पिछले हफ्ते महाराष्ट्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने पूरे राज्य में एक नारा लगाते हुए अभियान की शुरुआत की: “एक हैं तो सेफ हैं”. यह नारा मराठी और अंग्रेज़ी अखबारों के साथ-साथ पूरे राज्य में अभियान पोस्टरों पर भी दिखाई दिया. यह नारा अस्पष्ट है, लेकिन इतना भी अस्पष्ट नहीं है. यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का एक और सांप्रदायिक संदेश या कोडित संदेश है.
अगर विचार राष्ट्रीय एकता का संदेश देने का है, तो नारे को ‘एक हैं तो मज़बूत हैं’ क्यों नहीं लिखा गया — “सेफ” शब्द क्यों लिखा गया? किससे सेफ? कौन हमारी सेफ्टी को खतरा पहुंचा रहा है? खतरा कहां से आ रहा है?
कोई बात नहीं, चूकिए मत: यह वही पुरानी घिसी-पिटी भाजपा-आरएसएस की चाल है जो किसी तरह यह सुझाव देती है कि कोई ताकत है जो हमारी सामूहिक सुरक्षा को खतरे में डाल रही है. इस तरह के संदेश रहस्यमय, खतरनाक “बाहरी लोगों” की ओर इशारा करते हैं और विकृत प्रगति से मुसलमानों को निशाना बनाकर खौफ वाली स्थिति पैदा करते हैं.
यह नारा धार्मिक घृणा फैलाने वाले भाषणों की पृष्ठभूमि में आया है. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, जिन्होंने 2022 में कहा था कि चुनाव “80-20” का मुकाबला है — ज़ाहिर तौर पर हिंदू बहुसंख्यक और मुस्लिम अल्पसंख्यक का ज़िक्र करते हुए — अब “बटेंगे तो कटेंगे” का नारा दे रहे हैं. महाराष्ट्र में पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने “वोट जिहाद” की चेतावनी देते हुए विभाजनकारी बयान दिए हैं और मुगल बादशाह औरंगजेब का अपमानजनक संदर्भ दिया है. दोनों नेताओं ने यह भी घोषणा की है कि भारत एक दिन पीओके और पाकिस्तान पर कब्ज़ा कर लेगा. चालाकी से गढ़ा गया नारा “एक हैं तो सेफ हैं” अपमानजनक रूप से विभाजनकारी चुनावी भाषणों की झड़ी लगाता है, जो एक बार फिर मुसलमानों को भारत के दुश्मन के रूप में पेश करता है.
भाजपा का दोहरा चरित्र — चुनावों के दौरान धार्मिक ध्रुवीकरण और शासन में ‘सबका साथ सबका विकास’ की बयानबाजी — पाखंडी है और मतदाताओं के प्रति एक कृपालु दृष्टिकोण दिखाता है. भाजपा का मानना है कि भारतीय मतदाता इस बात के हकदार नहीं हैं कि पार्टी मूल्य वृद्धि से निपटने, रोज़गार सृजन या ढहते बुनियादी ढांचे को सुधारने के लिए क्या करना चाहती है.
अगर विचार लोगों को ‘सेफ’ रखने का है, तो महाराष्ट्र के बदलापुर के एक स्कूल में यौन उत्पीड़न का शिकार हुई मासूम बच्चियों की सुरक्षा के बारे में क्या? अगर सुरक्षा ही लक्ष्य है, तो भाजपा सरकार ने नागरिकों को ट्रेन दुर्घटनाओं, प्राकृतिक आपदाओं या ढहते शहरी बुनियादी ढांचे से सुरक्षित रखने के लिए क्या वास्तविक कदम उठाए हैं?
भाजपा का लोकलुभावनवाद समस्या को हल करने के बजाय शिकायत का फायदा उठाने के बारे में है. भाजपा केवल हिंसा भड़काना चाहती है, जवाब देने की दिशा में काम नहीं करती. पब्लिक सेफ्टी के बारे में इतनी चिंतित पार्टी ने अब तक सुरक्षा के लिए खतरों से क्यों नहीं निपटा, जबकि वह केंद्र और राज्य में सत्ता में है? एक तथाकथित “शक्तिशाली” भाजपा नागरिकों को डराने और उन्हें असुरक्षित महसूस कराने की कोशिश क्यों कर रही है?
