चीन के साथ सख़्त रवैया अपनाने की मांग बढ़ती जा रही है और ऐसा लगता है कि भारत की नीति भी, क्वाड्रिलेटरल सिक्योरिटी डायलॉग या क्वॉड जैसे मंचों के ज़रिए, ज़्यादा सार्थक साझेदारियां करने की तरफ जा रही है. टोक्यो में हुई ताज़ा बैठक चीन से जुड़ी चिंताओं की परिचायक है. ये बैठक विलंबित थी और इसका स्वागत होना चाहिए. लेकिन, कुछ सवाल अभी भी बाक़ी हैं.
भारत अपनी विदेश नीति बदल सकता है, लेकिन अगर इसकी मौलिक धारणाएं नहीं बदलेंगी, तो हम वही ग़लतियां करते रहेंगे. इनमें एक धारणा ये है कि बातचीत से सभी मतभेद दूर किए जा सकते हैं और किसी के लिए भी लड़ाई एक विवेकहीन विकल्प है. यही वजह है कि भारत के नीति निर्धारकों को ख़ुद से ये सवाल पूछने चाहिए, भारत की चीन नीति इतनी नाकाम क्यों रही है? डोकलम मुक़ाबले के बाद, अनौपचारिक शिखर वार्ताओं ने कुछ भी क्यों नहीं सुलझाया?
ये कोई ग़लतफहमी नहीं है
चीन के लगातार भारत विरोध को लेकर, बहुत सी चेतावनियां मिल चुकी हैं. डोकलम मुक़ाबला, न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप में भारत के दाख़िले का चीन से निरंतर विरोध, और मसूद अज़हर पर पड़ोसी का रुख़, कुछ प्रमुख चेतावनियां हैं और भी मिसाले हैं. लेकिन टकराव के इन तमाम बिंदुओं पर भारत की प्रतिक्रिया, इस मान्यता पर आधारित थी कि वो सब ग़लतफहमियां थीं, जिन्हें बातचीत और अनौपचारिक शिखर सम्मेलनों से दूर किया जा सकता था. भारतीय अफरशाही में ग़लतफहमी का ये विचार इतना अंदर तक बैठा हुआ है कि किसी को हैरत नहीं होनी चाहिए कि मौजूदा टकराव के बाद बातचीत के ज़रिए रिश्तों को संवारने की एक और कोशिश की जाए, जिसका आख़िर में फेल होना लाज़िमी है.
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अगर इन मान्यताओं को छोड़ा नहीं गया, तो ख़तरा ये है कि भारत पहले वाली उन्हीं त्रुटिपूर्ण नीतियों पर लौट आएगा. अलग ढंग से कहें, तो चीन पर नाकामी का मूल्यांकन करने के लिए, केवल नीतियों की जांच करना काफी नहीं है. इसके लिए ये भी ज़रूरी है कि इन नीतियों के पीछे की बुनियादी मान्यताओं पर भी सवाल खड़े किए जाएं.
हालांकि, भारतीय सामरिक नीति में, बहुत सी संदेहास्पद बुनियादी मान्यताएं हैं, जिनकी जांच की जानी चाहिए, लेकिन दो विशेष रूप से अहम हैं. पहली ये मान्यता है, कि सभी असहमतियां ग़लतफहमियों और ग़लत धारणाओं का नतीजा हैं, जिन्हें बातचीत से सुलझाया जा सकता है. दूसरे शब्दों में, देशों के बीच में हितों के कोई टकराव ऐसे नहीं होते, जिन्हें सुलझाया न जा सके. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी जिंपिंग के बीच हुईं अनौपचारिक शिखर वार्ताएं, इसी मान्यता का नतीजा थीं.
इस मान्यता के साथ समस्या ये है, कि दो प्रतिस्पर्धी राष्ट्रों के बीच, कुछ बुनियादी हित हमेशा बेमेल होते हैं, जिनपर बातचीत से कुछ नहीं हो सकता. मसलन, एक बढ़ता हुआ और मज़बूत भारत, चीन के हित में नहीं है. ऐसा कोई तरीक़ा नहीं जिससे भारत चीन को समझा सके कि ऐसा नहीं है. इस प्रकार चीन भारत को लगातार कमज़ोर करता रहेगा और इसे दक्षिण एशिया और अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर संतुलित करने की कोशिश करता रहेगा. ये किसी ग़लतफहमी का नतीजा नहीं है, और इस मतभेद पर बातचीत नहीं हो सकती.
उसी तरह चीन भी भारत से जवाबी संतुलन की अपेक्षा करेगा और अगर भारत कहे कि वो ऐसा नहीं कर रहा, तो चीन यक़ीन नहीं करेगा. इसलिए नई दिल्ली की बीजिंग को ये समझाने की कोशिश कि वो चीन के खिलाफ संतुलन नहीं कर रहा है, फेल होनी लाज़िमी है. यही वजह है कि अनौपचारिक शिखर सम्मेलन और संतुलन प्रयासों को धीमा करने की भारत की कोशिश से- जैसे ऑस्ट्रेलिया को शामिल करने के लिए, मालाबार नौसैनिक अभ्यास का विस्तार न करना या बार-बार दोहराना कि क्वॉड के निशाने पर चीन नहीं है- चीन आश्वस्त होने वाला नहीं है.
