जलवायु को लेकर अपनी तरह का सबसे बड़ा वार्षिक आयोजन ‘क्लाइमेट वीक’ 22 से 29 सितंबर तक न्यूयॉर्क सिटी में मनाया गया. यह समारोह संयुक्त राष्ट्र महासभा, संयुक्त राष्ट्र और न्यूयॉर्क की भागीदारी से हर साल मनाया जाता है. संयुक्त राष्ट्र महासभा के लिए जब दुनिया भर के नेता इकट्ठा होते हैं उसी दौरान इसे भी मनाया जाना जलवायु परिवर्तन और दुनिया पर इससे पड़ने वाले प्रभावों की अहमियत को रेखांकित करता है.
अगला जो आयोजन होने वाला है वह है — यूएन क्लाइमेट चेंज कॉन्फ्रेंस ‘सीओपी 29’, जो इस साल नवंबर में अज़रबैजान के बाकू में होगा. ओज़ोन की छीजती परत और समुद्र के ऊंचे उठते स्तर तथा इनके वैश्विक प्रभावों आदि पर तो बराबर चर्चाएं होती रहती हैं, लेकिन जलवायु परिवर्तन का किसी देश की राष्ट्रीय सुरक्षा के समीकरण पर क्या असर पड़ता है, इस पर काफी कम चर्चा की जाती है.
जलवायु परिवर्तन केवल पर्यावरण से जुड़ी समस्या नहीं है, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा और दुनियाभर में सैन्य कार्रवाईयों पर इसका दूरगामी प्रभाव पड़ता है. धरती का तापमान बढ़ते ही बर्फ की चोटियां पिघलने लगती हैं, जलस्तर बढ़ने लगता है, और बिन मौसम घटनाएं घटने लगती हैं. ऐसे में सेनाओं को पारंपरिक खतरों से बिल्कुल अलग कार्रवाई के नए परिदृश्य के लिए खुद को तैयार रहना चाहिए. सामयिक बने रहने के लिए सैन्य योजनाकारों को इस बात का विश्लेषण ज़रूर करना चाहिए कि जलवायु परिवर्तन रणनीति, कार्रवाई और सामरिक स्तरों को किस तरह प्रभावित करता है, संसाधन के आवंटन के लिए क्या चुनौतियां पेश करता है और सैन्य नियोजन में नयापन लाने की ज़रूरत को रेखांकित करता है.
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सेना के लिए खतरे
जलवायु परिवर्तन सैन्य कार्रवाइयों को सबसे पहले तो भू-राजनीतिक समीकरण को बदलकर प्रभावित करता है. जलवायु से संबंधित आपदाएं बढ़ती हैं तो देश के अस्थिर होने का खतरा बढ़ जाता है. उदाहरण के लिए जल संकट, खाद्य सामग्री की कमी और लोगों का बड़े पैमाने पर प्रवासन संघर्षों को जन्म दे सकता है जिसके चलते सेना को मानवीय सहायता और आपदा राहत की कार्रवाइयां करनी पड़ती हैं. ‘फोर्स मल्टीप्लायर’ की तरह जलवायु परिवर्तन सेना के लिए खतरा ‘मल्टीप्लायर’ बन जाता है, जो पहले से विस्फोटक क्षेत्रों में तनाव को और बढ़ा देता है. यह मुहावरा ‘इन्टरनेशनल मिलिटरी काउंसिल ऑन क्लाइमेट चेंज ऐंड सिक्यूरिटी’ के महासचिव शेरी गुडमैन ने गढ़ा था.
मानवीय संकटों के अलावा, जलवायु परिवर्तन का प्रभाव नई रणनीतिक चुनौतियां पेश करता है, मसलन आर्कटिक सागर का पिघलना. बर्फ के सिकुड़ने से जहाजों की आवाजाही के नए रास्ते खुलेंगे, जिससे अछूते प्राकृतिक संसाधनों के तक पहुंचना आसान हो जाएगा. इस परिवर्तन से अमेरिका, रूस और चीन के बीच होड़ और बढ़ेगी. तमाम देश इस क्षेत्र में अपना पैर जमाने पर आमादा हैं. इसी तरह, धरती का तापमान बढ़ने से भारतीय सैन्य योजनाकारों को ‘केंपेनिंग सीजन’ की अवधारणा पर पुनर्विचार करना पड़ेगा, जिसे रणनीति तथा कार्रवाई के स्तरों पर सुरक्षा समीकरण का बेहद महत्वपूर्ण हिस्सा माना जाता है. ठंड का हल्का मौसम और हिमपात में कमी लाभकारी भी हैं और नुकसानदायक भी.
