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Sunday, 24 November, 2024
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हवाई चप्पल वालों को हवाई यात्राएं कराने वाली कंपनियां तबाह क्यों?

तेजी से बढ़ रहे भारतीय बाजार पर कब्जा जमाने के लिए विमान कंपनियां आपस में गलाकाट प्रतिस्पर्धा कर रही हैं. और ये ऐसे समय में हो रहा है, जब अर्थव्यवस्था के ज्यादातर क्षेत्र मंदी का सामना कर रहे हैं.

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एयर इंडिया बिकने के लिए बाजार में खड़ी है, खरीदार नहीं मिल रहे हैं. जेट एयरवेज बर्बाद और बंद है, उसके कर्मचारियों को वेतन नहीं मिल रहा है. किंगफिशर एयरलाइंस बर्बाद हो चुकी है. उसके मालिक विजय माल्या कर्ज चुकाने की जिम्मेदारी और कानून से भागते हुए लंदन चले गए हैं. इसके पहले एयर सहारा की हालत खस्ता हुई और वो जेट एयरवेज के हाथों बिक गई थी. देश में सबसे पहले सस्ता एयर टिकट देने वाली कंपनी एयर दक्कन को किंगफिशर एयरलाइंस ने खरीद लिया था.

एयरलाइंस सेक्टर में लगातार हो रही उथल-पुथल के ये कुछ उदाहरण हैं.

आखिर भारत के एविएशन सेक्टर को हुआ क्या है? इतने धूम-धाम से शुरू होने वाली एयरलाइंस कंपनियां देखते ही देखते बर्बाद क्यों हो जा रही है? वह भी ऐसे समय में जब हवाई यात्रा करने वालों की संख्या लगातार बढ़ रही है और एविएशन फ्यूल के रेट भी सबसे ऊंचे स्तर से कम हो चुके हैं? एविएशन सेक्टर की हालत को समझने के लिए एक-एक करके कंपनियों की कहानी जानते हैं.

एयर इंडिया- सबसे पहले सरकारी विमान सेवा कंपनी एयर इंडिया की बात करें. भारत सरकार ने अपना इरादा साफ कर दिया है कि वह एयरलाइंस कारोबार में नहीं रहना चाहती है. एयर इंडिया को बेचने से उसे खुशी होगी. एयर इंडिया का घाटा पिछले तीन साल में बढ़कर 19,435 करोड़ रुपये हो गया है. कंपनी के 15 एयरक्राफ्ट बेकार पड़े हुए हैं, क्योंकि इनके लिए स्पेयर पार्ट्स नहीं हैं. कंपनी के पास वेंडरों को भुगतान करने के लिए पैसे नहीं हैं. कंपनी को वित्त वर्ष 2019 में 7,635 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ, जो उसके इतिहास में सबसे बड़ा घाटा है.

नरेंद्र मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में एयर इंडिया के खरीदार नहीं मिले. मोदी के दूसरे कार्यकाल में सरकार ने खरीदारों की शर्तों के मुताबिक नियमों में बदलाव की योजना बनाई है और अब वह कंपनी की 95 प्रतिशत हिस्सेदारी बेचने को तैयार है, जबकि 5 प्रतिशत हिस्सेदार इसके कर्मचारी होंगे. इस योजना को मूर्त रूप दिया जाना अभी बाकी है.

जेट एयरवेज – नकदी न होने की वजह से जेट एयरवेज ने इस साल 17 अप्रैल से अपना सभी परिचालन बंद कर दिया. इसके करीब 22,000 कर्मचारियों का भविष्य अधर में है. 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान जब निजी क्षेत्र की इस कंपनी के कर्मचारियों ने प्रदर्शन किया और सरकार से हस्तक्षेप कर कंपनी के कर्मचारियों की नौकरी बचाने की मांग की तो यह एयरलाइंस पूरे देश में चर्चा में आई. यात्रियों की संख्या में हिस्सेदारी के हिसाब से 2007 तक यह देश की सबसे बड़ी विमानन कंपनी थी, जिसकी घरेलू बाजार में हिस्सेदारी 23 प्रतिशत और अंतरराष्ट्रीय बाजार में हिस्सेदारी 6 प्रतिशत थी. अब स्थिति यह है कि कंपनी के ऊपर भारी कर्ज है. कंपनी के मालिक नरेश गोयल और उनकी पत्नी के देश छोड़ने पर रोक लगा दी गई है.


