जवाहरलाल नेहरू ने 1930 में अपनी पुत्री इंदिरा गांधी को लिखे एक पत्र में, चीनी यात्री ह्वेन त्सांग की किताब से ली गई एक कहानी का जिक्र किया था. कहानी दक्षिण भारत के एक व्यक्ति के बारे में थी जो बिहार के वर्तमान भागलपुर के पास कर्णसुवर्ण नामक एक शहर में आया था. उसने अपनी कमर के चारों ओर ताम्र पट्टिका लपेट रखी थी और उसके सिर पर एक मशाल लगी हुई थी. जब लोग उससे इस अजीबोगरीब पहनावे के बारे में पूछते, तो वह उन्हें बताता कि वह इतना बुद्धिमान है कि उसे डर है कि पट्टिका लपेट कर नहीं रखने पर कहीं उसका पेट न फट जाए. और उसने मशाल इसलिए लगा रखी है क्योंकि उसे अपने आसपास मौजूद अज्ञानियों पर तरस आता है, जो कि अंधकार में पड़े हैं.
नेहरू ने इंदिरा को बताया कि ह्वेन त्सांग की किताब में वर्णित अभिमानी व्यक्ति के विपरीत, उनके पास सीमित ज्ञान है और इसलिए वह बुद्धिमान व्यक्ति बनकर उपदेश नहीं देंगे. उन्होंने लिखा कि सही और गलत का पता लगाने का सबसे अच्छा तरीका है बातचीत और चर्चा करना है, न कि उपदेश. तब नेहरू ने कल्पना नहीं की होगी कि उनके वंशज विश्व इतिहास की झलक में उनके पत्रों को पढ़ेंगे और इस कहानी का कोई अलग अर्थ निकालेंगे.
उनके पत्र लिखने के लगभग 90 साल बाद, ऐसा लगता है मानो गांधी परिवार ने अपनी कमर में टाइटेनियम की पट्टिका लगा ली है. मशाल के बजाय, उनके पास नाइट विज़न वाले चश्मे हैं, जिनके सहारे वे अंधेरे में भी देख में लेते हैं जबकि कांग्रेस के बाकी सदस्य और आम लोग अंधेरे में पड़े हुए हैं. इसके अलावा, राहुल गांधी के लिए अच्छी बात ये है कि वह दक्षिण भारत से सांसद हैं और न कि उत्तर (यानि कर्णसुवर्ण) से.
कांग्रेस के बागी जी-23 नेता भले ही पार्टी के ‘कमजोर पड़ने’ के बारे में लगातार शोर मचा रहे हों, लेकिन गांधी परिवार अभी भी आत्मविश्वास से लबरेज़ है— प्रियंका गांधी तीन विवादित कृषि कानूनों को रद्द करने का वादा कर रही हैं, जबकि राहुल गांधी नागरिकता (संशोधन) कानून को असम में लागू नहीं करने की कसमें खा रहे हैं.
उनकी राजनीति भी व्यवस्थित नज़र आती है: मशरूम बिरयानी खाना और तमिलनाडु के ग्रामीणों के साथ जल्लीकट्टू देखना, केरल के कोल्लम में मछुआरों के साथ तैरना और तमिल क्लासिक कहे जाने वाले तिरुक्कुरल को पढ़ना जिसे, राहुल के अनुसार, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खोलकर देखा तक नहीं होगा.
गांधी परिवार की राजनीतिक समझ का असर उनके वफादारों पर भी होता दिख रहा है. वरिष्ठ नेता कपिल सिब्बल, जो जी-23 में शामिल हैं, ने राहुल की ‘उत्तर-दक्षिण’ टिप्पणी के संदर्भ में जब कहा कि कांग्रेस को हर मतदाता का सम्मान करना चाहिए, तो उन्हें ट्विटर पर भारतीय युवा कांग्रेस के अध्यक्ष श्रीनिवास बी.वी. से उपदेश मिला: ‘किनारे बैठकर पार्टी को भाषण देना बंद करें. कांग्रेस पार्टी को ज़मीनी नेताओं की जरूरत है.’
