खास तौर से गज़ा वालों और आम तौर पर फिलस्तीनियों के प्रति भारत में इतनी कम सहानुभूति क्यों है? हिज्बुल्लाह चीफ हसन नसरल्लाह के मारे जाने पर शियाओं की बड़ी आबादी वाली कश्मीर घाटी और लखनऊ में छिटपुट विरोध प्रदर्शनों को छोड़ बाकी जगहों पर कोई विरोध क्यों नहीं जाहिर किया गया?
मुस्लिम वोट पर निर्भर रहने वाली काँग्रेस, या समाजवादी पार्टी और तृणमूल काँग्रेस जैसी तमाम दूसरी बड़ी पार्टियों या दूसरों ने विरोध प्रदर्शन करना तो दूर, निंदा करने वाला कोई बयान तक नहीं जारी किया. कुछ वामपंथी बौद्धिक संगठनों ने फिलस्तीनियों के साथ एकता जताने के लिए इस सप्ताह के शुरू में जंतर-मंतर पर एक छोटा-सा प्रदर्शन जरूर किया. लेकिन यह इतना छोटा प्रदर्शन था कि मैं इसे पिक्चर पोस्टकार्ड प्रोटेस्ट भी नहीं कहूंगा.
पहले जिन ‘सेकुलर’ पार्टियों ने उनके पक्ष में आवाज़ उठाया भी वे बहुसंख्यक भारतीयों के इजरायल समर्थक रुख को भांपकर अपने-अपने बिल में घुस गईं. ऐसा लगता है कि भारत में इजरायल के प्रति जो व्यापक समर्थन का मूड दिखता है उसके कारण वे सब कुछ ज्यादा ही सावधान हो गए हैं.
काँग्रेस हमेशा की तरह गोलमोल बात करती दिखी, उसने पहले तो ‘एक्स’ पर एक टिप्पणी की लेकिन उसके बाद दूसरों ने उससे पल्ला झाड़ लिया और कूटनीतिक लहजे में कोई बयान दे दिया. केवल प्रियंका गांधी ने निंदा की. उन्हें वायनाड में चुनाव लड़ना है जहां 40 फीसदी से ज्यादा मतदाता मुसलमान हैं.
हम समझ सकते हैं कि विपक्षी दल क्यों सावधानी बरत रहे हैं. वे सब मुस्लिम वोट तो चाहते हैं लेकिन हिंदू वोटरों को नाराज भी नहीं करना चाहते. इसलिए बड़ा सवाल यह है कि अधिकतर भारतीय लोग इतने उदासीन क्यों हैं? क्या मानवीय त्रासदी अब हम लोगों को दुखी नहीं करती? या, तमाम महाशक्तियों की तरह हमने भी सभी स्थितियों को सियासत के चश्मे से देखना सीख लिया है? क्या बात सिर्फ इतनी-सी है कि हिंदू लोग इसे केवल इजरायल बनाम मुसलमान मसले के रूप में देखते हैं? यह भी कहा जा सकता है कि इसे केवल सांप्रदायिक चश्मे से ही नहीं बल्कि राष्ट्रहित वाले पहलू से भी आंका जा रहा है.
हमास के 7 अक्तूबर वाले हमले की पहली बरसी पर इजरायल और यहूदी समुदाय इस सप्ताह जबकि पवित्र आयोजन कर रहे हैं, इन सवालों पर चिंतन करने का यह अच्छा अवसर है.
इसे भाजपा के उभार से जोड़कर देखना आसान लग सकता है, कि मोदी दशक में हिंदुत्ववाद दुनिया को देखने के हमारे राजनीतिक तथा रणनीतिक नजरिए पर हावी हो गया है और यह हमारी नैतिकता को भी दिशा देने लगा है. और कैंपस में विरोध प्रदर्शन की हिम्मत भला कौन कर सकता है? लेकिन वास्तविकता सरल तो है मगर इतनी आसान भी नहीं है. इसका एहसास मुझे कई सप्ताह तक विचार करने के बाद संयुक्त राष्ट्र महासभा में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ का भाषण सुनकर हुआ. उन्होंने फिलस्तीनियों और कश्मीरियों को एक समान बताते हुए दोनों को आत्म-निर्णय के अधिकार देने की मांग की.