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किंगफिशर एयरलाइंस- अप्रैल 2011 तक के आंकड़ों के मुताबिक किंगफिशर एयरलाइंस की बाजार हिस्सेदारी 20 प्रतिशत थी. कंपनी 65 विमानों का परिचालन करती थी और इसकी हर दिन 300 उड़ानें होती थीं. नागरिक उड्डयन महानिदेशालय ने 20 अक्टूबर 2012 से कंपनी का परिचालन बंद करने का आदेश दे दिया. जून 2012 तक कंपनी का घाटा 10,260 करोड़ रुपये हो चुका था और कंपनी के ऊपर कुल 13,446 करोड़ रुपये का कर्ज हो गया, जिसमें से बैंकों का 5,940 करोड़ रुपये कर्ज औऱ शेष प्रमोटरों का कर्ज, कारोबार संबंधी कर्ज व कम अवधि की अन्य देनदारियां थीं. बहरहाल भारतीय स्टेट बैंक के नेतृत्व में 13 बैंकों के कंसोर्सियम द्वारा कर्ज के भुगतान को लेकर दबाव बनाने के बाद कंपनी के प्रवर्तक विजय माल्या देश छोड़कर भाग गए.

एयरलाइंस कंपनियों की दुर्गति क्यों?

निजी एयलाइंस के आने, उनके बर्बाद होने, उन्हें दिए गए कर्ज के डूब जाने और फिर बैंकों के तबाह होने की एक लंबी कहानी है, जो अब भी जारी है. भारत में विमानन सेवा में उदारीकरण के साथ यह सेक्टर बहुत तेजी से आगे बढ़ा. इस सेक्टर का उदारीकरण इस सिद्धांत पर आधारित था कि इससे नई विमानन सेवाएं बाजार में आएंगी और किराये सस्ते होंगे. किराया कम होने से यात्रियों की संख्या में बढ़ोतरी होगी. इससे आर्थिक विकास होगा और बड़ी संख्या में नौकरियों का सृजन होगा. इसमें कोई संदेह नहीं कि योजना के मुताबिक हवाई यातायात करने वाले लोगों की संख्या बढ़ी है. इस सेक्टर के उदारीकरण के शुरुआती वर्षों को देखें तो, नागरिक उड्डयन महानिदेशालय के आंकड़ों के मुताबिक, 1998-99 में हवाई यात्रियों की संख्या 2.32 करोड़ थी, यह संख्या 2006-07 में बढ़कर 6.09 करोड़ पर पहुंच गई. यानी एक दशक से कम समय में यात्रियों की संख्या करीब तीन गुना बढ़ गई.

भारत जब तेजी से आर्थिक विकास कर रहा था तो देश के छोटे शहरों को विमान सेवाओं से जोड़ने की योजना बनी. मनमोहन सिंह के कार्यकाल में सरकार ने 2020 तक 100 छोटे हवाई अड्डे बनाने की योजना तैयार की थी. ऐसा अनुमान था कि उस समय तक यात्रियों की संख्या बढ़कर 30 करोड़ हो जाएगी. इस योजना को मोदी सरकार ने भी नहीं छोड़ा था और बड़े-बड़े वादे किए गए. मोदी ने खुद कहा कि हवाई चप्पल पहनने वाले भी अब हवाई जहाज में यात्रा कर सकेंगे. ‘उड़े देश का आम नागरिक’ योजना के तहत सरकार ने छोटे शहरों को जोड़ने की योजना बनाई और बहुत जोरदार तरीके से इसका प्रचार किया गया.

निजी क्षेत्र की कई विमानन कंपनियों ने देश में कदम रखा. लेकिन धीरे-धीरे यह क्षेत्र अव्यवस्था का शिकार हो गया और प्रतिस्पर्धा के बाद जो स्थिरता आनी चाहिए थी, वह नहीं आ पाई. किंगफिशर के बारे में माना जाता है कि बहुत तेजी से विस्तार और टिकट के मूल्य की प्रणाली व्यावहारिक न होने की वजह से वो डूब गई. एयर इंडिया के बारे में भी यही कहा जाता है कि कंपनी महंगी पेंटिंग खरीदने जैसी फिजूलखर्चियों और मिसमैनेजमेंट में बर्बाद हो गई. वहीं, जेट एयरवेज के बारे में कहा जा रहा है कि ईंधन के दाम ज्यादा होने और सस्ते टिकट की कीमतों की जंग में हार गई. इंडिगो एयरलाइंस सितंबर 2018 को समाप्त तिमाही में घाटा उठाने वाली कंपनियों के क्लब में शामिल हो गई और उसका घाटा 652 करोड़ रुपये रहा.

भारत के विमान क्षेत्र की स्थिति खराब होने की कुछ अहम वजहें निम्नलिखित हो सकती हैं-

आर्थिक मंदीः किंगफिशर एयरलाइंस उस दौर में नीचे आनी शुरू हुई थी, जब देश में आर्थिक मंदी थी. लोगों की किराया भुगतान करने की क्षमता कम हो रही थी, वहीं 2005 में कंपनी की शुरुआत करने वाली किंगफिशर एयरलाइंस स्थानीय बाजार में भी अंतरराष्ट्रीय स्तर का आतिथ्य सत्कार करने की कवायद कर रही थी. आज भी हालात अच्छे नहीं हैं. देश में बेरोजगारी 4 दशक के सबसे ऊंचे स्तर पर है. एफएमसीजी क्षेत्र में मंदी है, ग्रामीण इलाकों में कारोबार सुस्त है. वाहन क्षेत्र में कारोबार बहुत सुस्त है और कारों व दोपहिया वाहनों की बिक्री घटी है. ऐसी स्थिति में लोगों की भुगतान करने की क्षमता कमजोर हुई है. इसका असर विमानन क्षेत्र पर पड़ना स्वाभाविक है. खासकर छोटे शहरों में विमान यात्री कम मिलते हैं, जिसकी वजह से विमानन कंपनियों को छोटे एयरक्राफ्ट का इस्तेमाल करना पड़ता है और इससे लागत भी बढ़ती है.

