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Monday, 23 December, 2024
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यूरोप और अमेरिका के विपरीत भारत ने कोविड संकट के दौरान आर्थिक आज़ादी क्यों बढ़ाई है

केंद्र सरकार ने भारतीय अर्थव्यवस्था के विभिन्न सेक्टरों में अनेक पाबंदियों को हटाने की पहल की है और 1991 के उदारीकरण के विपरीत, राज्य सरकारें भी इस प्रक्रिया में साथ दे रही हैं.

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भारत में कोविड-19 महामारी के दौरान केंद्र और राज्य सरकारें आर्थिक स्वतंत्रताओं को बढ़ा रही हैं.

राजकोषीय उपाय संबंधी सीमित विकल्पों और औपचारिक ऋण तंत्र के अपेक्षाकृत छोटे दायरे को देखते हुए उन क्रियाकलापों को बढ़ावा देने पर ज़ोर दिया जा रहा है जो कि व्यक्ति और व्यवसाय अपने हित में, अपने स्तर पर कर सकते हैं.

इसका मतलब है लोगों द्वारा किए जा सकने वाले कार्यों से जुड़े अवरोधों को खत्म करना. कई वैसे कार्यों को करने की छूट दे दी गई है जिन्हें कि पहले अवैध माना जाता था. इससे आर्थिक गतिविधियों और आर्थिक वृद्धि की संभावनाएं बढ़ी हैं.

इन छूटों में से कुछ के तात्कालिक फायदे हैं. बाकियों में ऐसा नहीं है लेकिन दीर्घावधि में वे भी भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए लाभकारी साबित होंगी.


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यूरोप और अमेरिका की भारत पर 3 प्रकार की बढ़त

कोविड महामारी को लेकर भारत सरकार द्वारा उठाए गए कदम यूरोप और अमेरिका के देशों की प्रतिक्रियाओं से तीन कारणों से भिन्न हैं. सर्वप्रथम, उन देशों में घाटे वाली सरकारी कंपनियां और बैंक तथा खेती और कृषि व्यापार संबंधी पाबंदियां जैसी व्यापक ढांचागत समस्याएं नहीं थीं. यानि उनके पास उदारीकरण के ज़रिए आर्थिक वृद्धि को गति देने का स्कोप नहीं था.

दूसरा, जर्मनी जैसे देशों में राजकोषीय अधिशेष की स्थिति थी. यानि उनके पास सरकारी खर्च बढ़ाने का विकल्प था. अन्य देशों के पास विशाल राजकोषीय घाटे से निपटने के लिए अंतरराष्ट्रीय बाज़ारों से धन उगाहने की क्षमता थी. इन वजहों से वे कोविड को लेकर जीडीपी के 10 प्रतिशत तक के राजकोषीय प्रोत्साहन पैकेज दे सके.

तीसरा, ये बात उल्लेखनीय है कि बैंकिंग और ऋण तंत्र समेत औपचारिक अर्थव्यवस्था की पहुंच चहुंओर होती है. केंद्रीय बैंकों के नकदी प्रवाह बढ़ाने संबंधी उपायों की पहुंच सिर्फ बड़े व्यवसायों तक ही नहीं, बल्कि पूरे देश में मध्यम और छोटे उद्यमों तक भी होती है. इस कारण उन देशों में नकदी की उपलब्धता बढ़ाने के उपाय भारत की तुलना में कहीं अधिक प्रभावी साबित हुए. उल्लेखनीय है कि भारत में बैंकों के ऋण का करीब 5 फीसदी हिस्सा ही छोटे व्यवसायों तक पहुंचता है.


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केंद्र सरकार द्वारा उठाए गए कदम

उदारीकरण के शुरुआती कदमों में से एक था 25 मार्च को टेलीमेडिसिन के लिए कानूनी ढांचा तैयार करना. नए दिशानिर्देश डॉक्टरों को वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से मरीजों को देखने और इलाज की पर्ची लिखने की अनुमति देते थे.

नए प्रावधानों ने क्लिनिकों और अस्पतालों में भीड़ को कम करने में भारी योगदान दिया, जो कि वायरस के प्रसार के हॉटस्पॉट बन गए थे. साथ ही इन दिशानिर्देशों के ज़रिए पूरे देश में चिकित्सा सुविधाएं उपलब्ध कराने के तरीकों में बदलाव की संभावनाएं भी निहित हैं. ग्रामीण और सुदूरवर्ती इलाकों में डॉक्टरों की तैनाती करने के दशकों के प्रयास के बाद अब नए प्रावधान मरीजों को दूरसंचार नेटवर्क का फायदा उठाने का मौका प्रदान करेंगे. निश्चय ही टेलीमेडिसिन भौतिक स्वास्थ्य ढांचे की कमी की भरपाई नहीं कर सकता लेकिन इससे हर तरह के मामलों में स्वास्थ्य केंद्र जाने की अनिवार्यता कम हो सकेगी.

उधर कृषि क्षेत्र में आवश्यक वस्तु अधिनियम की पाबंदियों को खत्म करने, किसानों को बाज़ार समितियों की पकड़ से आज़ाद करने और कॉन्ट्रैक्ट खेती की इजाज़त दिए जाने के लिए अध्यादेश लाए गए.

