कोई राजनीतिक दल किस तरह से अपनी ही कब्र खोदता है, इसका कांग्रेस के अतिरिक्त कोई दूसरा उदाहरण शायद ही कहीं देखने को मिले. जम्मू कश्मीर को लेकर कांग्रेस द्वारा अपनाई गई रणनीति का अगर विश्लेषण किया जाए तो साफ है कि पार्टी की न तो दशा सुधरती दिखाई दे रही है न ही पार्टी को कोई दिशा मिल रही है.
अनुच्छेद-370 को लेकर कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व में जो दिशाहीनता नज़र आई उससे कांग्रेस की हालत का काफी हद तक पता चलता है. रही सही कसर वरिष्ठ कांग्रेस नेता गुलाम नबी आज़ाद और उनके बयान पूरी कर दे रहे हैं. आए दिन आज़ाद ऐसे बयान देते चले जा रहे हैं जिनसे जम्मू संभाग में कांग्रेस को नुकसान उठाना पड़ रहा है. आज़ाद के बयानों की भाषा और शैली ऐसी है कि मौजूदा हालात में उन्हें जम्मू संभाग में कोई स्वीकारने को तैयार नहीं है.
पांच अगस्त को राज्यसभा में अनुच्छेद-370 को लेकर होने वाली चर्चा के दौरान दिए गए बयान से लेकर आज तक, गुलाब नबी आज़ाद ने जितनी बार भी कोई बयान दिया उसके केंद्र में कश्मीर और कश्मीर के लोग ही रहे हैं. उन्होंने एक बार भी अपने बयानों में जम्मू या जम्मू का ज़िक्र नही किया. जम्मू संभाग के अधिकतर लोगों की अनुच्छेद-370 को लेकर क्या राय है और वह नयी परिस्थितियों में क्या चाहते हैं ? इस बारे में अभी तक आज़ाद की तरफ से एक भी शब्द नहीं बोला गया है. यहां तक कि उनकी अपनी पार्टी के नेता क्या चाहते हैं और वह सब किस हाल में हैं, इस बारे में भी आज़ाद लगातार चुप्पी साधे हुए हैं.
आमतौर पर सोशल मीडिया से दूर रहने वाले गुलाम नबी आज़ाद का एक वीडियो संदेश इन दिनों खूब वायरल हो रहा है, जिसमें उन्होंने राज्य के हालात को लेकर चिंता प्रकट की है. मगर इस वीडियो में सिर्फ और सिर्फ आज़ाद ने कश्मीर की ही चर्चा की है. एक बार भी आज़ाद ने राज्य के दूसरे बड़े हिस्से यानी जम्मू संभाग का नाम तक नहीं लिया और न ही जम्मू के हालात के बारे में कुछ बोला. लद्दाख को लेकर भी आज़ाद लगातार चुप हैं.
अनुच्छेद-370 की समाप्ति के बाद से गुलाम नबी आज़ाद द्वारा दिए गए सभी बयानों को लेकर जम्मू संभाग के तमाम कांग्रेस नेता ख़ामोश हैं और कोई प्रतिक्रिया नही दे रहे. निजी बातचीत में तो सभी मानते हैं कि आज़ाद के बयानों से उन्हें राजनीतिक रूप से नुकसान हो रहा है, मगर सार्वजनिक रूप से कोई कुछ बोलने को तैयार नही. यह चापलूसी और चाटूकारिता की परकाष्ठा ही मानी जाएगी कि राजनीतिक रूप से अपना निजी नुकसान तक होते देख कर भी जम्मू के कांग्रेस नेता बोलने को तैयार नही हैं. कांग्रेस के स्थानीय नेता जो दिवालियापन दिखा रहे हैं, वह साफ तौर पर बताता है कि पार्टी की स्थिति कितनी दयनीय है.
