scorecardresearch
Monday, 16 December, 2024
होममत-विमतकांशीराम क्यों कहते थे कि भारत को मज़बूत नहीं, मजूबर सरकार चाहिए!

कांशीराम क्यों कहते थे कि भारत को मज़बूत नहीं, मजूबर सरकार चाहिए!

जब-जब केंद्र में पूर्ण बहुमत की सरकारे रहीं, ज्यादातर फैसले पूंजीपतियों और सामंती शक्तियों के हक़ में किए गए. ऐसे शासन में क्षेत्रीय आकांक्षाओं, लोक-कल्याण और जनहित के कार्यों को नज़रंदाज़ किया गया.

Text Size:

भारत विश्व में सबसे अधिक विविधताओं वाले देशों में से है. यह कई स्तरों पर है. वर्ण, जाति, भाषा, क्षेत्र, संस्कृति, रहन-सहन, खान-पान, पर्यावरण इत्यादि! यही कारण है कि भारत इतिहास में कभी एक ‘राष्ट्र’ के रूप में विकसित नहीं हुआ, हालांकि मौर्य काल से ही इसके प्रयास होते रहे. इस दिशा में 26 जनवरी 1950 को संविधान का लागू होना एक युगांतरकारी घटना है, जिसमें विभाजित भारत को एक राष्ट्र के रूप में विकसित करने की वैधानिक कोशिश की गई.

इसके लिए नागरिकों को कई अधिकार दिए गए. संविधान प्रदत्त सबसे महत्वपूर्ण अधिकार है – वोट देने का अधिकार, जिससे प्रजा नागरिक के रूप में तब्दील हुई. मंशा यह थी कि अब शासक रानी के पेट से पैदा नहीं होगा, बल्कि जनता द्वारा चुना जाएगा और सरकार जनता और संविधान के प्रति जवाबदेह होगी!


यह भी पढे़ंः भीमा कोरेगांव: कब्र फोड़कर निकल आई एक गौरवगाथा


भारतीय लोकतंत्र के भविष्य को लेकर आंबेडकर का नजरिया

भावी सरकारों के चरित्र पर शंका व्यक्त करते हुए डॉ. आंबेडकर ने 25 नवम्बर 1949 को संविधान सभा में कहा था, ‘संविधान कितना भी अच्छा क्यों न हो यदि उसको क्रियान्वित करने वाले ख़राब लोग हों तो वह संविधान ख़राब ही होगा. किसी संविधान का अच्छी तरह से काम करना सिर्फ उसकी प्रकृति पर निर्भर नहीं करता. संविधान को लागू करने वाले लोगों की इसमें भूमिका महत्वपूर्ण है.’

भारतीय समाज की घोर सामाजिक-आर्थिक विषमता को रेखांकित करते हुए डॉ. आंबेडकर ने कहा, ’26, जनवरी 1950 को हम लोग विसंगति से भरे हुए जीवन में प्रवेश करने वाले हैं. राजनीतिक दृष्टि से लोगों के बीच समता रहेगी, पर सामाजिक और आर्थिक जीवन में, सामाजिक और आर्थिक रचना के कारण, विषमता रहेगी….ऐसी विसंगति भरा जीवन हम लोग कब तक जियेंगे? अपने सामाजिक व आर्थिक जीवन में हम कब तक समता को नकारेंगे? यदि दीर्घकाल तक हम उसे नकारते रहे, तो अपने राजनीतिक लोकतंत्र को खतरे में डाल लेंगे. इस विसंगति को यथाशीघ्र दूर करना चाहिए, अन्यथा विषमता के शिकार लोग उसे ध्वस्त कर देंगे.’

आजादी के सात दशक बाद यह प्रश्न लाजिमी है कि क्या संविधान की प्रस्तावना के लक्ष्यों (स्वतंत्रता, समता, बंधुता, न्याय) को हासिल किया जा सका है. यदि नहीं तो क्यों?

निरंकुश सत्ता के लोककल्याणकारी होने की संभावना कम

अंग्रेजी में एक कहावत है, ‘Absolute power corrupts absolutely (निरंकुश सत्ता पूरी तरह से भ्रष्ट बनाती है ).’ लेकिन मुझे लगता है कि यह पर्याप्त नहीं है. इसे यूं कहा जाना चाहिए कि ‘निरंकुश सत्ता न सिर्फ सत्ताधारियों को पूरी तरह से भ्रष्ट बनाती है, बल्कि यह जनता का भी अधिकतम शोषण करती है (Absolute power not only corrupts absolutely, but it also suppress the masses absolutely).’ 70 के दशक में आपातकाल का लागू होना और वर्तमान में अघोषित आपातकाल इसके उदाहरण हैं.

भारत में आजादी के बाद एक लम्बे अरसे तक पूर्ण बहुमत की सरकार रही. बीच की मिली-जुली सरकारों के दौर के बाद देश में एक बार फिर पूर्ण बहुमत की सरकार है. यानी देश में ज्यादातर समय पूर्ण बहुमत वाली सरकारे रहीं. यदि पूर्ण बहुमत वाली सरकार से बहु-विविधता वाले भारत की समस्याओं का समाधान होना संभव होता तो आज भारत की ज्यादातर समस्याओं का हल हो चुका होता और सैकड़ों राजनीतिक दलों का अस्तित्व भी न होता.