इसके अलावा सरकार ने पंजाब एंड महाराष्ट्र कॉपरेटिव बैंक (पीएमसी) और येस बैंक के विफल होने के मामलों में भी हस्तक्षेप किया. रिज़र्व बैंक को ऐसे मामलों के त्वरित समाधान और कॉपरेटिव बैंकों पर अधिक नियंत्रण के लिए अधिकार दिए गए.

उद्योग और वित्त जगत को भी पहले से अधिक स्वतंत्रता दी गई है. नीलामी के ज़रिए 41 कोयला खदानों में खनन की अनुमति दिए जाने से कोयला सेक्टर को बल मिला है. पूर्व में, जब सरकार कोयला खदानों का आवंटन या नीलामी करती थी जो उत्पादित कोयले को लेकर कई शर्तें जुड़ी रहती थीं. खनन कंपनियों को केंद्रीय स्तर पर लिए गए फैसलों के तहत पूर्वनिर्धारित मात्रा में कोयला बिजली कंपनियों, सीमेंट उद्योग और अन्य फैक्ट्रियों को पहले से तय कीमतों पर देना पड़ता था. नई नीलामियों पर इस तरह की केंद्रीय प्लानिंग का कोई बंधन नहीं होगा. खदान मालिक किसी भी ग्राहक को बाज़ार मूल्य पर कोयला बेच सकेंगे.

इसी तरह प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) की बात करें तो सरकार ने हथियार निर्माताओं को भारत में निवेश की पहले से ही अधिक आज़ादी देते हुए रक्षा उत्पादन सेक्टर में एफडीआई की सीमा को बढ़ाकर 74 प्रतिशत कर दिया है.

वित्तीय बाज़ारों की नियामक संस्था सेबी ने भी उपरोक्त प्रयासों के अनुरूप कदम उठाए हैं. समय सीमाओं को अस्थाई रूप से आगे खिसकाने के अलावा सेबी ने शीघ्रता से पूंजी जुटाने की प्रक्रिया को भी आसान किया है. महामारी से पहले, उन कंपनियों को ‘फास्ट-ट्रैक मोड’ में पूंजी जुटाने की अनुमति नहीं थी जिनका कोई कानूनी मामला सेबी के पास लंबित हो. लेकिन 12 अप्रैल को किए गए नियम परिवर्तन के ज़रिए इस पाबंदी को हटा लिया गया, जिसके कारण रिलायंस इंडस्ट्रीज़ 50,000 करोड़ रुपए से अधिक की पूंजी जुटा सकी. भारत जैसे देश के लिए ये एक सुखद बदलाव था, जहां कि कानूनी मामले दशकों तक लटके पड़े रहते हैं.

यह सरकार विनिवेश और निजी सेक्टर की भागीदारी बढ़ाने को लेकर प्रतिबद्ध दिखती है. भले ही अभी उपक्रमों की वास्तविक बिक्री नहीं हुई हो लेकिन एलआईसी के आईपीओ के लिए सलाहकार की नियुक्ति, प्राइवेट ट्रेनों की शुरुआत, क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों के विलय की योजना और 23 सार्वजनिक उपक्रमों के विनिवेश का फैसला आदि सही दिशा में उठाए गए कदम हैं.


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राज्य भी पीछे नहीं

1991 के सुधारों के विपरीत उदारीकरण के इस दौर में राज्य सरकारें भी सक्रिय भागीदारी कर रही हैं. राज्य सरकारों ने किसानों को पाबंदियों से मुक्त करने, उद्योगों को श्रम कानूनों के जाल से आज़ाद कराने और ज़मीन बेचने की प्रक्रिया को पहले से आसान बनाने के लिए कानूनों में संशोधन किए हैं.

इसकी शुरुआत मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश ने अपने कृषि विपणन कानूनों में बदलाव से की, जिससे किसानों को कुछ उत्पादों को विनियमित बाज़ार व्यवस्था से बाहर बेचने की अनुमति मिल गई. जल्दी ही अन्य कई राज्यों ने भी ऐसा ही किया.

इसी तरह, कई राज्यों ने अधिक लचीले श्रम बाजार के लिए पहल करते हुए उद्योगों को विभिन्न श्रम कानूनों के अनुपालन से छूट दे दी है. भूमि सुधारों के क्षेत्र में पहल की शुरुआत कर्नाटक ने की है. उसने किसानों को उन सख्त पाबंदियों से मुक्त कर दिया है जोकि उन्हें अपनी ज़मीन को लाभप्रद मूल्य पर बेचने से रोकती थी.

आगे की बात करें, तो केंद्र और राज्यों के बीच सहयोग बढ़ने से अर्थव्यवस्था का भला हो सकेगा. अभी कुछ राज्य कृषि बाज़ारों संबंधी केंद्र के सुधारों को संघवाद के सिद्धांतों का उल्लंघन मान रहे हैं. इसी तरह, केंद्र सरकार को चिंता है कि राज्य सरकारों का श्रम कानूनों को निलंबित करने का कदम भारत के अंतरराष्ट्रीय दायित्वों के आड़े आ सकता है. निवेश के माहौल में अधिक स्थायित्व के लिए इन मतभेदों का समाधान किए जाने की ज़रूरत होगी.

(इला पटनायक नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी में प्रोफेसर हैं और शुभो रॉय शिकागो विश्वविद्यालय में रिसर्चर हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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