विमान ईंधन का बढ़ता बोझ: हवाई सेवाओं के परिचालन में विमान ईंधन की भूमिका अहम होती है. स्थिति यह है कि विमान कंपनियां ईंधन का खर्च यात्रियों को बताने लगी हैं. कुल परिचालन खर्च में सामान्यतया विमान ईंधन की हिस्सेदारी करीब 40 प्रतिशत होती है. भारत में 2019 में विमान ईंधन के दाम में 8.15 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है. इकोनॉमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली (ईपीडब्ल्यू) के एक शोध पत्र के मुताबिक भारत में विमान ईंधन की कीमतें वैश्विक दाम की तुलना में 35 से 40 प्रतिशत ज्यादा रहती हैं. ईपीडब्ल्यू के मुताबिक विमान ईंधन के दाम ज्यादा होना विमानन कंपनियों की खराब वित्तीय हालत की प्रमुख वजह है. विभिन्न राज्यों ने भी विमान ईंधन पर 20 से लेकर 30 प्रतिशत तक कर लगा रखा है. बाजार में प्रतिस्पर्धा को देखते हुए कंपनियां लागत में कटौती कर रही हैं और कर्मचारियों के भत्ते कम कर रही हैं. खानपान पर आने वाला खर्च तक घटाया जा रहा है.


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हालांकि, विमान ईंधन की ऊंची कीमत से हाल में कुछ राहत मिली है. एक जुलाई को विमान ईंधन के दामों में 5.8 प्रतिशत की कटौती की गई है. सार्वजनिक क्षेत्र की पेट्रोलियम कंपनियों के अनुसार अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कच्चे तेल के घटते दामों की वजह से यह कदम उठाया गया है. इस तरह विमान ईंधन की कीमतें अपने चार साल के निचले स्तर पर आ गयी हैं. दिल्ली में एयर टर्बाइन फ्यूल यानी एटीएफ के दाम में 3,806 रुपये प्रति किलोलीटर की कटौती की गई है और यह 61,200 रुपये प्रति किलोलीटर पर आ गया है.

आक्रामक नीति और बढ़ती प्रतियोगिता: तेजी से बढ़ रहे भारतीय बाजार पर कब्जा जमाने के लिए विमान कंपनियां आपस में गलाकाट प्रतिस्पर्धा कर रही हैं. जीआर गोपीनाथ ने भारत की पहली कम किराये वाली विमान सेवा कंपनी एयर दक्कन की शुरुआत की, जो घाटे में चली गई. हालांकि, इसका बहुत बड़ा ग्राहक आधार था. विस्तारवादी रणनीति के तहत किंगफिशर एयरलाइंस ने 2007 में इसे खरीद लिया, जो खुद ही लड़खड़ा गई. इसी तरह से सहारा ने भी विमानन सेवा में कदम रखा था. वह भी बिक चुकी है.

सरकार का रुखः भारत सरकार ने कई मौके पर यह स्वीकार किया है कि लोकतांत्रीकरण यानी ज्यादा से ज्यादा लोगों के हवाई यात्रा करने और ज्यादा कंपनियों के बीच प्रतिस्पर्धा होने से उड्डयन क्षेत्र को मदद मिलेगी. वहीं, एयरलाइंस क्षेत्र को कड़ाई से वाणिज्यिक अनुशासन का पालन करना होगा, तभी वह आगे बढ़ सकता है. विमानन कंपनियों ने इस दिशा में सोचना शुरू भी किया है और विमान के किराये में बढ़ोतरी हुई है. अगर सरकार का इस क्षेत्र पर नियंत्रण रहता है, जिससे सामाजिक सेवा हो सके तो उसका बोझ सरकार को वहन करना होगा. इसी तरह से अगर लोगों को सस्ती विमानन सेवाएं मुहैया करानी है तो एयरपोर्ट अथॉरिटी आफ इंडिया को इसका बोझ उठाना होगा. ईपीडब्ल्यू के शोध पत्र में एयर इंडिया के पूर्व चेयरमैन रूसी मोदी ने कहा है कि एयर इंडिया इसलिए मुनाफे में नहीं है क्योंकि सरकार उसके बोर्ड को सही दिशा में प्रबंधन नहीं करने दे रही है.

(लेखिका राजनीतिक विश्लेषक हैं.)

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