भारतीय सेना देश की सबसे बड़ी और प्रतिष्ठित संस्थाओं में से एक है. इसे राष्ट्रीय गौरव, शौर्य और एकता के प्रतीक के तौर पर देखा जाता है. लेकिन अंग्रेजों के समय से चली आ रही विरासत ऐसी है कि इसमें कुछ जातियों का वर्चस्व है. वहीं खासकर अनुसूचित जाति के लोग इसमें कम हैं. इसकी सबसे बड़ी वजह 1857 के सैनिक विद्रोह के बाद अपनाई गई मार्शल रेस यानी लड़ाकू कौम का सिद्धांत है, जिस ब्रिटिश नीति की छाया से भारतीय सेना आज भी मुक्त नहीं हो पाई है.
यही कारण है कि सेना में कुछ जाति, धर्म और समुदाय के नाम पर अंग्रेजों के समय के बने रेजिमेंट आज भी चल रहे हैं, पर बाकी जातियों के रेजिमेंट नहीं बनाए जा रहे हैं. वहीं आज भी सैनिकों की भर्ती में कास्ट सर्टिफिकेट देना पड़ता है. जबकि सेना में अब तक रिजर्वेशन लागू नहीं है और इस कारण जाति-प्रमाणपत्र लिए जाने की कोई वजह नहीं है.
ये आलेख इस बात की पड़ताल करेगा कि वे कौन से ऐतिहासिक कारण थे, जिनके कारण अनुसूचित जाति की सेना में पर्याप्त उपस्थिति नहीं है. साथ ही ये बताने की कोशिश की जाएगी कि अलग-अलग समय में इस स्थिति को बदलने के लिए क्या किया गया और उसके कैसे नतीजे रहे.
आजादी के बाद, सेना में अनुसूचित जाति की भर्ती कराने की सबसे गंभीर कोशिश पूर्व उप-प्रधानमंत्री और रक्षा मंत्री बाबू जगजीवन राम (1908-1986) ने की थी, जिनकी हाल ही में देश ने जयंती मनाई है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे समेत तमाम बड़े नेताओं ने जगजीवन राम के योगदान को याद किया.
भारत ने 1971 में जब बांग्लादेश मुक्ति संग्राम को सैन्य मदद की और जिस दौरान पाकिस्तान के 90,000 से ज्यादा सैनिकों ने आत्मसमर्पण किया, उस समय देश के रक्षा मंत्री जगजीवन राम ही थे. इसके बाद जगजीवन राम ने इस बात की कोशिश की कि सेना में दलितों को प्रवेश मिले, लेकिन तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल सैम मानेकशॉ इसके लिए तैयार नहीं हुए. और इस तरह ये विचार आगे नहीं बढ़ पाया.
येल यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर स्टीवन विल्किनसन ने अपनी किताब आर्मी एंड नेशन में इस घटना का विस्तार से जिक्र किया है. उन्होंने लेफ्टिनेंट जनरल एस.के. सिन्हा का इंटरव्यू लिया. सिन्हा ने बताया कि 1972 में रक्षा मंत्री जगजीवन राम ने सैम मानेकशॉ से पूछा कि इंडियन मिलिट्री एकेडमी से अनुसूचित जाति के कितने अफसर बने हैं. मानेकशॉ के निर्देश पर उस समय ब्रिगेडियर पद पर तैनात एस.के. सिन्हा ने जानकारी ली और बताया कि उनका प्रतिशत सिर्फ 1 है. सिन्हा ने एक फाइल पर लिखे नोट का हवाला दिया, जिसके मुताबिक सेना में आरक्षण लागू नहीं है. सिन्हा ने ये भी बताया कि गैर-अफसरों में एससी के लोग 15 प्रतिशत से ज्यादा है क्योंकि महार रेजिमेंट है और हर बटालियन में 75-100 स्वीपर, मोची, धोबी आदि भी होते हैं. विल्किन्सन ने बताया कि किस तरह इस पर बात आगे नहीं बढ़ी.
सेना में दलित
सेना में दलितों की नियुक्ति होने और न होने का लंबा और पेचीदा इतिहास है. ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी में सभी अन्य जातियों के साथ, खासकर दलित सैनिक बड़ी संख्या में भर्ती हुए. इस दौरान हुए दो निर्णायक युद्धों में दलित सैनिकों की भूमिका के दस्तावेजी प्रमाण हैं.
