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Thursday, 21 August, 2025
होममत-विमतआखिर, CEC ज्ञानेश कुमार की जनता को भरोसा दिलाने में कोई दिलचस्पी क्यों नहीं है

आखिर, CEC ज्ञानेश कुमार की जनता को भरोसा दिलाने में कोई दिलचस्पी क्यों नहीं है

चुनाव आयोग को विपक्ष की 'वोट चोरी' की शिकायतों को गंभीरता से लेने का कोई कारण नज़र नहीं आता. 'तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई?' — ऐसा जवाब एक ईमानदार और सच्चा संविधान का संरक्षक कभी नहीं देगा.

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सबसे पहले, मेरा मानना है कि चुनाव आयोग सुप्रीम कोर्ट के साथ भारत का सबसे अहम संवैधानिक निकाय है. यह हमारे सम्मान और प्रशंसा का हकदार है. क्योंकि इसने पिछले सात दशकों में ऐसा काम किया है जिससे हम गर्व से खुद को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कह सकते हैं.

अब समस्या यह है. चुनाव आयोग का मौजूदा रूप उस बेहतरीन रिकॉर्ड को मिटा रहा है. मैं अब बहुत कम लोगों को जानता हूं जो हमारे वर्तमान चुनाव आयुक्तों की प्रशंसा करते हैं. खासतौर पर मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार ने कुछ दिन पहले हुई अपनी मज़ाकिया प्रेस कॉन्फ्रेंस से देश के बड़े हिस्से का सम्मान खो दिया है.

इसका मतलब है कि भारत का लोकतंत्र अब अपने इतिहास के सबसे बड़े संकटों में से एक का सामना कर रहा है.

अगर आपको लगता है कि यह ज़्यादा नाटकीय लग रहा है. तो मुझे समझाने दीजिए.

भारतीय लोकतंत्र में चुनाव आयोग की अहम भूमिका

आधुनिक लोकतंत्र का एक हिस्सा है चुनाव का अधिकार. यह सबसे बड़ा हिस्सा है, लेकिन अकेला नहीं है. लोकतंत्र तभी सही मायनों में काम करता है जब लोग उन प्रतिनिधियों द्वारा शासित हों जिन्हें उन्होंने चुना है. साथ ही उन्हें कुछ बुनियादी अधिकार भी मिले हों — आज़ादी, बोलने की स्वतंत्रता, असहमति जताने का हक़ और बहुत कुछ.

भारत की त्रासदी यह है कि इन अधिकारों का अक्सर सम्मान नहीं किया जाता या उन्हें पूरी तरह ख़त्म कर दिया जाता है. सरकार पर उंगली उठाना आसान है, लेकिन सच यह है कि गिरावट बहुत पहले शुरू हुई थी, भाजपा बनने से भी पहले. इंदिरा गांधी ने सबसे पहले कई लोकतांत्रिक संस्थाओं को कमजोर किया और फिर और आगे बढ़ गईं — प्रेस पर सेंसर लगाया, पत्रकारों को गिरफ़्तार किया, विपक्ष को जेल में डाल दिया और भी बहुत कुछ.

भारत के एक राष्ट्र के रूप में पूरे वादे के टूटने का ख़तरा पैदा हो गया था. सुप्रीम कोर्ट, जिसे नागरिकों की रक्षा करनी चाहिए थी, नाकाम रहा. सिर्फ चुनावों ने लोकतंत्र को बचाया.

इंदिरा गांधी को यक़ीन था कि वे जीतेंगी और अपनी तानाशाही सरकार को वैध ठहराएंगी. लेकिन 1977 के आम चुनाव में उन्हें इतनी बुरी हार मिली कि भविष्य के हर संभावित तानाशाह ने दो सबक सीख लिए. कभी खुलकर आपातकाल मत लगाओ, उसे चुपचाप लागू करो. और चुनाव तभी कराओ जब जीत पक्की हो.

इसीलिए चुनाव आयोग इतना अहम है. अगर चुनाव निष्पक्ष हों और भारत की जनता को यह अधिकार मिले कि वे तानाशाहों या घोटालेबाज़ों को बाहर कर सकें, तभी लोकतंत्र बच सकता है.

आधुनिक लोकतंत्र की और तमाम ख़ूबियां, जिन्हें हम ज़्यादातर पश्चिमी देशों से जोड़ते हैं — आज़ादी, असहमति, न्याय वगैरह — भारत में पहले ही मुश्किल में हैं. एक ग़रीब आदमी के लिए न्याय पाना या ताक़तवर अफ़सरों और नेताओं के ख़िलाफ़ बोल पाना बेहद कठिन है, अगर नामुमकिन नहीं.

चुनाव आयोग ने कैसे खोया लोगों का भरोसा

भारत का हर नागरिक सिर्फ एक समय पर सबसे अधिक सशक्त महसूस करता है — जब वह वोट देता है. तभी हालात उलट जाते हैं. नेता जनता के पास जाकर उनसे कुछ मांगते हैं. आम आदमी जानता है कि कम से कम हर कुछ साल में एक दिन उसके पास यह अधिकार है कि वह किसी तानाशाह या भ्रष्ट नेता को बाहर कर सके.

अगर मताधिकार छीन लिया जाए तो लोकतंत्र कहलाने का हमारा हक़ भी छिन जाएगा. इसलिए यह ज़रूरी है कि चुनाव निष्पक्ष हों और विवाद से परे हों.