आज़ाद पर ही निर्भर हो चुके हैं नेता
गत कई वर्षों से जम्मू संभाग के कांग्रेस नेताओं के एकमात्र नेता गुलाम नबी आज़ाद ही रहे हैं. जम्मू संभाग के तमाम कांग्रेस नेताओं के लिए कांग्रेस का मतलब गुलाम नबी आज़ाद ही है. यह नेता पूरी तरह से आज़ाद पर ही निर्भर हो चुके हैं. शायद ही जम्मू संभाग का कोई ऐसा कांग्रेस नेता हो, जिसका संपर्क दिल्ली में आज़ाद के अलावा किसी दूसरे बड़े कांग्रेस नेता से रहा हो. हालात यह बन चुके हैं कि जम्मू के कांग्रेस नेता बिना आज़ाद के न कुछ सोच सकते हैं और न ही कुछ कर सकते हैं. इन नेताओं और कांग्रेस आलाकमान के बीच आज़ाद ही एकमात्र पुल बन कर रह गए हैं.
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इस स्थिति का आज़ाद को भी खूब लाभ मिला है और इसी स्थिति के बल पर वे दिल्ली में अपनी राजनीति चमकाते रहे हैं. लेकिन, आज़ाद के इस एकछत्र ‘साम्राज्य’ का भले ही आज़ाद को खूब फ़ायदा मिला हो मगर जम्मू में कांग्रेस को बहुत नुकसान पहुंचा हैं. आज़ाद पर यह आरोप भी लगते रहे हैं कि जम्मू में उन्होंने ऐसे नेताओं को प्रोत्साहित किया है जिन पर भ्रष्टाचार सहित कई गंभीर आरोप लगते रहे हैं.
कहने को तो गुलाम नबी आज़ाद जम्मू संभाग से ही संबंध रखते हैं पर हाल के वर्षों में उन्होंने ऐसा साबित करने की कोई कसर नहीं छोड़ी है कि उनके लिए जम्मू नही बल्कि कश्मीरी राजनीतिक नेताओं की तरह कश्मीर ही पहली प्राथमिकता है.
भारी पड़ रही है जम्मू संभाग की अनदेखी
दरअसल कांग्रेस के तमाम कदम ऐसे संकेत दे रहे हैं कि उसे कश्मीर घाटी और घाटी की मुस्लिम आबादी की ही फ़िक्र है. कांग्रेस यह बात समझने में लगातार विफल हो रही है कि जम्मू संभाग के लोग क्या चाहते हैं. जम्मू संभाग के हिन्दू, सिख, जैन, और गुज्जर समुदाय की क्या राय है और उनकी क्या अपेक्षाएं हैं ? और तो और कांग्रेस यह जानने का प्रयास भी नही करना चाहती कि जम्मू संभाग में रहने वाली विशाल मुस्लिम आबादी की क्या राय है ?
कांग्रेस द्वारा इस हक़ीक़त को समझने की कोशिश नहीं की जा रही है कि जम्मू संभाग की अधिकतर मुस्लिम आबादी की राय कश्मीर से अलग रही है और जम्मू के मुस्लिम समाज ने राष्ट्र की मुख्यधारा से अपने को जोड़े रखा है.
उल्लेखनीय है कि जम्मू संभाग में 66 प्रतिशत हिंदू आबादी है जबकि 31 प्रतिशत आबादी मुस्लिम है. जम्मू संभाग के अधिकतर लोगों ने अनुच्छेद-370 को समाप्त किए जाने पर ख़ुशी ज़ाहिर की है और केंद्र के निर्णय को अपना समर्थन दिया है. जम्मू संभाग के मुस्लिम बहुल इलाकों में भी केंद्र द्वारा अनुच्छेद-370 को लेकर लिए गए निर्णय को लेकर किसी भी तरह का विरोध नहीं हुआ है.