बिहार और यूपी की दुसाध जाति, जो अक्सर अपना उपनाम पासवान लिखती है, के योद्धा सिराजुद्दौला और ईस्ट इंडिया कंपनी दोनों फौज में थे. प्लासी की लड़ाई (1757) में उनकी भूमिका के बारे में केशव पासवान ने अपनी किताब ए वारियर कास्ट में लिखा है. उसी तरह 1818 में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और पेशवा के बीच के युद्ध में महार योद्धाओं का जिक्र है. जिस ब्रिटिश बटालियन ने पेशवा की फौज से निर्णायक लड़ाई लड़ी, उसके 500 सैनिकों में यूं तो विभिन्न जातियों के लोग थे, लेकिन उनमें ज्यादा संख्या महारों की थी. महाराष्ट्र और मध्य भारत की इस जाति को पेशवा शासन में अछूत माना जाता था और तमाम तरह के भेदभाव इनके साथ होते थे. अंग्रेजों ने शुरुआती दौर में भील, संथाल, मोपला, अहीर, मीणा, कोली समेत विभिन्न जातियों के सैनिक भर्ती किए.
ये स्थिति 1857 के बाद बदल गई, जब भारत सीधे तौर पर ब्रिटेन के शासन के अधीन आ गया और सेना में भर्ती की पॉलिसी बनाई गई. चूंकि बगावत सेना से शुरू हुई थी, इसलिए अंग्रेजों ने सेना के पुनर्गठन का काम हाथ में लिया. इसके लिए जोनाथन पील कमीशन बनाया, जिसने ये नियम बनाए कि किन इलाकों, जातियों और समूहों से भर्तियां की जानी हैं. 1879 में एश्ले इडेन कमीशन ने पील कमीशन के तरीके को सही माना. 1880 के दशक में सैन्य भर्तियों में मार्शल रेस या योद्धा नस्ल का सिद्धांत ब्रिटिश फौज में स्थापित हो गया.
अरविंद गणाचारी अपनी किताब द फर्स्ट वर्ड वार: द मिसिंग लिंक में तर्क देते हैं कि सैन्य अभियानों में अपने बेहतरीन कौशल प्रदर्शन के बावजूद 1870 से 1914 के बीच सेना में तथाकथित नीची मानी गई जातियों की टुकड़ियों की संख्या कम होती चली गई.
लेकिन ये तो शांतिकाल की भर्तियों का मामला था. जब कभी भी युद्ध का दौर आया, हमेशा बड़ी संख्या में वंचित और अछूत बताई गई जातियों के लोगों को सेना में भर्ती किया गया. यही वह मौका होता था, जब ये जातियां सेना में पहुंच पाती थीं. लेकिन शांति स्थापित होने पर इन टुकड़ियों को भंग कर दिया जाता था.
इसे हम दो प्रमुख उदाहरणों से समझ सकते हैं. दूसरे विश्व युद्ध के समय तथाकथित अछूत जातियों को बड़ी संख्या में फौज में भर्ती किया गया. इसी दौरान चमार रेजिमेंट खड़ी की गई, जिसका केंद्र जबलपुर को बनाया गया. ये रेजिमेंट पूर्वी सीमा पर लड़ी और इसने ढेर सारे मेडल जीते. पर युद्ध खत्म होने के बाद इसे भंग कर दिया गया.
इसे फिर से बहाल करने की मांग लंबे समय से चल रही है. पूर्व केंद्रीय मंत्री रघुवंश प्रसाद सिंह ने 2011 में लोकसभा में विशेष उल्लेख के दौरान चमार रेजिमेंट को फिर से बहाल करने की मांग की. इसके छह साल बाद, संवैधानिक संस्था राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग ने तत्कालीन रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर को चिट्ठी लिखकर इस रेजिमेंट को फिर से खड़ा करने के पक्ष में तर्क दिए – “ये आश्चर्यजनक है कि जाति और धर्म के आधार पर बनी सिख रेजिमेंट, जाट रेजिमेंट, डोगरा रेजिमेंट बनी हुई हैं, जबकि चमार रेजिमेंट को भंग कर दिया गया.”
