एक बार के लिए हो सकता है कि दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने अपने उस राजनीतिक गुरू को मात दे दी हो, जिसे वो गुरू मानते नहीं हैं- प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी. पिछले शुक्रवार को मुख्यमंत्रियों की पीएम के साथ एक मीटिंग में, केजरीवाल ने अपनी टिप्पणियों को लाइवस्ट्रीम कर दिया, जिसकी वजह से उन्हें ‘प्रोटोकोल’ तथा एक ‘आंतरिक बैठक’ की ‘परंपरा’ को तोड़ने के लिए मोदी की झिड़की सुननी पड़ी.
ये देखते हुए कि कोविड-19 पर मुख्यमंत्रियों के साथ बैठक में पीएम का बयान हमेशा लाइवस्ट्रीम किया जाता है, ये समझना मुश्किल था कि हालात को लेकर किसी सीएम की टिप्पणियों को किसी प्रोटोकोल को तोड़ने या किसी रहस्य को खोलने जैसा, कैसे माना जा सकता है. पीएम आमतौर पर परेशान नहीं होते- कम से कम सार्वजनिक तौर पर तो नहीं. जिस चीज़ ने उन्हें परेशान किया होगा वो था केजरीवाल का अपनी सरकार की नाकामियों का ठीकरा केंद्र के सिर फोड़ने का स्पष्ट प्रयास. और वो बहुत चतुराई से ऐसा कर रहे थे- दिल्ली के अस्पतालों में ऑक्सीजन की ज़रूरत पूरा करने के लिए केंद्र से मदद की गुहार लगाकर. सीएम ने मोदी से माफी मांग ली, लेकिन ऑप्टिक्स की लड़ाई जीत ली.
यह भी पढ़ें : मोदी-शाह का कमेस्ट्री बनाम गणित का फॉर्मूला असम चुनाव में कितना खरा साबित होगा
नैरेटिव की लड़ाई में हार
पीएम-सीएम्स बैठक में इस संक्षिप्त वार्तालाप से अंदाज़ा हो गया कि कैसे कोविड की दूसरी लहर ने केंद्र में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) अगुवाई वाली सरकार को एक कमज़ोर विकेट पर ला खड़ा किया है. वो पार्टी जो अभी हाल तक, कोरोनावायरस पर मोदी की जीत का जश्न मना रही थी, अब उसी नैरेटिव को सेट करने में गड़बड़ाती दिख रही है- जो कभी उसकी विशेषता हुआ करती थी.
ऐसा इसलिए है कि एक पॉज़िटिव नैरेटिव तैयार करने के लिए बीजेपी के पास हमेशा एक निर्धारित सांचा रहा है, चाहे ज़मीनी स्तर पर स्थिति कितनी भी ख़राब हो. और उनमें से सबसे मज़बूत सांचा वो था, जिसका ख़ुलासा बहुत ही उपयुक्त ढंग से, आमिर-ख़ान अभिनीत 3 इडियट्स के ऑल इज़ वेल में किया गया है. वो गाना याद है ‘जब लाइफ हो आउट ऑफ कंट्रोल, होठों को करके गोल, सीटी बजा के बोल, ऑल इज़ वेल?’ जब ये लेखक और उसका परिवार आइसोलेशन में है, और घबराहट के साथ टीवी तथा सोशल मीडिया पर अस्पतालों के बाहर का नज़ारा देख रहे हैं, गाने की अगली पंक्ति झुरझुरी पैदा कर देती है: मुर्गी क्या जाने अंडे का क्या होगा /लाइफ मिलेगी या तवे पर फ्राई होगा /कोई न जाने अपना फ्यूचर क्या होगा /होठों को करके गोल, सीटी बजा के बोल, ऑल इज़ वेल’.
निजी असुरों को अलग रख दें तो ऑल इज़ वेल कथानक ने अतीत में ख़ूब काम किया. चाहे वो बड़ी करेंसी की नोटबंदी हो या लगातार गिरता आर्थिक ग्राफ, मोदी के ऑल-इज़-वेल आश्वासन और भारत को 5 ट्रिलियन डॉलर अर्थव्यवस्था बनाने के वादे के साथ, लोग सब समस्याओं को भूल गए- ठीक वैसे ही, जैसे 3 इडियट्स में स्थिर सा दिख रहा शिशु, आमिर ख़ान के तीन शब्द सुनने के बाद लातें चलाने लगता है. ऐसे में जब कोविड संक्रमण की दूसरी लहर एक तूफान की तरह भारत से टकराई है और स्वास्थ्य ढांचे के बहु-प्रचारित सुधार का नतीजा सिफर दिख रहा है- ऐसा कुछ अच्छा नहीं हो रहा, जिसके लिए सत्तारूढ़ पार्टी वो गाना गुनगुनाने लगे.
