बाबा रामदेव के पतंजलि संस्थान की नयी ‘कोरोनिल’ दवा को लेकर पिछले महीने जो विवाद खड़ा हुआ, उसने भारत में आयुर्वेद से उपचारों के नियमन से संबंधित समस्या को उजागर कर दिया. पतंजलि ने दावा किया कि उसने जो आयुर्वेद औषधि कोरोनिल तैयार की है वह लोगों को कोविड-19 वायरस से सुरक्षा भी प्रदान करेगी और इससे होने वाले रोग को दूर भी करेगी. बाद में जो जानकारियां सामने आईं उन्होंने इन दावों पर और इस दवा के लिए किए गए शोध पर संदेह पैदा कर दिया.
इस प्रकरण ने यह भी उजागर किया कि वैकल्पिक उपचारों और (हर्बल) दवाओं को लेकर अब आधुनिक सोच को कितना महत्व दिया जाने लगा है. यह अच्छी बात है और इससे हर्बल दवाओं के उत्पादक तथा निर्यातक के रूप में भारत को काफी फायदा ही होगा.
प्राकृतिक उपचारों, पारंपरिक तथा वैकल्पिक दवाओं एवं जड़ी-बूटियों की ओर झुकाव दुनिया भर में बढ़ता जा रहा है. यह भारत के लिए अच्छा संकेत है. ये दवाएं देशभर में किसानों और कंपनियों के लिए अच्छी आमदनी का स्रोत बन सकती हैं.
भारत में पारंपरिक दवाओं का जमाने से प्रयोग होता रहा है, हालांकि उनके परीक्षण और उनकी क्वालिटी पर नियंत्रण की प्रक्रिया का कम ही ध्यान रखा जाता है. भारत में उत्पादित हर्बल दवाओं का छोटा-सा हिस्सा ही निर्यात होता है क्योंकि वे आयात करने वाले देशों में लागू नियमन प्रक्रिया के मानदंडों को पूरा नहीं करतीं. वे भारत की आमदनी और निर्यातों में वृद्धि का बड़ा स्रोत बन सकती हैं लेकिन इसके लिए नियमन की आधुनिक व्यवस्था जरूरी है. वैसे, फिलहाल भारत में आयुर्वेद का कुल उद्योग करीब 30,000 करोड़ रुपये मूल्य का है.
वैकल्पिक दवाओं को बढ़ावा
भारत में कई सरकारों ने वैकल्पिक दवाओं को बढ़ावा देने के कदम उठाए हैं. 2003 में सरकार ने आयुर्वेदिक दवाओं की पहली अधिकृत सूची ‘फार्मोकोपोइया’ जारी की. यह औषधि-व्यवस्था को आकार देने का पहला कदम था. 2014 में नरेंद्र मोदी सरकार ने आयुर्वेद, योग, यूनानी, सिद्ध, और होमियोपैथी को मिलाकर ‘आयुष’ नाम की व्यवस्था तैयार की और इसी नाम से इसका एक अलग मंत्रालय बना दिया. हाल में सरकार ने ‘जन औषधि स्टोरों’ से आयुर्वेद दवाओं को बेचने का फैसला किया.
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2017 में प्रसिद्ध अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) की तरह दिल्ली में अखिल भारतीय आयुर्वेद संस्थान का गठन किया. सरकार कई राज्यों में किसानों को अपनी खेती का विस्तार और आय बढ़ाने के लिए जड़ी-बूटियां उगाने के लिए प्रोत्साहित कर रही है. मोदी सरकार के आने के बाद से वैकल्पिक दवाओं के लिए बजट दोगुना बढ़ा दिया गया है.
आयुर्वेद के लिए नियमन क्यों जरूरी है
‘कोरोनिल’ विवाद से स्पष्ट हो गया है कि सरकार को आयुर्वेद को बढ़ावा देने से आगे बढ़कर भी बड़ी भूमिका निभानी होगी. वैकल्पिक दवाओं को बढ़ावा देने में सरकारी नियमन व्यवस्था के दो काम होंगे- एक, सुरक्षा की गारंटी, दो, दवा के कारगर होने के दावे की सच्चाई की जांच. तमाम दूसरे कार्यक्रमों के साथ सरकार को इन दो कामों पर ज़ोर देना ही होगा.
आम धारणा के विपरीत तथ्य यह है कि आयुर्वेद दवाएं स्वास्थ्य के लिए खतरनाक भी हो सकती हैं. इसकी तीन मुख्य वजहें हैं—1. सभी जड़ी-बूटी उपयोग के लिए निरापद नहीं हैं, 2. भस्मों और पौधों से इतर चीजों का उपयोग, 3. एलोपैथिक दवाओं का अवैध मिश्रण. आयुर्वेद में धतूरा, नक्श वोमिका जैसे कई पौधों का बड़ी मात्रा में उपयोग होता है, जो मनुष्य के लिए विषैले साबित हो सकते हैं. इसलिए जरूरी है कि उनका सीमित उपयोग हो और उन्हें शोधित करने के बाद दवा में मिलाया जाए.