इसी तरह 1880 के दशक में महारों की फौज में भर्ती बेहद कम, बल्कि न के बराबर होने के बाद पहले विश्व युद्ध में महारों को फिर से फौज में लिया गया और उनकी अपनी 111 महार यूनिट बनाई गई. युद्ध खत्म होने के बाद ये यूनिट भंग कर दी गई, जिसे दूसरे विश्व युद्ध के समय फिर से खड़ा किया गया. मजहबी सिखों के साथ भी यही हुआ. वे पहले विश्व युद्ध के समय फौज में भर्ती किए गए. फिर उनकी यूनिट भंग हुई और दूसरे विश्व युद्ध में दोबारा उन्हें फौज में जाने का मौका मिला.
सेना में जाने का सपना
डॉ. आंबेडकर ने सेना में दलितों की भर्ती का मामला बार-बार उठाया और उन्हें कामयाबी भी मिली. 1 जनवरी, 1927 को वे कोरेगांव शहीद स्तंभ पर आयोजित कार्यक्रम में पहुंचे थे. वहां उन्होंने बताया कि वंचित जातियों के लोगों ने किस तरह ब्रिटिश फौज में रहते हुए युद्ध में हिस्सा लिया और किस तरह उन्हें बाद में गैर-योद्धा जाति मान लिया गया. उन्होंने भाषण दिया कि किस तरह इनके साथ छुआछूत होती थी और उनके पास रोजगार के साधन भी नहीं थे. इसलिए उनके पास अंग्रेजों की फौज में भर्ती होने के अलावा कोई उपाय ही नहीं था. उन्होंने अंग्रेजों से मांग की कि उनकी भर्ती पर लगी रोक हटाई जाए. ये महत्वपूर्ण है कि डॉ. आंबेडकर के पिता और दादा दोनों फौज में थे.
दूसरे विश्व युद्ध के दौरान, 18 जून, 1941 को डॉ. आंबेडकर ने ब्रिटिश शासकों को एक पत्र लिखकर वंचित जातियों को फौज में भर्ती न किए जाने पर सवाल पूछे. इस दौरान सैन्य जरूरतों को देखते हुए फौज ने उनकी भर्ती शुरू कर दी. 1943 में नायगांव में एक सम्मेलन में डॉ. आंबेडकर ने समुदाय के सदस्यों से फौज में भर्ती के अवसर का लाभ उठाने और थल, वायु और नौसेना में जाने की अपील की. इससे समझा जा सकता है कि वे फौज में भर्ती होने को वंचित जातियों के लिए कितना महत्वपूर्ण मानते थे.
सेना में जाना किसी भी व्यक्ति और सेना के लिए गौरव और स्वाभिमान की विषय होता है. वैसे ही किसी जाति को सेना में भर्ती के अयोग्य बता देना उस जाति के स्वाभिमान को तोड़ता है. इसका बुरा मनोवैज्ञानिक असर पूरे समुदाय पर होता है. साथ ही, सेना में भर्ती होना परिवार को हैसियत देता है और उसकी आर्थिक स्थिति को भी बेहतर बनाता है.
वर्तमान स्थिति की बात करें तो सेना की ज्यादातर यूनिटों में तमाम जातियों के लोग भर्ती किए जाते हैं. लेकिन जाति, धर्म और समुदाय आधारित कुछ रेजिमेंट चल रहे हैं. सेना के पास इसे जारी रखने के अपने तर्क हैं. लेकिन आधुनिक समय में इस पर पुनर्विचार किए जाने की जरूरत है. साथ ही, सेना की भर्ती में जाति प्रमाण-पत्र मांगने के चलन पर भी फिर से विचार किया जाना चाहिए. सेना का इस बारे में कहना है कि ये पहले से चला आ रहा है. ये किसी सिस्टम को जारी रखने का पर्याप्त कारण नहीं है.
सेना को आधुनिक और समावेशी होना ही चाहिए. अंत में डॉ. आंबेडकर के शब्दों में- “सेना में भर्ती का रास्ता सभी भारतीयों के लिए खुला होना चाहिए. कार्यक्षमता और आवश्यक योग्यताओं की पूर्ति ही भर्ती का आधार होना चाहिए.”
(दिलीप मंडल इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका के पूर्व मैनेजिंग एडिटर हैं, और उन्होंने मीडिया और समाजशास्त्र पर किताबें लिखी हैं. उनका ट्विटर हैंडल @Profdilipmandal है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
(संपादनः शिव पाण्डेय)
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