70 साल बनाम 5 साल
सत्ताधारी पार्टी के कथानक का दूसरा पिलर हुआ करता था 70 साल बनाम पांच/सात साल. विपक्षी पार्टियों के शासन के वो तमाम दशक बेकार थे. ये मोदी सरकार ही थी जिसने, देश में कोरोनावायरस फैलने पर स्वास्थ्य ढांचे में सुधार किया. पेट्रोल और डीज़ल के दाम भी इसलिए ज़्यादा हैं, क्योंकि अतीत में किसी सरकार ने, तेल आयात पर निर्भरता कम करने के लिए कुछ नहीं किया.
ऐसा लगता है कि भारत की आज़ादी के 70 साल में 2014 तक कोई सार्थक काम नहीं हुआ- सही कहें तो 67 साल तक. पिछले साल कोरोनावायरस को ‘हराने’ के लिए एक मज़बूत सार्वजनिक स्वास्थ्य इनफ्रास्ट्रक्चर तैयार करने का श्रेय लेने के बाद, दूसरी लहर से निपटने की तैयारी के अभाव के लिए बीजेपी अब विपक्ष को दोष नहीं दे सकती.
70 सालों में क्रमिक सरकारों की नाकामियों के अलावा, बीजेपी नेताओं को एजेंडा तय करने के लिए बहुत से दूसरे मुद्दे मिल गए- अन्य के अलावा, तब्लीग़ी बतौर सुपर-स्प्रेडर्स, वायरस का चीनी मूल और ग़ैर-बीजेपी सरकारों का कुप्रबंधन (याद है आम आदमी पार्टी-शासित दिल्ली में अमित शाह की दख़लंदाज़ियां और पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश तथा तेलंगाना में केंद्रीय टीमों के जांच-परिणाम?). आज पार्टियों के आधार पर, सरकारों के बीच आप कोई अंतर नहीं कर सकते. अगर महाराष्ट्र, दिल्ली और छत्तीसगढ़ में संक्रमण के मामलों में उछाल देखा जा रहा है- और स्वास्थ्य ढांचा ढहता दिख रहा है- तो उत्तर प्रदेश और गुजरात में भी यही हो रहा है. अगर दिल्ली के अस्पतालों में ऑक्सीजन की कमी से मरीज़ मर रहे हैं, तो हरियाणा में भी यही हो रहा है. और तबलीग़ियों की जगह टीवी स्क्रीन्स पर कुंभ में स्नान करते साधुओं और विशाल चुनाव रैलियों को संबोधित करते शीर्ष बीजेपी नेताओं की तस्वीरें दिखाई जा रहीं थीं.
राहुल गांधी पर भी चोट नहीं कर सकते
आख़िरी पर कम नहीं, बात का विषय तलाशने के लिए बीजेपी हमेशा विपक्ष के चेहरे राहुल गांधी के सहारे रहती थी. लेकिन, बदलाव के लिए इस बार पिछले साल कोविड संकट शुरू होने के बाद से ही, खेल में कांग्रेस नेता का हाथ ऊपर रहा है. क्या कभी कोई सोच सकता था कि बीजेपी आख़िर में गांधी का अनुकरण करेगी, जिन्होंने कोविड ख़तरे का हवाला देते हुए पश्चिम बंगाल में अपनी चुनाव रैलियां रद्द कर दीं थीं? और ये भी कि बीजेपी नेता, युवा कांग्रेस अध्यक्ष श्रीनिवास बीवी और आप विधायक दिलीप पाण्डे द्वारा किए जा रहे कोविड राहत कार्यों से, राजनीतिक असुरक्षा महसूस करेंगे?
बीजेपी के साथ दरअसल हो ये रहा है कि बदलते हालात के हिसाब से वो अपना कथानक बदलने में नाकाम रही है. इसलिए जब मोदी सरकार पर आंच आ रही है, तो वही पुरानी तरकीब अपनाई जा रही है, विपक्ष पर हमला और मोदी का गुणगान.
कोविड की इस ताज़ा चुनौती का पैमाना इतना बड़ा है कि उसे बहस की कला और कुतर्क से संभाला नहीं जा सकता. बीजेपी के लिए सबसे अच्छी रणनीति यही होगी, कि श्रीनिवास और पाण्डे जैसे अपने राजनीतिक विरोधियों से सीख लें, और लोगों तक राहत पहुंचाने के लिए अपने लाखों कार्यकर्ताओं को ज़मीन पर उतार दें. ये समय अवधारणाओं के प्रबंधन का बिल्कुल भी नहीं है. अब समय सक्रिय सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रबंधन का है.
(यहां व्यक्त विचार निजी हैं)
(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
यह भी पढ़ें : असम में कांग्रेस के चुनाव अभियान में छिपे हैं राहुल के लिए कई सबक