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विचारधारा, नेता और पैसे का अभाव
जी-23 द्वारा सोनिया गांधी को विवादित पत्र लिखे जाने के छह महीने बाद, अब एक बात बिल्कुल स्पष्ट है: गांधी परिवार ज्ञान से इतना परिपूर्ण है— ह्वेन त्सांग की किताब में वर्णित व्यक्ति की तरह— कि उसे पार्टी चलाने के बारे में दूसरों की सलाह की कोई ज़रूरत नहीं. वह निर्णय लेने की प्रक्रिया में परिवार के अलावा किसी और को हस्तक्षेप की अनुमति नहीं देगा — जैसा कि असंतुष्ट समूह कांग्रेस कार्यसमिति और चुनाव समिति के लिए चुनाव की मांग के ज़रिए हासिल करना चाहता है. लेकिन शनिवार को जम्मू में असंतुष्टों के भाषणों के सुर और लहजे से स्पष्ट लगा कि जी-23 सदस्य हार मानने को तैयार नहीं हैं.
मोटे तौर पर ऐसे तीन तत्व हैं जो किसी राजनीतिक कार्यकर्ता या नेता को पार्टी विशेष से बांधे रखते हैं — वैचारिक प्रतिबद्धताओं या किसी बड़े उद्देश्य या आंदोलन का हिस्सा होने की वजह से उत्पन्न परस्पर लगाव की भावना; चुनावी सफलताएं दिला सकने वाले एक लोकप्रिय और करिश्माई नेता के तहत भविष्य की संभावनाएं; और, संसाधनों की उपलब्धता.
वर्तमान कांग्रेस के पास इनमें से कुछ भी नहीं है. जी-23 के अधिकांश सदस्य— और अनेकों दूसरे भी— कांग्रेस पार्टी की उस विचारधारा के लिए प्रतिबद्ध हैं जिसे कि वे दशकों से जानते-समझते आए हैं. लेकिन आज वे पार्टी नेतृत्व को पूरी तरह से भ्रमित पा रहे हैं, बात धर्मनिरपेक्षता और नरम हिंदुत्व के बीच झूलने की हो या राष्ट्रीय सुरक्षा मुद्दों पर भ्रामक प्रतिक्रियाएं देने की. और, ये तो बस दो मुद्दे हैं. किसी आंदोलन या उद्देश्य से जुड़ाव का मुद्दा अब आम लोगों से संबंधित नहीं है; यह अब गांधी परिवार के हितों का मामला लगता है. जहां तक करिश्माई नेतृत्व की बात है, तो ज्यादातर कांग्रेसियों को आज राहुल गांधी के चुनाव जीतने की क्षमता पर उतना ही भरोसा है जितना कि नरेंद्र मोदी या अमित शाह को. और, राजनीति जारी रखने के लिए ज़रूरी संसाधनों की उपलब्धता के बारे में आप हाल के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के उम्मीदवारों से पूछें या सिर्फ गुजरात कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष हार्दिक पटेल से बात करके देखें, जिनका कहना है कि हाल के नगरपालिका चुनावों में पार्टी उम्मीदवारों को अपने पैसे खर्च करने पड़े और वह खुद के लिए फेसबुक लाइव करने में असमर्थ हैं क्योंकि वह 7,000 रु का कैमरा नहीं ले सकते. (वैसे ये हैरानी वाली बात है कि वह अपने मोबाइल फोन से ऐसा क्यों नहीं कर सकते!)
पार्टी (नेतृत्व) से अलगाव महसूस कर रहे कांग्रेसियों में मात्र जी-23 के सदस्य ही शामिल नहीं हैं.
करो या मरो की लड़ाई
तो, जी-23 और गांधी परिवार के बीच इस गतिरोध को खत्म करने का क्या उपाय है?
सोनिया या राहुल की हैसियत इंदिरा गांधी वाली नहीं हैं. इंदिरा ने 1969 और 1978 में, कांग्रेस के दिग्गजों को चुनौती दी थी और पार्टी को विभाजित कर दिया था. दोनों अवसरों पर, उन्होंने मूल पार्टी को छोड़ते हुए अपने धड़े को असली कांग्रेस के रूप में स्थापित करने का काम किया था. तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष एस. निजलिंगप्पा और ब्रह्मानंद रेड्डी विरोधी खेमे में थे जिन्होंने उन्हें पार्टी से निष्कासित कर दिया था. सोनिया गांधी को पता है कि राहुल या प्रियंका के पास अपनी दादी वाला करिश्मा नहीं है कि अगर उन्हें पार्टी छोड़नी पड़े या इंदिरा गांधी की तरह उन्हें निष्कासित कर दिया जाए तो वे कांग्रेसियों के बहुमत का समर्थन हासिल कर पाएंगे. इसलिए सोनिया कांग्रेस की बागडोर नहीं छोड़ेंगी. यदि स्थिति और बिगड़ती है, तो अंतरिम कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में अपने अधिकारों का उपयोग करते हुए सोनिया उनके खिलाफ कार्रवाई करने में नहीं हिचकेंगी.
