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Sunday, 22 December, 2024
होममत-विमतमुझे क्यों ऐसा लगता है कि राजीव गांधी पर छद्म नाम से लेख सोनिया या प्रियंका ने नहीं, राहुल ने लिखा होगा

मुझे क्यों ऐसा लगता है कि राजीव गांधी पर छद्म नाम से लेख सोनिया या प्रियंका ने नहीं, राहुल ने लिखा होगा

जैसे जवाहरलाल नेहरू 1930 के दशक में और नरसिंह राव 1970 के दशक में कॉंग्रेस के हालात से असंतुष्ट थे उसी तरह राहुल गांधी आज नाखुश हैं.

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बूझो तो जाने? राजनीतिक और साहित्यिक हलक़ों में इन दिनों यही सवाल गूंज रहा है कि ‘द वीक’ पत्रिका में राजीव गांधी पर जो मर्मस्पर्शी श्रद्धांजलि प्रकाशित की गई है उसे किसने लिखा? इसके लेखक का छद्म नाम दिया गया है— ‘अ किंडर्ड स्पिरिट’ (एक आत्मीय). पत्रिका ने पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की 30वीं पुण्यतिथि पर एक विशेष फीचर प्रकाशित किया है और यह लेख इसी का एक हिस्सा है.

क्या इसे सोनिया गांधी ने लिखा है? या प्रियंका गांधी वाड्रा ने? तमिलनाडु के विरुदनगर से कांग्रेसी सांसद मणिक्कम टैगोर ने, जिन्हें राहुल गांधी की करीबी मंडली में शामिल माना जाता है, 21 मई 2021 को एक ट्वीट में यह सवाल उठाया, ‘क्या आप अंदाजा लगा सकते हैं कि इसका लेखक कौन है?’ जिन लोगों को संदेह है कि यह लेख नेहरू-गांधी परिवार ने लिखा होगा, वे इस लेख के ‘औपचारिक किस्म के स्वर’ की ओर इशारा करते हैं. लेकिन इसके जवाब में यह कहा जा रहा है कि ऐसा स्वर जानबूझकर रखा गया है क्योंकि यह छद्म नाम से लिखा गया है.


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सोनिया या प्रियंका क्यों नहीं?

‘द वीक’ पत्रिका, गांधी परिवार, और कांग्रेस ने इस पर सोची-समझी चुप्पी साध रखी है. कोई कह रहा है कि इसके लेखक डॉक्टर मनमोहन सिंह हो सकते हैं, या पार्टी के वरिष्ठ नेताओं पी. चिदंबरम, ए.के. एंटनी, या जयराम रमेश में से कोई हो सकते हैं. लेकिन गहराई से जांचने पर इसकी संभावना बेहद कम लगती है, क्योंकि ये काबिल नेता अपना नाम क्यों नहीं देंगे जबकि राजीव के साथ कम कर चुके नेता, टेक्नोक्रैट, और मित्र रहे मोंटेक सिंह अहलूवालिया, भूपेश बघेल, मणि शंकर अय्यर, सैम पित्रोदा, सलमान खुर्शीद, सुनीता कोहली, वजाहत हबीबुल्लाह आदि के लेख भी पत्रिका में छपे हैं.

जो लोग सोनिया गांधी के लेखन से परिचित हैं वे उनके नाम को खारिज करते हैं. ‘राजीव’ (पेंगुइन 1992) किताब की लेखिका और संपादक के रूप में सोनिया ने प्रथम व्यक्ति के लेख में पूर्व प्रधानमंत्री के जीवन के कई पहलुओं को यादों और संस्मरणों से उजागर किया है. इस किताब में चित्रों और परिचयों के मेल से राजीव के निजी इतिहास को प्रस्तुत किया गया है. इसमें सोनिया की लेखन शैली घटनाओं में उनकी भागीदारी या प्रत्यक्षदर्शी के रूप में उनकी मौजूदगी से बनी है. उनकी लेखनी उन कई किताबों की संपादक के रूप में या उनके लिए लिखी गई प्रस्तावना के रूप में उपलब्ध है. उदाहरण के लिए, ‘टू अलोन, टू टुगेदर : लेटर्स बिटवीन इंदिरा गांधी ऐंड जवाहरलाल नेहरू’ (हॉडर ऐंड स्टाउटन लि.), और ‘सेलेक्टेड सेइंग्स (इंदिरा गांधी)’ (पेंगुइन 2009).

इसी तरह, प्रियंका गांधी भी अपनी मित्र अंजलि तथा जैसाल सिंह के साथ कॉफीटेबल बुक ‘रणथंभौर : द टाइगर्स रेल्म’ (सुजान आर्ट प्रा.लि., 2011) की सह-लेखिका के तौर पर अपनी लेखन शैली का परिचय देती हैं.

