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Thursday, 31 October, 2024
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भारतीय राजनेताओं के लिए कोरोनावायरस चिंता का सबब क्यों बन रहा है

पुराने तरीके की ‘टच-एंड-फील’ राजनीति में यकीन करने वाले नेता कोविड संकट के कारण वोटरों तक पहुंचने के अधिक तकनीकी तरीके अपनाने की दुविधा का सामना कर रहे हैं.

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नई दिल्ली: कोरोनावायरस ने भारत के राजनेताओं को बेचैन कर रखा है. वायरस के हमारे बीच अपेक्षा से अधिक समय तक मौजूद रहने की आशंका है और इसके कारण आमतौर पर वास्तविक संपर्कों पर आधारित रही राजनीति के नियम-कायदे बदलने का खतरा बन गया है.

सोशल डिस्टैंसिंग की ज़रूरत बने रहने का मतलब होगा मेगा रैलियों, टाउन हॉल बैठकों और चौपाल की सभाओं, और यहां तक कि ‘चाय पर चर्चा’ का भी आयोजन संभव नहीं होना- कम से कम पुराने पैमाने पर तो नहीं ही. धरने-प्रदर्शनों को जनस्वास्थ्य पर खतरे के रूप में देखा जाएगा. ऐसे में नेताओं का क्या होगा? इस सवाल ने बहुतों की नींद उड़ा रखी है.

बिहार की चेनारी सीट से विधायक ललन पासवान ने इस बारे में दिप्रिंट से कहा, ‘ये हमारे लिए बड़ा संकट है. चुनाव माथे पर है. पता ही नहीं चलता कैसे मूव करें.’ उन्होंने अपने चुनाव क्षेत्र के लिए 1,000 करोड़ की परियोजनाएं स्वीकृत करा रखी हैं, लेकिन लॉकडाउन के चलते वह परियोजनाओं की आधारशिला तक रखने में असमर्थ हैं. राज्य के बाढ़ चुनाव क्षेत्र से तीन बार के भाजपा विधायक ज्ञानेंद्र सिंह ज्ञानू कहते हैं, ‘इतना बुरा समय तो कभी आया ही नहीं.अब लगता है टीवी, रेडियो पर ही प्रचार करना होगा.’

बिहार में विधानसभा के चुनाव अक्टूबर-नवंबर में होने की संभावना हैं.

हालांकि चिंता सिर्फ चुनाव वाले राज्यों के नेताओं की ही नहीं है, अन्य राज्यों में भी नेता वायरस का जोखिम मौजूद रहने की स्थिति में राजनीतिक गतिविधियां चलाने को लेकर चिंतित हैं.

जैसा कि ब्रिटेन प्रधानमंत्र बोरिस जॉनसन और विश्व स्वास्थ्य संगठन ने आगाह किया है, यदि टीके का निर्माण संभव नहीं हुआ और वायरस हमारे बीच से नहीं गया तो फिर वैसी स्थिति में क्या होगा!

वैसे भारतीय राजनेता अधिक निराशावादी नहीं हैं, बल्कि वे इन सवालों पर खुलकर बात कर रहे हैं. कोरोनावायरस के कारण जब मतदाताओं से आमने-सामने के संपर्क की सीमित गुंजाइश हो, तो वैसी स्थिति में राजनीति कैसे की जा सकती है? यदि हमारे बीच वायरस की मौजूदगी बनी रहती है तो उससे किनको फायदा होगा और किनको नुकसान-सत्ताधारी दलों को या विपक्ष को?

नेताओं की बदलो-या-मिटो वाली दुविधा

भारत के नेता संजीव कुमार और सुचित्रा सेन अभिनीत फिल्म आंधी (1975) के दौर से काफी आगे निकल चुके हैं, जिसमें वोट मांगने के लिए पांच साल बाद चेहरा दिखा रहे नेताओं पर जनता व्यंग्य करती थी. सलाम कीजिए/आली जनाब आए हैं/ ये पांच सालों का देने/ हिसाब आए हैं.