थोड़ी खोजबीन करने पर पता चला कि केवल पाकिस्तान वाले ही नहीं बल्कि उनके दोस्त (मसलन 2019 में महातिर मोहम्मद तथा रिसेप तय्यब एर्दोगन) और इस्लामी देशों का संगठन ‘ओआइसी’ भी फिलस्तीनियों और कश्मीरियों को एक जैसा मानता रहा है. 2016 में पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ ने भी संयुक्त राष्ट्र महासभा में फिलस्तीन और कश्मीर का एक साथ जिक्र किया था और बुरहान वानी को कश्मीरी ‘इंतिफादा’ का हीरो और नेता बताते हुए उसकी तारीफ की थी.
आप संयुक्त राष्ट्र की वेबसाइट पर देख सकते हैं कि यह हमेशा से चलता रहा है. अभी पिछले महीने ही अयातुल्लाह अली खामेनी ने खुद ट्वीट किया कि मुसलमान (रोहिंग्या) म्यांमार में भी उतने ही ‘बदहाल’ हैं जितने फिलस्तीन और कश्मीर में हैं. तब क्या आप यह उम्मीद करते हैं कि भारत के लोग इजरायल द्वारा तबाह किए जा रहे ईरानियों और उनके मुख्तारों के लिए अफसोस करेंगे? हकीकत यह है कि अब तक यह मूर्खता करते रहे थे मगर अब ऐसा नहीं करेंगे. इस पर में बाद में चर्चा करूंगा.
अगर फिलस्तीनियों को भारत के समर्थन की परवाह है तो पहले उन्हें पाकिस्तान, ईरान, उसके मौसमी दोस्तों (तुर्की और मलेशिया), और ‘ओआइसी’ से विनती करें कि वे कश्मीर का नाम लेना बंद करें और खुद अपने आपको कश्मीरियों से न जोड़ें. वरना भारत उनकी परवाह क्यों करे?
फिलिस्तीन और कश्मीर को जोड़ कर इस्लामी जगत की व्यापक सहानुभूति हासिल करने की मूर्खतापूर्ण पाकिस्तानी कोशिश ने भारत में फिलिस्तीन के लिए समर्थन हासिल करने की कोशिशों को नुकसान पहुंचाया. कश्मीर घाटी को छोड़ शेष पूरे भारत में जनमत यही है— ‘कश्मीर मसला क्या है?’ जो भी मसला था उसे 5 अगस्त 2019 को सुलटा दिया गया और अब उसकी पुष्टि वहां के चुनाव में 63.88 प्रतिशत मतदान के साथ भाजपा को शिकस्त देकर कर दी गई है. घाटी में भी पाकिस्तानी नजरिए के लिए समर्थन पाकिस्तान की संपूर्ण राष्ट्रीय शक्ति ‘सीएनपी’ में गिरावट की गति से भी तेजी घट रहा है.
ऊपर हमने कहा है कि इस मामले को हम ‘दुश्मन (मुस्लिम) के दुश्मन (यहूदी) को अपना दोस्त मानने’ की आम नीति के नजरिए से देखने के लालच से बचें. ऐसा हमने इसलिए कहा कि जिसे हम इस्लामी दुनिया कहते हैं उसकी हकीकत भी बदल चुकी है और भारत के साथ उसका समीकरण भी बदल चुका है.
बेशक सोवियत संघ के विघटन के बाद इजरायल शायद भारत में सबसे लोकप्रिय देश है. जरा देखिए कि भारतीय विदेश मंत्रालय की वेबसाइट पर भारत-इजरायल संबंध की स्थिति क्या है. इसके बारे में शुरुआत इस बात से की गई है कि हम दोनों रणनीतिक पार्टनर हैं. इसके बाद भारत के दूसरे बड़े और रणनीतिक पार्टनरों की सूची पर नजर डालिए तो पाएंगे कि इस्लामी तथा अरब देशों में सबसे ताकतवर यूएई, सऊदी अरब, और मिस्र इसमें शामिल हैं. ये सब इजरायल के पड़ोसी हैं और ईरान के सहयोगियों द्वारा इजरायल को निशाना बनाने वाली मिसाइलों को मार गिराते रहे हैं.
इस लेख के अलावा अक्सर ही हम कहते रहे हैं कि राष्ट्रहित अखिल इस्लामवाद पर हमेशा भारी पड़ता रहा है. रणनीतिक दृष्टि से ईरान से, उसके शिया आधार से और मुस्लिम ब्रदरहुड के साथ उसके संबंधों से उन सबको खतरा महसूस होता है. तथाकथित मुस्लिम दुनिया ने फिलिस्तीन को इस्लामी मकसद मानना बंद कर दिया है.
मध्य-पूर्व की रणनीतिक और राजनीतिक तस्वीर यहूदी-मुस्लिम या सुन्नी-शिया समीकरणों की तस्वीर से भी ज्यादा पेचीदा और उलझनभरा है. एक ही तत्व उन्हें आपस में जोड़ता है, वह है— मजहब, नस्लपरस्ती, या तीसरी-दुनियावाद. राष्ट्रवाद राज करता है.