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एक विकल्प पर ग़ौर कीजिए: चीन का व्यवहार सामान्य है और इसकी अपेक्षा की जानी चाहिए थी, लद्दाख़ में आज और पहले 1962 में भी. देश एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा करते हैं, एक दूसरे की चिंता करते हैं. और संस्कृति, विचारधारा व इतिहास ऐसी प्रवृत्तियों को मुश्किल से ही सुधार पाते हैं. इन चिंताओं को हमेशा ही सुलझाया नहीं जा सकता, क्योंकि ये हित कभी कभी बुनियादी रूप से बेमेल होते हैं. दो ताक़तवर पड़ोसी मुल्क होने के नाते, भारत व चीन स्वाभाविक विरोधी थे. चीन के नज़रिए से, 1962 में भारत को थोड़ा नीचा दिखाने में उसे कोई ज़्यादा हर्ज नहीं था, क्योंकि उनका रिश्ता वैसे भी टकरावपूर्ण रहने वाला था. इसके अलावा बीजिंग ने मान लिया होगा, कि नई दिल्ली ने भी उसे इसी नज़रिए से देखा होगा. साफतौर से, वो जवाहरलाल नेहरू के दिए गए आश्वासनों से आश्वस्त नहीं था, जैसे कि वो तभी से मोदी सरकार समेत, भारत की सभी सरकारों से आश्वस्त नहीं रहा है.
आज जो हम देख रहे हैं, वो 1962 के बावजूद, एक पुनरावृत्ति है. शक्ति के भारी अंतर को देखते हुए, अपेक्षा की जानी चाहिए कि चीन, ताक़त के इस्तेमाल से अपना प्रभाव फैलाएगा. और वो यही कर भी रहा है, भले ही ख़राब तरीक़े से सही. लेकिन भारत के व्यवहार को समझाना मुश्किल है.
सैन्य कार्रवाई के प्रति निष्क्रिय दृष्टिकोण
भारत की नीति में दूसरी ग़लत बुनियादी मान्यता ये है, कि जानबूझकर सैन्य बल का उपयोग, कोई अच्छी चीज़ नहीं है, और सभ्य व ‘ज़िम्मेदार’ देश ऐसा नहीं करते. गोवा और सियाचिन के अपवाद के साथ, भारत ने कभी सैन्य बल के प्रयोग में पहल नहीं की है. सियाचिन भी शायद इस श्रेणी में नहीं आता, क्योंकि वो एक रक्षात्मक और रोकने के लिए की गई कार्रवाई थी, इस डर से कि पाकिस्तान ग्लेशियर को अपने क़ब्ज़े में ले लेगा.
लेकिन चूंकि भारतीय नीति इस मान्यता से चलती है, इसलिए नई दिल्ली को लगता है कि दूसरे भी इसी पर चलेंगे. इसलिए भारत को बार-बार हैरत होती है, जब दूसरे हिंसा का सहारा लेते हैं, चाहे वो पाकिस्तान हो, चीन हो, या श्रीलंका के तमिल टाइगर्स हों. 1962 के युद्ध से पहले नेहरू सरकार ने, ख़ुद प्रधानमंत्री के प्रोत्साहन से, ये मान लिया कि भारत और चीन की सैन्य चालें, एक तरह की शतरंज थीं, और चीन भारत के साथ युद्ध में नहीं जाएगा. हमने फिर से लद्दाख़ में भी यही देखा, जब तिब्बत में एक सैन्य अभ्यास के लिए, चीनी सैनिकों के जमावड़े की ख़बरों के बाद भी, भारत ने जवाबी तैनाती नहीं की. एलएसी पर चीनी घुसपैठ की घटनाओं की गंभीरता को भी, ख़ारिज कर दिया गया. हालांकि अगस्त में भारत ने कुछ साहसिक सैन्य क़दम उठाते हुए, पैंगोंग त्सो के दक्षिणी किनारे की, सामरिक महत्व की चोटियों पर क़ब्ज़ा किया, लेकिन फिर भी इसमें संदेह है, कि असंतुष्ट पक्ष होने के बावजूद, नई दिल्ली की ओर से लड़ाई की पहल होगी. हम बस यही उम्मीद कर सकते हैं, कि ये भी उसी अपेक्षा में तब्दील न हो जाए, कि चीन भी टकराव की पहल नहीं करेगा- ये एक ख़तरनाक ग़लती होगी.
अपनी ग़लतियों के मूल्यांकन से इनकार करना, भारतीय सामरिक नीति की एक दुर्भाग्यपूर्ण परंपरा रही है. 1962 में भारत की चीन नीति के बुरे नतीजों के बाद भी, कोई सवाल नहीं उठे कि भारत ने इतनी भारी ग़लती कैसे की. 1962 के युद्ध को भारत की ग़लतियों- भारत की फॉरवर्ड नीति- या चीन की आक्रामकता और विश्वासघात के नतीजे के तौर पर देखा गया. इन दोनों व्याख्याओं का फायदा ये है, कि इसमें भारतीय नीति के पीछे की बुनियादी मान्यताओं पर, कोई सवाल खड़े करने की ज़रूरत नहीं थी. भारत ने बस हिमालय की सीमा की रक्षा के लिए, ज़्यादा बल जुटा लिए, और उन्हीं बुनियादी मान्यताओं पर चलता रहा. दुर्भाग्य से, आधी सदी से अधिक में कोई ख़ास बदलाव नहीं आया है.
(लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्धालय (जेएनयू), नई दिल्ली में, अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के प्रोफेसर हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.)
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