इक्कीसवीं सदी के नेता अधिक सुलभ और वोटरों के प्रति अधिक उत्तरदायी हैं. वे अधिक नियमितता से अपने चुनाव क्षेत्रों का दौरा करते हैं. मतदाताओं से संवाद के लिए वे ट्विटर, फेसबुक और व्हाट्सएप का इस्तेमाल करते हैं. हालांकि सभाओं और रैलियों से ही उनकी राजनीति परिभाषित होती रही हैं.

एक पुराने कांग्रेसी नेता ने कहा कि लोगों को पहले से मालूम बातें ही दोबारा सुनाने के लिए बसों में भरकर बड़ी रैलियों में ले जाने वाला दौर गुजर चुका है. हालांकि, उनके अनुसार उस जमाने में भी रैलियां ‘महज तमाशा और शक्तिप्रदर्शन का ज़रिया’ हुआ करती थीं, लेकिन फिर भी केवल डिजिटल राजनीति करना संभव नहीं है.

कांग्रेस के ही युवा नेता दीपेंद्र हुड्डा का विश्वास मतदाताओं से नज़रें मिलाकर बात करने में है. उन्होंने कहा, ‘दो तरह के घोड़े होते हैं- बारात का घोड़ा और जंग का घोड़ा. सच्चा राजनेता वही है जो जनता की लड़ाई लड़ने के लिए उनके बीच रहता है. वह जंग का घोड़ा होता है.’


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चार बार के सांसद हुड्डा ने कहा, ‘मुझे आप पुरानी शैली का मान लें, पर मैं टच-एंड-फील वाला नेता हूं. सोशल मीडिया ठीक है पर उससे बात नहीं बनती.’ ऐसा भी नहीं है कि हुड्डा सोशल मीडिया से अनजान हैं. ट्विटर पर उनके 2,65,000 फॉलोअर हैं, जबकि फेसबुक पर उन्हें करीब दस लाख लोग फॉलो करते हैं. लेकिन उनके लिए ‘टच-एंड-फील’ राजनीति का कोई दूसरा विकल्प नहीं है.

वैसे तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अनेक नेताओं को ट्विटर और फेसबुक अपनाने के लिए प्रेरित किया लेकिन इन नेताओं ने सोशल मीडिया को बस प्रभाव बढ़ाने वाले एक कारक के रूप में लिया है.

सोशल मीडिया की पहुंच भारत में तेजी से बढ़ी है. व्हाट्सएप के 40 करोड़ यूज़र हैं, जबकि 28 करोड़ से अधिक फेसबुक के, 9 करोड़ इंस्टाग्राम के, 20 करोड़ टिकटॉक और 26 करोड़ यूट्यूब के. भारत में ट्विटर के सक्रिय यूजर्स की संख्या का कोई आधिकारिक डेटा उपलब्ध नहीं है. बिजनेस डेटा प्लेटफ़ॉर्म स्टैटिस्टा इसे 13.15 मिलियन मानता है, लेकिन इस पर कई सवाल खड़े होते हैं, क्योंकि ट्विटर पर मोदी के 57 मिलियन फॉलोअर हैं और यहां तक कि कांग्रेस नेता राहुल गांधी को भी 14 मिलियन लोग फॉलो करते हैं.

छह चुनाव लड़ चुके ललन पासवान नेताओं की दुविधा को स्वर देते हुए कहते हैं, ‘पीएम का वीडियो हम घुमाएंगे, गांव में गाय-बकरी चराने वाले भी देखते हैं. लेकिन जो सभा में ताली बजती है, वैसा तो नहीं होगा.’ कोरोनावायरस आम गतिविधियों को कब तक बाधित रखेगा, इस बारे में अनिश्चितता को देखते हुए कई नेता जनता से संवाद की अपनी नई रणनीति पर काम शुरू भी कर चुके हैं.

मसलन, पूर्व केंद्रीय मंत्री जितिन प्रसाद ने उत्तर प्रदेश में पार्टी कार्यकर्ताओं के साथ ज़ूम पर एक दैनिक वीडियो कॉन्फ्रेंस ‘कैसे हैं आप’ शुरू किया है. प्रसाद कहते हैं, ‘यदि आप डिजिटल संचार के लिए तैयार नहीं हैं, तो आप पीछे छूट जाएंगे.