… लेकिन राहुल

एक-एक करके खारिज करने की प्रक्रिया के तहत लगता है कि राहुल गांधी ही ‘द वीक’ में राजीव गांधी पर प्रकाशित उस लेख के लेखक हैं. लेख की शुरुआत कोरोना महामारी के कारण आई आपदा से होती है और इसके लेखक ‘अ किंडर्ड स्पिरिट’ मलहम लगाए जाने की ख़्वाहिश जाहिर करते हैं— ‘जनता को सच्चे मन से कोई हाथ थामने वाला चाहिए, इस संकट से उबरने के लिए इसके दौरान और इसके बाद भी अटूट संकल्प और अथक कड़ी मेहनत की जरूरत है. यह पीड़ादायी समय मुझे भारत के सबसे करुणाशील प्रधानमंत्रियों में से एक, राजीव गांधी की याद दिलाता है.’

इस श्रद्धांजलि का स्वर तब राजनीतिक हो जाता है जब लेखक कहते हैं कि ‘आज देश जबकि हर मोर्चे पर नाकाम दिख रहे एक संवेदनहीन नेतृत्व में अभूतपूर्व राष्ट्रीय स्वास्थ्य संकट से जूझ रहा है, तब एक ऐसे उत्साही नेता के जीवन को याद करना ही चाहिए जिसने न केवल सपने देखने का साहस किया बल्कि बिना शोरशराबे के और स्थायी प्रभाव डालने वाला व्यापक परिवर्तन लाकर दिखाया.’

विज्ञान और टेक्नोलॉजी के प्रति राजीव गांधी के लगाव को इस लेख में ‘आधुनिकीकरण’, ‘समानता और सशक्तीकरण’ के औज़ार के रूप में टेक्नोलॉजी तथा सूचना प्रौद्योगिकी जैसे शब्दों के जरिए प्रमुखता से उभारा गया है. ‘आलोचक उन्हें और उनके साथी सुधारकों को भारत की हकीकत से कटे ‘कंप्यूटर ब्वॉय’ कहकर उनका मखौल उड़ाते रहे लेकिन उन्होंने भारत को अग्रणी देशों की जमात में ला खड़ा किया.’

कांग्रेस ने 1991 के जिन आर्थिक सुधारों को निरंतरता के साथ परिवर्तन के मंत्र के रूप में प्रचारित किया था उनका जिक्र भी ‘द वीक’ के इस लेख में किया गया है— ‘आर्थिक सुधारों ने भारतीय अर्थव्यवस्था में जबरदस्त जान फूंक दी. उनके मार्गदर्शन में तैयार किए गए 1985 के बजट ने सोच की पुरानी जकड़न को तोड़ दिया. बजट ने अर्थव्यवस्था को नियंत्रण मुक्त करने की शुरुआत करके आधुनिकीकरण की साहसी प्रक्रिया की भी शुरुआत कर दी. यह प्रक्रिया उलटी नहीं जा सकती थी और इसने 1991 के लीक तोड़ने वाले सुधारों का रास्ता खोल दिया. आश्चर्य नहीं कि भारत की जीडीपी का आंकड़ा दहाई अंकों में पहुंच गया और अर्थव्यवस्था में उछाल आ गई.’

भारत की अखंडता के लिए राजीव गांधी ने जो ‘समझौते’ किए उनका भी लेख में जिक्र है— ‘उदाहरण के लिए पंजाब समझौता, असम समझौता, मिजोरम समझौता, दार्जिलिंग समझौता का नाम गिनाया जा सकता है. इन समझौतों को लागू करने में दिक्कतें आईं, कभी गंभीर दिक्कतें भी आईं, लेकिन देश को टकराव से सुलह की ओर मोड़ दिया गया.’

लेखक के मुताबिक, ‘राजनीतिक व्यवस्था पर पैनी नज़र रखने वाले’ पूर्व प्रधानमंत्री ने ‘सत्ता के दलालों’ से छुटकारा पाने की कोशिश की, जो लेखक के मुताबिक, ‘खुद को जनता, और दिल्ली तथा राज्यों की राजधानियों में बैठे निर्वाचित प्रतिनिधियों के बीच मध्यस्थ बना लेते हैं.’ लेखक ‘अ किंडर्ड स्पिरिट’ ने लिखा है— ‘इस एहसास से उन्होंने जनता को सचमुच में ताकत देने के लिए उसे ‘अधिकतम लोकतन्त्र’ और ‘अधिकतम अधिकार’ देने का रास्ता अपनाया.’