देश में इतने सारे दलों का होना ये साबित करता है कि एक या दो दल देश की तमाम इच्छाओं और आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करने में सक्षम नहीं हैं.

इतिहास से अनुभव दर्शाता है कि जब-जब केंद्र में पूर्ण बहुमत की सरकारे रहीं, ज्यादातर फैसले पूंजीपतियों और सामंती शक्तियों के हक़ में किए गए. ऐसे शासन में क्षेत्रीय आकांक्षाओं, लोक-कल्याण और जन-हित के कार्यों को नज़रंदाज़ किया गया है, दबाया गया है. राजनीतिक दलों और पूंजीपतियों के गठजोड़ का खुलासा करते हुए बीएसपी के संस्थापक कांशीराम ने कहा था, ‘मनुवादी राजनीतिक दल अपनी-अपनी पार्टियों के लिए पूंजीपतियों से पैसा लेते हैं. नई सरकार बनने पर वे पूंजीपतियों को मनमाफिक जनता को लूटने की छूट देते हैं.’


यह भी पढे़ंः उत्तर भारत में बन रही सामाजिक एकता से पूरा होगा कांशीराम का सपना


कांशीराम का दर्शन और मजबूत या मजबूर सरकार

कांशीराम ने मज़बूत नहीं, मजबूर सरकार का नारा देते हुए कहा था, ‘मज़बूत सरकारे मनमाने तरीके से संविधान में संशोधन करती हैं, जो पूंजीपतियों और मनुवादी समाजों के हित में होता है. इनका ध्यान कभी भी बहुजन समाज की ओर नहीं जाता है. उन्हें मालूम होता है कि हमें बहुजन समाज से रूबरू (वोट के लिए) पांच साल बाद होना है, इसलिए वे तब जाकर चुनावी घोषणाएं करती हैं. इसलिए बहुजन समाज का त्वरित विकास नहीं होता.’

वर्तमान भाजपा सरकार द्वारा 10 प्रतिशत गैर-संवैधानिक सवर्ण आरक्षण, पूंजीपतियों को दिए गए लाखों-करोड़ों रुपए की छूट (रेवेन्यू फॉरगोन) और एनपीए की वसूली में ढिलाई इसके बेहतरीन उदहारण हैं कि पूर्ण बहुमत की सरकारे कैसे काम करती हैं. जनता के राजनीतिक प्रशिक्षण के लिए कांशीराम ने बार-बार चुनाव की जरूरत पर भी बल दिया, जिससे कि उन्हें चुनाव-लीला के सभी तरीकों, गुणों/अवगुणों का ज्ञान हो सके. उनका मानना था कि बार-बार चुनाव होने और अल्पमत की सरकार बनने से वे जन सरोकार के मुद्दों पर ध्यान देने के लिए विवश होंगी, पूंजीपतियों के हित में कठोर निर्णय नहीं ले सकेंगी और जनता को हमेशा नए अवसर और विकल्प मिलते रहेंगे.

जनहित के बड़े काम मिलीजुली सरकारों में हुए

यहां मज़बूर और गठबंधन की सरकार द्वारा लिए गए कुछ अहम फैसलों को रेखांकित करना प्रासंगिक होगा – पिछड़ी जातियों के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण अर्थात मंडल कमीशन का लागू होना, सरकारी उच्च शिक्षा संस्थानों में ओबीसी आरक्षण लागू करना, डॉ. आंबेडकर को भारत-रत्न दिया जाना, ये सब कमजोर मानी गई सरकारों ने किया. अगर आप चाहें तो इसमें सूचना का अधिकार कानून और मनरेगा को भी जोड़ सकते हैं जो यूपीए-1 की अल्पमत सरकार ने किया.

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भले ही लगातार महागठबंधन को ‘महा-मिलावट’ कहकर आवाम को डराने का प्रयास कर रहे हैं (हालांकि उनके खुद का गठबंधन इस विशेषण से अलग नहीं है). लेकिन देश को चाहिए एक मिली जुली, समावेशी सरकार. वैसी सरकार जो निरंकुश तानाशाह न हो और जो जन-भावनाओं से डरे!


यह भी पढे़ंः गांधी, लोहिया और कांशीराम: कितने पास-कितने दूर


बहरहाल! सरकारे चाहे जितनी निरंकुश हों, उन पर अंकुश लगाने का प्रावधान संविधान की प्रस्तावना में ही कर दिया गया है. हम भारत के लोग! जो किसी भी निरंकुशता पर अंकुश लगाने में सक्षम हैं. हर पांच साल पर ऐसा मौका आ जाता है. रोहित वेमुला और ऊना कांड पर उमड़ा जनाक्रोश और 2 अप्रैल, 2018 को एससी-एसटी एक्ट पर और 5 मार्च, 2019 को रोस्टर मामले में हुआ भारत बंद इस बात का प्रमाण है, कि जनता हमेशा पांच साल का इंतजार भी नहीं करती. लोहिया कहते थे, ‘यदि सड़क सुनसान हो जाएंगी तो संसद आवारा हो जाएगी! अब न सड़कें सुनसान होंगी और न संसद आवारा!’

(लेखक दिल्ली यूनिवर्सिटी के हिंदू कॉलेज में इतिहास विभाग के एसोसिएट प्रोफेसर हैं.)

share & View comments