यह शीतयुद्ध के बाद वाले दौर की बात नहीं है. 1981 में, जॉर्डन और सऊदी अरब ने इजरायली विमान को इराक़ के ओसिराक रिएक्टर पर बम गिराने का में मदद दी थी. अरब देश सोवियत समर्थित सद्दाम के इराक़ और उसके बाथवाद से डरते थे. तमाम देश अपने राष्ट्रीय हित के हिसाब से काम करते हैं, न कि किसी और के हित के लिए, चाहे वह वैचारिक हो या धार्मिक या नैतिक.
भारत में हम इस पर बहस इसलिए करते हैं क्योंकि मध्य-पूर्व और इजरायल को लेकर हमारी अपनी नीति शीतयुद्ध वाले समीकरणों के हिसाब से तय हुई थी और हमें बदलने में लंबा समय लगा. अरबों को हम एक मुसीबत, पश्चिम के दलाल और पाकिस्तान के रहनुमा मानते रहे. मैं नहीं जानता कि 2015 में पहली बार मोदी के यूएई दौरे से पहले 34 साल तक कोई भारतीय प्रधानमंत्री वहां नहीं गया तो इसकी क्या वजह रही होगी.
इजरायल के गठन से पहले जो अनिश्चितता रही उसके बारे में पढ़ने पर पता चलेगा कि यह घोर पाखंड और बड़ी मजबूरियों वाली कहानी है. भारत ने 1947 में ‘फिलिस्तीन के बंटवारे’ के खिलाफ वोट दिया था, और अल्बर्ट आइंस्टीन के चार पन्नों वाले पत्र के जवाब में नेहरू ने इसे यह कहकर उचित ठहराया था कि “दुर्भाग्य से नेताओं को मूलतः स्वार्थी नीतियां अपनानी पड़ती हैं”.
लेकिन 17 सितंबर 1950 को भारत ने इजरायल को मान्यता दे दी. आप और पाखंड देखना चाहते हैं? नेहरू ने इसे भी उचित ठहराया. उन्होंने कहा कि भारत बहुत पहले ही इजरायल को मान्यता दे देता क्योंकि आखिर यह एक हकीकत तो है ही, लेकिन “हम इसलिए रुके रहे कि हम अपने अरब मित्रों को नाराज नहीं करना चाहते थे”.
लेकिन खास तौर से 1960 में संघर्ष के दशकों ने भारत को परेशान कर दिया जब मुस्लिम दुनिया, खासकर अरब देशों ने पाकिस्तान का पक्ष ले लिया. 1971 के युद्ध में जॉर्डन ने अपने कुछ एफ-104 लड़ाकू विमान पाकिस्तान को उधार में दिए और शाह के ईरान ने 1965 में पीएएफ को अपने अड्डे उपलब्ध कराए.
इन दशकों में इजरायल अनुरोध पर चुपचाप हमारी मदद करता रहा. भारत के लोग इस पर गौर कर रहे थे और इजरायल को और ज्यादा पसंद करने लगे थे. बाद में, करगिल की लड़ाई में हमारी हवाई बमबारी तभी कारगर होने लगी जब इजरायलियों ने हमें लेज़र गाइडेंस किट्स दिए. इन किट्स के साथ जुड़े बमों से भारतीय वायुसेना के मिराज-2000 विमानों ने सटीक निशाने लगाने शुरू कर दिए. इस बीच, अरब देश और इजरायल भी औपचारिक रूप से सक्रिय हुए, अब्राहम एकॉर्ड्स आए, फिर आई2यू2 और इंडिया-मिडल-ईस्ट-यूरोप इकोनॉमिक कॉरीडोर आया.
रणनीतिक हितों के ऐसे मेल, ईरान के अलगाव, और उसकी ओर से लड़ने वाले फिलिस्तीनी लड़ाकों के चलते आप यह उम्मीद नहीं कर सकते कि भारत पिछले शीतयुद्ध वाली गलतियां दोहराएगा. अगर हमने इसके लिए ‘मूर्खता’ शब्द का उपयोग किया था तो इसकी वजह सिर्फ यह थी कि लंबे समय तक हमारी विदेश नीति पश्चिम विरोधी हर तरह के ‘वाद’ से जुड़ी रही. लेकिन अब यह दौर ऐसा है जब नीतियां केवल राष्ट्रीय हित से तय होती हैं. जनमत भी इसी से संकेत ग्रहण करता है.
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