सोशल डिस्टैंसिंग का प्रावधान अभी कहीं नहीं जा रहा. आपको अपनी सोशल मीडिया रणनीति को सुदृढ़ करना होगा.’
मैसूरु से भाजपा सासंद प्रताप सिम्हा का मानना है कि कोरोनावायरस कई वर्षों तक मौजूद रहे तो भी उससे नेताओं पर कोई बड़ा फर्क नहीं पड़ने वाला. उन्होंने कहा, ‘लॉकडाउन के दौरान भी मोदी जी सोशल मीडिया और पारंपरिक मीडिया दोनों के ज़रिए जनता तक अपना संदेश पहुंचा रहे हैं. आपने देखा कि पूरे देश ने ‘जनता कर्फ्यू’ या सोशल डिस्टैंसिंग के उनके आह्वान को किस तरह माना. अपना संदेश देने के लिए अब भीड़ जुटाने की ज़रूरत नहीं पड़ती है. आज सबके पास स्मार्टफोन है.’

हालांकि राजनीति विज्ञानी सुहास पल्शिकर का मानना है कि महामारी से ‘राजनीति की ज़मीन छोटी’ हो सकती है. उन्होंने कहा, ‘पहले की तरह राजनीति शायद नहीं हो पाएगी. हम जिसे राजनीति मानते हैं, शायद उसका दायरा छोटा हो जाएगा. उदाहरण के लिए, श्रम कानूनों में बदलावों के खिलाफ लोगों को गोलबंद करना असंभव हो जाएगा. एकत्रित होने की अनुमति देने से इनकार कर दिया जाएगा और अदालतें ऐसा करने को सही ठहराएंगी. वास्तविक लोकतांत्रिक गतिविधियों के अवसर नहीं दिए जाने से हमारी राजनीतिक संस्कृति का और भी पतन होगा.’

क्या कोरोनावायरस से सत्तारूढ़ दलों को फायदा मिलेगा?

केंद्र और राज्यों में सत्तारूढ़ दलों को कोविड-19 संकट को ठीक से नहीं संभाल पाने के लिए आलोचनाएं झेलनी पड़ रही है. अपने घरों को पैदल लौटते और रास्ते में सड़कों और रेल पटरियों पर दम तोड़ते प्रवासी मज़दूरों की तस्वीरों से सोशल और पारंपरिक मीडिया भरा पड़ा है और आर्थिक मंदी के मद्देनज़र लाखों लोग रोजी-रोटी को लेकर चिंतित हैं. फिर भी, विभिन्न दलों के तमाम नेताओं को यही लगता है कि जल्दी ही ये तस्वीरें पृष्ठभूमि में चली जाएंगी और एक बार फिर से शासन से जुड़े मुद्दे चर्चा के केंद्र में आ जाएंगे.

बिहार के वरिष्ठ विधायक और लालू प्रसाद यादव के समधी चंद्रिका राय कहते हैं, ‘असल नुकसान विपक्षी नेताओं को होगा क्योंकि वे जनता से कट गए हैं. जब नीतीश कुमार (मुख्यमंत्री) यहां संकट का सामना कर रहे हैं, तेजस्वी (यादव) दिल्ली में बैठे हैं. जनता देख रही है कि कैसे प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री उनके लिए भोजन और चिकित्सा सुविधाओं की व्यवस्था करने और अर्थव्यवस्था को संभालने में जुटे हुए हैं. विपक्ष के नेता कहां हैं?’

उल्लेखनीय है कि राय ने हाल ही में यादव के राष्ट्रीय जनता दल को छोड़ा है. कांग्रेस नेता और सांसद मनीष तिवारी इस विश्लेषण से सहमत नहीं है. उनके अनुसार जब प्रवासी घर लौटकर अपने अनुभव साझा करेंगे तो लोग भाजपा से मुंह मोड़ लेंगे. उन्होंने कहा, ‘2011 की जनगणना के अनुसार देश में 11 करोड़ प्रवासी दूसरे जिलों में और 4 करोड़ दूसरे राज्यों में रहते थे. पिछले एक दशक में ये आंकड़ा ऊपर ही गया है. वे इस बात को नहीं भूलेंगे कि सरकार ने उनके साथ कैसा व्यवहार किया. साथ ही, बड़ी संख्या में लोगों की नौकरियां जा रही हैं और आगे भी जाएंगी.’