भले ही जी-23 में भूपेंद्र सिंह हुड्डा जैसा जनाधार वाला नेता तथा कुछेक वर्तमान और पूर्व सांसद भी शामिल हैं, लेकिन कांग्रेस से बाहर निकलकर अपना अलग संगठन बनाना कोई आसान विकल्प नहीं है. इसलिए जब तक संभव होता है, वे पार्टी के भीतर रहकर ही लड़ेंगे. उन्हें पता है कि आलाकमान ने गुलाम नबी आज़ाद के साथ कैसा व्यवहार किया है. ये केवल उन्हें दोबारा राज्यसभा में नहीं भेजे जाने की ही बात नहीं है. गांधी परिवार ने स्पष्ट संकेत दिया है कि उन्हें राजनीतिक सेवानिवृत्ति का विकल्प चुनना चाहिए क्योंकि वो पार्टी में उनके लिए कोई भूमिका नहीं देखता. ये आज़ाद ही थे जिन्होंने 2016 के विधानसभा चुनाव में द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके) प्रमुख करुणानिधि से 41 सीटें हासिल की थी— वो भी 2011 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के 63 में से 58 सीटें हार चुकने के बावजूद. फिर भी, 2021 के विधानसभा चुनावों के वास्ते डीएमके के साथ सीटों पर बातचीत के लिए कांग्रेस आलाकमान ने ओमन चांडी और रणदीप सुरजेवाला पर भरोसा किया. आज़ाद ने दीवार पर लिखी इबारत पढ़ी होगी. अन्य जी-23 सदस्यों ने भी. शनिवार को जम्मू में उनकी सभा के पीछे यही कारण दिखता है.
लेकिन जी-23 के सदस्यों को ये भी पता है कि यह करो या मरो वाली लड़ाई है. यदि वे पार्टी में पर्याप्त समर्थन हासिल नहीं कर पाए, तो गांधी परिवार कभी न कभी उन्हें ज़रूर ही निशाना बनाएगा— संभवतः जून में राहुल गांधी के दोबारा कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद. इसीलिए राहुल केरल और तमिलनाडु की लगातार यात्राएं कर रहे हैं, जबकि महीनों तक गायब रहने के बाद प्रियंका मैदान में वापस आ चुकी हैं और किसानों की रैलियों को संबोधित करने और पीड़ित परिवारों से मिलने में व्यस्त हैं. अगर कांग्रेस केरल में सरकार बनाती है और तमिलनाडु में द्रमुक की अगुवाई वाली सरकार का हिस्सा बन जाती है, तो इससे पार्टी अध्यक्ष पद के लिए राहुल का दावा मज़बूत होगा. असम और पश्चिम बंगाल में पार्टी की निराशाजनक संभावनाओं को देखते हुए, वह उन राज्यों से या तो दूर रहना चाहेंगे या मेहमान कलाकार की भूमिका में दिखेंगे.
अगर स्थिति योजनानुसार रही, तो राहुल के फिर से कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद असंतुष्टों को सबक सिखाया जा सकता है. अगर इसकी वजह से पार्टी में विभाजन की नौबत आती है, तो भी कोई बात नहीं. आखिरकार, गांधी परिवार कांग्रेस से बड़ा है— या वो ऐसा मानता है.
जी-23 के सदस्यों को इस बात का अहसास है. उनके पास दो ही विकल्प हैं— पीठ में गोली खाएं या फिर सीने में. इसका मतलब ये है कि अब उनके पास पीछे हटने का विकल्प नहीं है. उन्हें जनमत सर्वेक्षणों का उत्सुकता से इंतजार होगा. जैसा कि अनुमान है, यदि कांग्रेस को यदि एक बार फिर चुनावी हार का सामना करना पड़ा, तो गांधी परिवार शायद पीछे हटने और मेलजोल की बात करने और खंडित अभिमान को परे रख लड़ाई को आगे टालने के लिए बाध्य हो जाए. अन्यथा, कांग्रेस में एक और विभाजन अपरिहार्य लगता है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)
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