इसी तरह, दवाओं में मिलाए गए कुछ भस्म खतरनाक धातुओं के भी हो सकते हैं. अभी हाल में 2017 में अमेरिका के ‘फूड ऐंड ड्रग्स एडमिनिस्ट्रेशन’ (एफडीए) ने कुछ आयुर्वेदिक दवाओं के इस्तेमाल के खिलाफ चेतावनी जारी की. एफडीए ने इन दवाओं में लीड की खतरनाक मात्र पाई. ऐसी चेतावनी पहली बार नहीं दी गई है.
कुछ लापरवाह दवा-उत्पादक तो आयुर्वेदिक दवाओं में एलोपैथिक दवाएं मिलाते हैं जिनमें प्रायः स्टेरॉइड होते हैं. कुछ स्टेरॉइड (अधिकतर कोर्टीकोस्टेरॉइड) खून का संचार बढ़ाकर रोगी को बेहतर होने का झूठा एहसास दिलाते हैं. संक्रमण जैसे रोगों को तो ये और बढ़ा सकते हैं लेकिन स्टेरॉइड के असर से रोगी बेहतर महसूस करते हैं इसलिए वे इन दवाओं को लेते रहते हैं. मुंबई के किंग एडवर्ड मेमोरियल अस्पताल ने एक अध्ययन में पाया कि 40 प्रतिशत आयुर्वेदिक दवाओं में स्टेरॉइड मिलाए गए थे.
विषैले पौधों, भारी धातुओं और घोर धोखाधड़ी (स्टेरॉइड) से भारतीय दवाओं की साख को चोट पहुंची है. लापरवाह उत्पादक मुनाफे के लिए फर्जीवाड़े का सहारा लेते हैं, और पूरे उद्योग को नुकसान पहुंचाते हैं. अंतरराष्ट्रीय बाज़ारों में तो समस्या और गंभीर है. भारत में हम स्थापित और संदिग्ध ब्राण्डों में फर्क को पकड़ लेते हैं मगर विदेश के किसी व्यक्ति के लिए यह मुश्किल है. जिसे गलत दवा का अनुभव हुआ होगा वह तो सभी आयुर्वेदिक दवाओं से बचेगा.
दो जरूरी कदम
दवाओं के नियमन का पहला कदम है उनके सुरक्षित होने की गारंटी देना. आयुष दवाओं से उपचार न भी होता हो, वे रोगी को नुकसान न पहुंचाएं. सरकार ने आयुर्वेदिक दवाओं के विकास और उत्पादन के दिशनिर्देश जारी कर दिए हैं लेकिन उन्हें ठीक से लागू नहीं किया जाता. इससे नियमों को बनाने का मकसद तो बेकार जाता ही है, नियमों की उपेक्षा करने की संस्कृति को बढ़ावा मिलता है. कानून के मुताबिक काम शुरू करने वाली कंपनियां जब नियमों का उल्लंघन होते देखती हैं तो वे भी छूट लेने लगती हैं.
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सुरक्षा की गारंटी के बाद, दवाओं से इलाज के बारे में किए गए दावों की जांच का नंबर आता है. एलोपैथिक दवाओं के बारे में जो दावे किए जाते हैं उन्हें सिद्ध करना मुश्किल होता है, तो वैकल्पिक दवाओं के मामले में तो यह और भी कठिन हो सकता है. एलोपैथिक दवाओं की तरह आयुर्वेद में सक्रिय तत्व प्रायः नहीं निकाला जाता. इसके चलते आयुर्वेदिक दवाओं की क्षमता घट जाती है और उन्हें असर करने में ज्यादा समय लगता है. इसलिए, आयुर्वेदिक दवाएं बनाने वालों को रोगों के उपचार के बारे में दावे नहीं करने चाहिए जो प्रकटतः गलत हैं. इस तरह के गलत दावे खतरनाक दवाओं के बारे में भी किए जा सकते हैं. इस तरह इन दवाओं के बारे में यही आम धारणा बनती है कि इनके दावे झूठे हैं. जिन आयुर्वेदिक दवाओं के अच्छे परिणाम निकले हैं उन पर भी ग्राहक संदेह करेंगे.
किसी भी स्वस्थ्य व्यवस्था के नियमन का ज़ोर रोगियों की सुरक्षा और प्रभावी उपचार पर ही रहा है. लेकिन सरकार की दूसरी ज़िम्मेदारी व्यवस्था में भरोसा जमाने की भी है. व्यवस्था में भरोसा टूटते ही सब्सिडियों, प्रचार अभियानों, और दूसरी योजनाओं का असर सीमित हो जाता है. आयुष और जड़ी-बूटियों की खेती को बढ़ावा देने के साथ अगर हम आयुर्वेदिक दवाओं के लिए उपयुक्त नियमन व्यवस्था बनाते हैं तो न केवल रोगियों की सुरक्षा होगी बल्कि आयुर्वेद को उपचार की एक सुरक्षित तथा कारगर व्यवस्था के रूप में बढ़ावा भी दे सकेंगे, एक ऐसी व्यवस्था के रूप में जिसमें भारत विश्वगुरु होने का दावा कर सकता है.
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