आने वाले महीनों और वर्षों में महामारी से अधिकाधिक लोगों के प्रभावित होने तथा लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था के कारण और अधिक संख्या में लोगों के रोजगार छिनने की स्थिति में, सत्तारूढ़ दलों को रक्षात्मक रवैया अपनाना पड़ सकता है. लेकिन उनकी बढ़त कथानक को नियंत्रित करने की उनकी क्षमता में निहित है, जिसे विपक्षी नेता तक स्वीकार करते हैं. संचार के साधनों और प्लेटफार्मों पर पकड़ और कल्याणकारी उपायों के माध्यम से लोगों के जीवन को प्रभावित करने की क्षमता के कारण अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों पर प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों की बढ़त एक स्थापित तथ्य है.

सुहास पल्शिकर भी इस पर सहमत हैं, ‘ये सच है कि विपक्ष नुकसान की स्थिति में है, खासकर सत्ता से दूर छोटी पार्टियां.’

लेकिन हुड्डा का मानना है कि विपक्षी नेताओं की ब्रांड वैल्यू को कम करके नहीं आंका जा सकता है. ‘सत्तारूढ़ पार्टियों की ये बढ़त वहां पर बेअसर साबित होगी जहां मज़बूत विपक्षी नेता मौजूद हैं. यदि सामने एक प्रभावहीन भाजपाई मुख्यमंत्री और एक भरोसेमंद विपक्षी नेता हो, तो जनता विपक्षी नेता को ही चुनेगी. मसलन, हरियाणा में लोग (मनोहर लाल) खट्टर सरकार से बेहद नाखुश हैं. उन्हें एकमात्र विकल्प हुड्डाजी (पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा) में दिखेगा.’


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आंध्रप्रदेश में मुख्यमंत्री जगनमोहन रेड्डी या तेलंगाना में मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव के सामने उनके राज्यों में भरोसेमंद विपक्ष मौजूद नहीं है. सोशल डिस्टैंसिंग की व्यवस्था के लंबे समय तक बने रहने से वहां विपक्षी दल कोई जनांदोलन या विरोध कार्यक्रम नहीं चला पाएंगे, जिसके कारण इन मुख्यमंत्रियों और उनकी पार्टियों की स्थिति और अधिक मज़बूत हो सकती है.

भावी नेताओं को लगा झटका

जहां अनुभवी राजनेता अपने विकल्पों पर अभी भी विचार कर रहे हैं, महत्वाकांक्षी और उभरते हुए नेताओं को शायद कोरोनावायरस से एक बड़ा झटका लग भी चुका है.

जैसे, भीम आर्मी के चंद्रशेखर आज़ाद रैलियों और विरोध प्रदर्शनों के ज़रिए देश भर में दलितों को एकजुट करते हुए ट्विटर केंद्रित राजनीति कर रहीं बहुजन समाज पार्टी की मायावती के लिए खतरा बनकर उभर रहे थे. पर हाल के दिनों में वह सुर्खियों से गायब हैं, हालांकि ट्विटर एवं फेसबुक पर उनकी सक्रियता बनी हुई है. इसी तरह बिहार में कन्हैया कुमार और मुकेश साहनी, गुजरात में जिग्नेश मेवानी और अल्पेश ठाकुर, आंध्रप्रदेश में पवन कल्याण और राजस्थान में हनुमान बेनीवाल जैसे नेता भी पहले अपनी उपस्थिति दर्ज कराते दिख रहे थे. ये लोग भी अब सुर्खियों से गायब हैं और जनता की स्मृति से उनकी छवियां गायब होती जा रही हैं.

कोरोनावायरस को कमज़ोर और सुविधाहीन लोगों को निशाना बनाने के लिए जाना जाता है- स्वास्थ्य के साथ ही राजनीति के क्षेत्र में भी ये बात सच दिखती है.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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