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भाजपा का एक भ्रामक ‘हिंदू वोट बैंक’ का सपना
चुनाव के समय भाजपा ‘औरंगजेब’, ‘पाकिस्तान’ और ‘लव जिहाद’ के अपने आख्यानों को मशीन की तरह सटीकता से पेश करती है. सबसे पहले, पैदल सैनिक बाहर आते हैं और खुलेआम नफरत का आह्वान करते हैं. एक छोटा-सा समूह, सकल हिंदू समाज, पूरे महाराष्ट्र में “लव जिहाद” के खिलाफ अभियान चला रहा है. पिछले कुछ साल में कोल्हापुर और सतारा जैसी जगहों पर छोटे-मोटे दंगे भड़कने दिए गए हैं, जो अक्सर सोशल मीडिया पोस्ट के कारण हिंसा का कारण बनते हैं. एक बार जब पैदल सैनिक अपना काम कर लेते हैं, तो मोदी विभाजनकारी मंथन में उतर आते हैं और “एक है तो सेफ हैं” जैसे आकर्षक नारे लगाते हैं. चतुराईपूर्ण शब्दों का खेल और कलात्मक अस्पष्टता मोदी को एक “राजनेता” के रूप में पेश करने (और कानून को ताक पर रखने) की अनुमति देती है, जबकि छोटे नेता असली बेकार बातें करते हैं.
क्या भाजपा का धार्मिक ध्रुवीकरण ब्रांड काम कर रहा है? पूरी तरह से नहीं. ऐसे देश में जहां 80 प्रतिशत आबादी हिंदू है, अगर हिंदू धार्मिक भावनाएं मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए पर्याप्त थीं, तो भाजपा 2024 का आम चुनाव क्यों हार गई? राजस्थान के बांसवाड़ा में भाजपा क्यों हारी, जहां मोदी ने अपना ‘वे (कांग्रेस) -तुम्हारा-मंगलसूत्र-चुरा लेंगे’ भाषण दिया था, या अयोध्या में जहां राम मंदिर का निर्माण हुआ था? विशुद्ध रूप से हिंदुत्व-संचालित एजेंडा चुनाव नहीं जीत पाया है, मोदी की 2014 की जीत उनके ‘विकास पुरुष’ की छवि के कारण थी. भाजपा की 2019 की जीत हिंदुत्व के कारण नहीं, बल्कि पाकिस्तान के खिलाफ 2019 के बालाकोट हवाई हमलों और पाकिस्तान विरोधी उग्र-राष्ट्रवाद के उभार का परिणाम थी.
ऐतिहासिक रूप से अगर हिंदू-मुस्लिम सवाल असल में राजनीतिक रूप से इतने शक्तिशाली होते, तो क्या हिंदू महासभा विभाजन के बाद के वर्षों में चुनावी राजनीति पर हावी नहीं होती — स्वतंत्रता के बाद विभाजन सबसे भड़काऊ ‘सांप्रदायिक’ मुद्दा था?
अगर आज़ादी के शुरुआती दशकों में विभाजन की यादों को देखते हुए वाकई कोई ‘हिंदू वोट बैंक’ था, तो क्या जनसंघ जैसी हिंदू पार्टी हाशिए पर रहने के बजाय ध्रुवीकरण का लाभ नहीं उठा पाती? जनसंघ 1975 के बाद ही राष्ट्रीय सत्ता का स्वाद चख पाया, जब उसने गांधीवादी समाजवादी जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में आपातकाल विरोधी आंदोलन के साथ गठबंधन किया.
भाजपा अल्पसंख्यक तुष्टिकरण और कांग्रेस के तथाकथित “मुस्लिम वोट बैंक” की बात करती है, फिर भी, चुनाव दर चुनाव, वह बहुसंख्यकों को खुश करने और अपना खुद का “हिंदू वोट बैंक” बनाने के लिए हर संभव हथकंडा अपनाती है.
लेकिन संघ परिवार जानता है कि ‘हिंदू वोट बैंक’ माया है — एक भ्रम जो असल में मौजूद नहीं है. यही कारण है कि सत्ता में एक दशक के बाद भी, भाजपा-आरएसएस को अभी भी हर चुनाव के दौरान इस तथाकथित हिंदू वोट को किसी तरह से अपने पक्ष में करने के लिए इतनी मेहनत करनी पड़ती है. संघ परिवार एक भ्रम का पीछा कर रहा है. अपनी हताशा में, वह किसी तरह अपने सपनों का वोट बैंक बनाने के लिए अधिक से अधिक चरमपंथी नारे और अधिक से अधिक शातिर कुत्ते की सीटी का सहारा लेते हैं.