बढ़ता तापमान और बढ़ती नमी सैनिकों को थका सकती है जिससे ट्रेनिंग और तैनाती के दौरान उनकी क्षमता घट सकती है. उदाहरण के लिए गर्मी के दिनों में उच्च तापमान और नमी मैदान में काम करने की क्षमता को कम कर सकती है, जिसके चलते ट्रेनिंग तथा तैनाती में बदलाव करने पड़ सकते हैं. पहले से ही कम संसाधन को अगर आपदा में मानवीय राहत मिशन पर खर्च करना पड़ा तो सैन्य ऑपरेशन्स के मामले में कटौती करनी पड़ेगी. बिहार में बाढ़ के दौरान राहत कार्रवाई कर रहे वायुसेना हेलिकॉप्टर का हादसा इस मुद्दे को स्पष्ट करने का एक उदाहरण है. यह सेना के मनोबल को प्रभावित करता है और युद्ध लड़ने की उसकी क्षमता को तब प्रभावित कर सकता है जब उसी साधन और क्रू को विविध तरह के काम करने पड़ते हैं और इससे ‘मिशन सुस्त’ पड़ता है.
तूफान, बाढ़, ज़मीन धंसने, और जंगल में आग लगने से सैन्य ठिकानों और इन्फ्रास्ट्रक्चर को खतरा पहुंचता है. खतरनाक इलाकों में स्थित सैन्य अड्डों के नष्ट होने का खतरा रहता है जिससे सेना की तैयारी और संसाधन आवंटन पर असर पड़ता है. 2001 में भुज में आए भूकंप में सेना के अधिकतर गैरिसन ज़मींदोज़ हो गए थे, उनका पुनर्निर्माण करना पड़ा. रक्षा मंत्रालय को खासकर समुद्रतटीय और भूस्खलन वाले क्षेत्रों में स्थित अपने गैरिसनों का आकलन करना चाहिए कि वह जलवायु परिवर्तन को झेलने की कितनी क्षमता रखते हैं. यह आकलन महंगे बदलाव या स्थान परिवर्तन की ज़रूरत बता सकता है. इसके लिए फंड और संसाधन को दूसरे अहम सैन्य प्राथमिकताओं से हटाकर इधर लगाना पड़ सकता है. यह राष्ट्रीय सुरक्षा को प्रभावित कर सकता है.
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नए प्रयोगों की गुंजाइश
जलवायु परिवर्तन जब संसाधन के आवंटन को प्रभावित करता है तब साजो-सामान से संबंधित चुनौतियां भी उभरती हैं. सैन्य कार्रवाई सप्लाई चेन की निरंतरता पर निर्भर करती है और जलवायु के कारण पैदा होने वाली अड़चनों से इस निरंतरता को खटर पहुंचता है. बाढ़ या हिमस्खलन से परिवहन, इन्फ्रास्ट्रक्चर जैसी महत्वपूर्ण सुविधाएं नष्ट हो सकती हैं जिससे सेना और सप्लाई का स्थानांतरण मुश्किल हो सकता है. मौसम से संबंधित बड़ी घटनाएं जब बार-बार घटने लगी हैं, सेना के योजनाकारों को साजो-सामान से जुड़ी रणनीति में इनका ख्याल रखना ही पड़ेगा. इसके अलावा, जलवायु परिवर्तन से खासकर पानी और ऊर्जा जैसे संसाधनों की कमी पड़ सकती है.