लेखक ने यह भी याद दिलाया है की राजीव ने किस तरह अपनी पार्टी के सुझाव का खंडन करके लोकसभा में तब विपक्ष के नेता अटल बिहारी वाजपेयी को संयुक्त राष्ट्र में भारत का प्रतिनिधि बनाकर भेजा था. लेखक ने लिखा है— ‘राजनीतिक पूर्वाग्रह, या आक्षेपों अथवा कटाक्षों से वे परेशान नहीं होते थे, क्योंकि वे देश की सरकार में बुनियादी परिवर्तन लाने को प्रतिबद्ध थे.’ राजीव के लिए ‘राजनीतिक विरोधी उनके दुश्मन नहीं थे, बल्कि राजनीतिक तंत्र में अपनी जगह बनाने की कोशिश कर रहे साथी थे.’

लेख में राजनीति के और भी रंग उभरते हैं. लेखक ने संसद में राजीव के इस बयान का जिक्र किया है कि ‘केवल धर्मनिरपेक्ष भारत ही बचा रहेगा’, और उनके इस दावे पर ज़ोर भी दिया है कि ‘जो भारत धर्मनिरपेक्ष नहीं है वह शायद बचा रहने के काबिल भी नहीं है.’ समापन करते हुए लेखक ने लिखा है— ‘वे जो कुछ कर गए उनकी स्मृति का सबसे बड़ा सम्मान यह होगा कि इस देश की करुणा की, सदभाव और सुलह की, बौद्धिक स्वतंत्रता और तकनीकी कौशल की, युवाओं पर भरोसा करने और उन्हें जिम्मेदारियां सौंपने की, और अंततः आर्थिक समृद्धि के साथ समता के सिद्धान्त के आधार पर देश की अर्थव्यवस्था में जान फूंकने की मूल संस्कृति को बहाल किया जाए. यही राजीव गांधी के जीवन की सार्थकता का को सच्चे तौर पर सम्मान होगा.’


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लेखनी का कैसे इस्तेमाल करते थे नेहरू और राव

अगर वह लेख राहुल का है, तो कहा जा सकता है कि कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष अपने महान पड़नाना जवाहर लाल नेहरू और पूर्व प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंह राव के नक्शेकदम पर चल रहे हैं. नेहरू और राव अक्सर छद्म नाम से अपने लेख प्रमुख प्रकाशनों में लिखा करते थे.

नेहरू के जीवनीकार बेंजामिन जकरिया के मुताबिक, 1936 में नेहरू ने कॉंग्रेस की अंदरूनी राजनीति से तंग आकर अपने विचार प्रसारित करने के लिए एक अखबार निकालने पर भी विचार किया था. जकरिया ने लिखा है, ‘कांग्रेस पर हावी प्रतिक्रियावादी प्रवृत्तियों में खुद उलझने की आशंका से, जिसमें वे अपना कोई असर नहीं डाल पा रहे थे, जवाहरलाल ने पत्रकारिता की शरण ली. 1936 में वे अपना एक अखबार शुरू करने के बारे में सोचने लगे, और 9 सितंबर 1938 को ‘नेशनल हेराल्ड’ का पहला अंक लखनऊ से आ गया.’ जकरिया का दावा है कि नेहरू ने अपना नाम दिए बिना कुछ संपादकीय लिखे, जो व्यापक पाठक वर्ग के लिए थे, जिनमें उन्होंने उन कुछ सिद्धांतों का जिक्र किया जिन्हें वे सार्वजनिक तौर पर खुल कर नहीं रख पा रहे थे.

इसी तरह राव ने कांग्रेस के अंदर अपनी असहमति को जाहिर करने के लिए अपने पत्रकार मित्र निखिल चक्रवर्ती की मदद से ‘मेनस्ट्रीम’ पत्रिका में अपने लेखों की शृंखला ‘एक कांग्रेसी’ के छद्म नाम से लिखी.

जैसे नेहरू 1930 के दशक में और राव 1970 के दशक में कांग्रेस के हालात से असंतुष्ट थे उसी तरह राहुल गांधी भी आज उससे नाखुश हैं. अगर राहुल ने सचमुच ‘द वीक’ का वह लेख लिखा है, तो उन्हें अपने विचारों को, ‘विजन’ को प्रस्तुत करने के लिए आगे भी समय-समय पर लिखते रहना चाहिए.

रशीद किदवई ओआरएफ के विजिटिंग फेलो, लेखक और पत्रकार हैं. यहां व्यक्त किए गए विचार उनके अपने हैं. विचार व्यक्तिगत हैं.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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