेपी के साथ गठबंधन संभव नहीं हो पाएगा. बीजेपी के इस रुख के कारण ही जेडीयू केंद्रीय मंत्रिपरिषद का हिस्सा नहीं है. बीजेपी मान रही है कि वह बिहार में बढ़त पर है और देश में चल रही अपनी लहर का फायदा उठाते हुए वह बिहार में अपने दम पर चुनाव लड़ने और जीतने की कोशिश कर सकती है.


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बिहार बीजेपी के लिए एक अभेद्य किला बना हुआ है. ये उत्तर भारत के हिंदी भाषी इलाके का अकेला राज्य हैं, जहां बीजेपी का कभी कोई मुख्यमंत्री नहीं बना. सामाजिक समरसता की आरएसएस की योजना की जीत और सामाजिक न्याय की राजनीति को निर्णायक रूप से हराने का बीजेपी का प्रोजेक्ट बिहार में जीत हासिल किए बिना पूरा नहीं हो सकता.

बिहार में बीजेपी जिस तरह की तैयारियों में लगी है, उसे देख कर नीतीश कुमार भी एनडीए के बाहर राजनीति की संभावना तलाश रहे हैं. इसमें अकेले चुनाव लड़ने से लेकर, मुसलमानों को सकारात्मक संदेश देना और आरजेडी के साथ फिर से हाथ मिलाने की कोशिश करना शामिल हो सकता है. ऐसे में नीतीश कुमार के लिए राजनीतिक समझदारी इसी में थी कि वे तीन तलाक और 370 पर बीजेपी के साथ न जाते. उन्होंने यही किया है.

कुल मिलाकर बिहार की राजनीति एक बार फिर दिलचस्प मोड़ पर है और नीतीश कुमार ने इसके संकेत दे दिए हैं.

(दिलीप मंडल वरिष्ठ पत्रकार हैं और इस लेख में उनके निजी विचार हैं)

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