भारत जैसे बड़े देश में यह आसान नहीं है. फिर भी चुनाव आयोग ने कई बार न्यायपालिका से ज़्यादा साहस दिखाया है. इंदिरा गांधी को उन्होंने तब भी पद से बाहर कर दिया था जब वे सबसे ताक़तवर थीं. 1990 के दशक में मुख्य चुनाव आयुक्त टी.एन. शेषन ने नेताओं को उनकी हद दिखाई और उन्हें याद दिलाया कि संविधान किसी भी व्यक्ति से ऊपर है.

हमारे चुनाव कराने वालों का यह श्रेय है कि हाल तक हारने वाले भी यह दावा नहीं करते थे कि प्रक्रिया अनुचित है. हां, बूथ कैप्चरिंग की शिकायतें थीं, लेकिन आयोग अक्सर उन बूथों पर दोबारा मतदान करवाता था.

अब सब बदल गया है. कुछ साल पहले इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों (EVM) के कामकाज पर संदेह जताया गया. लेकिन यह संदेह जनता में गहराई से नहीं उतरा क्योंकि कोई यह साबित नहीं कर पाया कि मशीनों से छेड़छाड़ हुई थी और पूर्व चुनाव आयुक्तों ने साफ कहा कि इसमें धांधली असंभव है.

लेकिन पिछले कुछ वर्षों में, ख़ासकर महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों के बाद से, मतदाता सूची तैयार करने को लेकर चिंता बढ़ी है. आरोप है कि आयोग कई निर्वाचन क्षेत्रों में बड़ी संख्या में फर्जी मतदाता जोड़ने में शामिल है. यह हर जगह नहीं किया जाता, इसलिए ऐसा नहीं कि भाजपा को सोवियत शैली का बहुमत मिल रहा है. लेकिन यह काम समझदारी से और चुनिंदा इलाकों में होता है ताकि नतीजों पर असर पड़े. यह तभी काम करता है जब माहौल पूरी तरह भाजपा के ख़िलाफ़ न हो और दूसरे दलों के वोट फर्जी वोटों को पूरी तरह न दबा दें.

क्योंकि यह चुनाव प्रभावित करने का एक जटिल तरीका लगता है, इसलिए इस आरोप को साबित करना मुश्किल है. आलोचक सिर्फ मतदान संख्या में रहस्यमय उछाल और मतदाता सूची में संदिग्ध या दोहराए गए नामों की ओर इशारा कर सकते हैं.

यही काम विपक्ष — और हाल ही में राहुल गांधी — ने किया है.

CEC ने भारतीयों को समझाने में कोई रुचि नहीं दिखाई

किसी भी समझदार चुनाव आयुक्त को पता होना चाहिए कि प्रक्रिया की साख बनाए रखने के लिए सरकार (जिसने इन आयुक्तों की नियुक्ति की है और चयन प्रक्रिया से मुख्य न्यायाधीश को बाहर कर दिया है) और विपक्ष – दोनों को आयोग पर भरोसा होना चाहिए. सबसे ज़रूरी है कि जनता का भी भरोसा बना रहे. ईवीएम के आरोप इसलिए कमज़ोर पड़े क्योंकि जनता आश्वस्त नहीं हुई.

विपक्ष और जनता का भरोसा बनाए रखने के लिए मुख्य चुनाव आयुक्त को यह दिखाना चाहिए कि एक बार जब वह इस संवैधानिक पद पर बैठते हैं, तो वे उन लोगों की निष्ठा भूल जाते हैं जिन्होंने उन्हें नियुक्त किया और केवल संविधान के हित में काम करते हैं.

आज की समस्या यह है कि चुनाव आयोग विपक्ष की शिकायतों को गंभीरता से लेने की ज़रूरत नहीं समझता. जब कोई व्यक्ति विस्तार से वोटर लिस्ट में गड़बड़ियां बताता है, तो संविधान का सच्चा और ईमानदार संरक्षक यह कहेगा: “मुझे आपके दावों की जांच करनी होगी और आपको उतने ही विस्तार से जवाब देना होगा.”

वह यह नहीं कहेगा: “आपने कैसे हिम्मत की? हलफनामा दाखिल करो वरना हम नहीं सुनेंगे! माफी मांगो!”

क्या यह उस व्यक्ति की बातें लगती हैं जो सच तक पहुंचने के लिए दृढ़ है? जिसके पास छिपाने को कुछ नहीं है?

और भी बुरा यह कि भारतीय जनता को समझाने की कोई दिलचस्पी ही नहीं है. अपनी बदनाम प्रेस कॉन्फ्रेंस में कई अहम सवाल पूछे जाने पर सीईसी ज्ञानेश कुमार ने बस जवाब ही नहीं दिया.

बाद में, सरकार के समर्थकों ने मुद्दे को उलझाने की कोशिश की. उन्होंने एक पोलस्टर के ट्वीट में हुई संख्यात्मक गलती पर ध्यान खींचा और यह तर्क दिया कि चूंकि उसने गलती की, इसलिए विपक्ष के अच्छे से दस्तावेज़ित आरोप भी झूठे हैं.

यह सब ठीक संकेत नहीं हैं. भारतीय लोकतंत्र को शक्ति सिर्फ इसी विश्वास से मिलती है कि हर भारतीय को अपने नेताओं को चुनने और नाकाम नेताओं को हटाने का निष्पक्ष मौका मिलेगा.

अगर यह भरोसा छिन गया तो भारतीय लोकतंत्र का दिल ही छलनी हो जाएगा. और चुनी हुई सरकारों की वैधता भी छिन जाएगी.

वीर सांघवी एक प्रिंट और टेलीविजन पत्रकार हैं और टॉक शो होस्ट हैं. उनका एक्स हैंडल @virsanghvi है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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