सैन्य कार्रवाइयों में संसाधन की बहुत ज़रूरत पड़ती है और स्वच्छ जल और भरोसेमंद ऊर्जा स्रोतों की कमी इन कार्रवाइयों को बुरी तरह बाधित कर सकती है. सेना को कार्रवाई के लिए तैयार रहने और मजबूत बने रहने के लिए वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों और टिकाऊ तौर-तरीकों को अपनाना होगा. यह परिवर्तन पर्यावरण की दृष्टि से ही नहीं उपयुक्त नहीं है बल्कि यह कमजोर सप्लाई और संसाधनों पर निर्भरता को घटाकर कार्रवाई संबंधी सुरक्षा में इजाफा करता है. उदाहरण के लिए भारतीय सेना अपने अड्डों के लिए सौर और पवन ऊर्जा जैसी वैकल्पिक ऊर्जा के उपयोग और फॉसिल ईंधन के उपयोग में कटौती करने और फॉसिल फ्युल की गुंजाइश की जांच कर रही है. ऊर्जा भंडारण में नए प्रयोग और स्मार्ट ग्रिड टेक्नोलॉजी से कार्यकुशलता बढ़ेगी और ऊर्जा आपूर्ति में बाधाओं को कम किया जा सकेगा. हमारे सीमावर्ती इलाकों में डीजल जेनरेटर की जगह सौर ऊर्जा का इस्तेमाल इस दिशा में एक कदम है — यह परिवहन के लिए फ्यूल की लागत को कम करेगा और पर्यावरण के अनुकूल भी होगा. सैन्य सुरक्षा के साथ पर्यावरण सुरक्षा का यह मेल ही आगे ले जाने वाला कदम है.
निर्णय प्रक्रिया में जलवायु संबंधी जोखिम का ध्यान भी रखने के लिए जलवायु संबंधी समग्र रणनीति की ज़रूरत होगी. इस तरह का दृष्टिकोण नेशनल डिजास्टर रेस्पॉन्स फोर्स (एनडीआरएफ) और डीआरडीओ जैसे संगठनों और दूसरे मंत्रालयों के साथ सहयोग को बढ़ावा देगा. सड़क परिवहन और हाइवे मंत्रालय के साथ सलाह-मशविरा सेना को अपने वाहनों के विशाल बेड़े के लिए फॉसिल फ्यूएल की जगह ‘ग्रीन इनर्जी’ अपनाने का रास्ता बनाएगा. भारतीय वायुसेना एंटोनोव एएन-32 ट्रांसपोर्ट विमान को 10 फीसदी ब्लेंडेड बायोडीजल के उपयोग से उड़ाने का परीक्षण कर रही है. इस ईंधन का हेलिकॉप्टरों और लड़ाकू विमानों समेत सभी विमानों में इस्तेमाल करने की योजना है.
जलवायु परिवर्तन का मसला राष्ट्रीय सीमाओं को नहीं मानता इसलिए वह अंतर्राष्ट्रीय सहयोग की मांग करता है. सैन्य कार्रवाइयों के लिए दूसरे देशों, एनजीओ और मानव सेवा संगठनों के साथ सहयोग की ज़रूरत बढ़ती जा रही है. सहयोग से उठाए गए कदम आपदा के समय कार्रवाई करने की क्षमता में इजाफा करते हैं और जलवायु से संबंधित चुनौतियों से निबटने के सर्वश्रेष्ठ उपायों के बारे में ज्ञान उपलब्ध कराते हैं. आपदा में बहुराष्ट्रीय कार्रवाई से मित्र देशों की सेना के साथ सहयोग का रिश्ता बनाने में और जलवायु से संबंधित संकटों के खिलाफ तेज़ी से और प्रभावी कदम उठाने में मदद मिल सकती है. 2004 में हिन्द महासागर क्षेत्र में आई सूनामी के दौरान यह एक बड़ा सबक मिला था. इस तरह की सेना-दर-सेना कार्रवाई से कूटनीतिक रिश्ते भी बन सकते हैं और संसाधन के संकट या पर्यावरण के विनाश के कारण पैदा हुए तनाव को दूर करने में भी मदद मिल सकती है.
जलवायु से संबंधित ऐसी गैर-पारंपरिक चुनौतियों का सामना करने के लिए भारतीय सेना को सक्रिय योजना और टेक्नोलॉजी में निवेश करना पड़ेगा. विस्फोटक होते जा रहे माहौल में राष्ट्रीय सुरक्षा बनाए रखने के लिए अंतर्राष्ट्रीय सहयोग बेहद ज़रूरी होगा. इस नये युग में जलवायु परिवर्तन के मसले की समझ और उसका निपटारा केवल पर्यावरण से जुड़ा सरोकार नहीं है, लेकिन यह सैन्य रणनीति और राष्ट्रीय सुरक्षा का एक बुनियादी पहलू बन गया है.
(जनरल मनोज मुकुंद नरवणे, पीवीएसएम, एवीएसएम, एसएम, वीएसएम, भारतीय थल सेना के सेवानिवृत्त अध्यक्ष हैं. वे 28वें चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ थे. उनका एक्स हैंडल @ManojNaravane है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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