जम्मू में ही बचा है आधार
दिलचस्प और महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि जम्मू-कश्मीर में कांग्रेस का थोड़ा बहुत जो आधार बचा है, वो अभी भी केवल और केवल जम्मू संभाग में ही है. लेकिन, बावजूद इसके जम्मू संभाग उसकी प्राथमिकता में नही रहा है. पिछले कुछ विधानसभा चुनावों पर अगर नज़र दौड़ाए तो साफ पता चलता है कि जम्मू संभाग में कांग्रेस का प्रदर्शन कैसा रहा है.
मोदी लहर के बीच हुए 2014 के जम्मू कश्मीर विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 12 सीटों पर जीत हासिल की. जिसमें से सबसे अधिक पांच सीटें जम्मू संभाग से कांग्रेस को मिली जबकि कश्मीर से चार और लद्दाख से तीन सीटें हासिल हुईं.
उल्लेखनीय है कि जम्मू कश्मीर की 87 सदस्यीय विधानसभा में कश्मीर संभाग से विधानसभा की 46 सीटें हैं जबकि जम्मू संभाग में 37 सीटें आती हैं. लद्दाख में मात्र चार सीटें हैं.
इससे पहले 2008 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने कुल 17 सीटों पर जीत पाई. जिनमें से घाटी से उसे सिर्फ तीन सीटें मिल सकी. जबकि लद्दाख से एक और जम्मू संभाग से 13 सीटों पर जीत दर्ज की. इसी तरह से 2002 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 20 सीटों पर जीत हासिल हुई, जिसमें से कश्मीर घाटी से मात्र चार सीटें ही मिल सकी. जबकि जम्मू संभाग की 16 विधानसभा सीटों पर पार्टी को जीत मिली. इससे पहले के सभी विधानसभा और लोकसभा चुनाव कांग्रेस किसी विशेष चुनौती के जीतती रही है, शायद ही कोई ऐसा चुनाव रहा हो जिसमें कांग्रेस को जम्मू संभाग से 20 से 25 सीटें जम्मू संभाग से न मिली हों.
जम्मू संभाग में बेहतर स्थिति होने और अच्छा प्रदर्शन करने के बावजूद जम्मू संभाग से एक-आध अपवाद छोड़कर कभी भी, किसी को भी कांग्रेस की ओर से प्रदेशाध्यक्ष नहीं बनाया गया. दरअसल कांग्रेस आलाकमान की नज़र में जम्मू कश्मीर प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बनने के लिए पहली और अंतिम शर्त के अनुसार कश्मीरी और सुन्नी मुस्लिम होना जरूरी रहा है.
जम्मू संभाग के रहने वाले दो मुस्लिम तो किसी तरह से प्रदेशाध्यक्ष बना दिए गए मगर इससे भी बड़ी त्रासदी यह रही है कि आज भी किसी हिन्दू का प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बन पाना आसान नहीं है. जबकि हिन्दू बहुल सीटों और हिन्दू बहुल जम्मू संभाग में हमेशा कांग्रेस की गहरी पैठ रही है.
केवल 1964 में छज्जू राम भगत को कुछ समय के लिए प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया था. तब से लेकर आज तक किसी हिन्दू को दोबारा कांग्रेस आलाकमान ने जम्मू कश्मीर में पार्टी की कमान नही सौंपी.
जम्मू संभाग से संबंधित गुज्जर नेता चौधरी मोहम्मद असलम (1998-2001) प्रदेशाध्यक्ष बनाए गए, लेकिन कांग्रेस के भीतर कश्मीर समर्थक गुट ने उन्हें भी बर्दाश्त नही किया और यह कह कर उनको हटवा दिया कि असलम न तो कश्मीरी है और न ही सुन्नी मुस्लिम. यहां तक गुलाम नबी आज़ाद की तरफ से भी उन्हें समर्थन नही मिला.
जम्मू संभाग से संबंधित दूसरे एकमात्र अध्यक्ष बनने वाले खुद गुलाम नबी आज़ाद खुद थे. मगर आज़ाद ‘पार्ट टाईम’ अध्यक्ष साबित हुए और मौका मिलते ही वापिस दिल्ली चले गए.
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यह बड़ी अजीब स्थिति रही है कि कांग्रेस को सीटें तो जम्मू संभाग से मिलती रही हैं मगर पार्टी अध्यक्ष हमेशा कश्मीरी सुन्नी मुस्लिम ही रहा. कश्मीर को ख़ुश करने के चक्कर में जम्मू संभाग का हिन्दू भी कांग्रेस से नाराज़ हुआ और जम्मू संभाग का मुस्लिम व गुज्जर समुदाय भी कांग्रेस से दूर होता चला गया. परिणामस्वरूप जम्मू संभाग में कांग्रेस की ज़मीन लगातार सिकुड़ती चली गई है. यह विडंबना ही है कि जम्मू संभाग में ज़बरदस्त आधार और मज़बूत स्थिति होने के बावजूद कांग्रेस अपनी ज़मीन बचा सकने की इच्छा तक नही पाल रही.
नहीं रहा कोई ताकतवर नेता
दरअसल पंडित त्रिलोचन दत्त, पंडित गिरधारी लाल डोगरा, पंडित बेली राम और पंडित मंगत राम शर्मा जैसे नेताओं के बाद जम्मू संभाग में कांग्रेस को मज़बूत जनाधार वाले नेता मिले ही नहीं. इन नेताओं ने कभी भी कश्मीरी नेतृत्व को पार्टी में हावी नहीं होने दिया. परिणामस्वरूप कांग्रेस हिन्दू बहुल जम्मू संभाग में लगातार ताकतवर बनी रही.
पंडित त्रिलोचन दत्त की रौबदार व कड़क नेता की छवि और पंडित बेली राम की सादगी व ईमानदारी को आज भी याद किया जाता है. इसी तरह से पंडित गिरधारी लाल डोगरा और पंडित मंगत राम शर्मा की ‘चाणक्य’ नीतियों को आज भी लोग भूल नही पाएं हैं.
उल्लेखनीय है कि पंडित चौकड़ी के नेताओं के आख़िरी कद्दावर नेता माने जाने वाले पंडित मंगत राम शर्मा ने जीवन भर गुलाम नबी आज़ाद और उनके ‘साम्राज्य’ का पूरी ताक़त से मुक़ाबला किया और कभी भी जम्मू कांग्रेस में आज़ाद के हस्तक्षेप को बर्दाश्त नहीं किया. शर्मा ने 2008 और बाद में भी कुछ समय तक हर मंच पर आज़ाद को टक्कर दी और तामाम अड़चनों के बावजूद प्रदेश कांग्रेस की बागडोर अपने हाथों में रखी.
वरिष्ठ पत्रकार दिनेश मन्होत्रा मानते हैं कि जम्मू कांग्रेस में पंडित मंगत राम शर्मा के बाद पार्टी जम्मू में कमजोर होती चली गई और उसे व्यापक जनाधार वाले नेताओं की कमी का सामना करना पडा हैं. दिनेश मानते हैं कि कांग्रेस नेतृत्व द्वारा कश्मीर को प्राथमिकता देने के कारण जम्मू में आम लोगों के बीच कांग्रेस की लोकप्रियता तेज़ी से कम हुई है.
दिनेश मन्होत्रा का कहना है कि प्रदेश कांग्रेस के जम्मू मुख्यालय की चरमराती इमारत की तरह राज्य में कांग्रेस लगातार कमजोर होती चली जा रही है, मगर न तो प्रदेश कांग्रेस के नेताओं को कोई फ़िक्र है और न ही कांग्रेस आलाकमान का इस तरफ कोई ध्यान है.
(लेखक जम्मू कश्मीर के वरिष्ठ पत्रकार हैं. यह लेख उनका निजी विचार है)