अगर वास्तव में हिंदू वोट बैंक था, तो 1992 में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद उत्तर प्रदेश में भाजपा एक दशक तक क्यों गायब रही और 2017 में ही सत्ता में लौटी? हां, भगवा वस्त्र पहने “साधु” के रूप में आदित्यनाथ अपनी सांप्रदायिक रूप से चार्ज की गई “80-20” राजनीति के साथ लोगों को प्रभावित करते हैं, लेकिन भाजपा 2024 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में बुरी तरह हारी. पश्चिम बंगाल में भाजपा सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के अपने मिशन में पूरी तरह विफल रही है, 2021 में विधानसभा चुनाव हार गई और सांप्रदायिक तनाव को बढ़ावा देने और हिंदू-मुस्लिम विभाजन को भड़काने के अत्यधिक संगठित प्रयासों के बावजूद 2024 के लोकसभा में केवल 12 सीटें हासिल कीं.
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बंगाल की तरह महाराष्ट्र ने भी हिंदू-मुस्लिम को नकारा
ममता बनर्जी को “हिंदू विरोधी” के रूप में चित्रित करने का भाजपा का प्रयास बुरी तरह विफल रहा. काली और दुर्गा की भक्ति में गहराई से डूबी और कालीघाट मंदिर के पुजारियों के परिवार से आने वालीं बनर्जी ज़मीनी स्तर की सांस्कृतिक धार्मिकता के साथ-साथ जैविक धर्मनिरपेक्ष बहुलवाद का पालन करती हैं. बनर्जी की जड़ में समाई प्रामाणिकता और गांधीवादी उदारवाद के सामने भाजपा के शोरगुल वाले सोशल मीडिया अभियान कोई मुकाबला नहीं कर सकते. भाजपा-शैली का हिंदुत्व आंदोलन केवल सीमित स्थानों और विशिष्ट संदर्भों में ही काम करता है.
भाजपा की जीत में योगदान देने वाले महत्वपूर्ण कारकों में मोदी का व्यक्तित्व पंथ, एक “मजबूत”, “राष्ट्रवादी” सरकार का वादा और अंतर्राष्ट्रीय मंच पर मोदी का जोरदार प्रचारित “कद” शामिल है. भाजपा अपनी जीत का श्रेय अपने चुनाव कार्यकर्ताओं की सेना और निर्वाचन क्षेत्रों के अपने लेजर-केंद्रित सूक्ष्म प्रबंधन को भी देती है. हाल ही में हरियाणा विधानसभा चुनाव में, यह ‘हिंदू वोट बैंक’ नहीं था, बल्कि जाट-गैर-जाट विभाजन और भाजपा की स्थानीय स्तर की चालाक चुनावी साजिश थी, जिसने चीज़ों को भाजपा के पक्ष में मोड़ दिया. तथाकथित ‘हिंदू वोट बैंक’ तमिलनाडु में काम नहीं आया, एक ऐसा राज्य जिसमें अत्यधिक धार्मिक और भक्तिपूर्ण हिंदू समुदाय शामिल हैं. ‘हिंदू वोट बैंक’ 2023 में कर्नाटक में काम नहीं आया. ‘हिंदू वोट बैंक’ बिहार में केवल आंशिक रूप से काम करता है, जहां भाजपा 2024 में स्थानीय स्तर पर नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली जेडीयू और चिराग पासवान की एलजेपी के साथ गठबंधन के कारण जीती.
इस प्रकार, हिंदू-मुस्लिम घृणास्पद भाषण और मुसलमानों को “दुश्मन” के रूप में पेश करना चुनाव जीतने की गारंटी नहीं है. फिर भी, यह रणनीति भाजपा के चुनाव प्रचार का डिफॉल्ट तरीका बनी हुई है. महाराष्ट्र में भाजपा नेता शाहू महाराज, ज्योतिबा फुले और बीआर आंबेडकर की सुधारवादी और प्रगतिशील विरासतों की बात करते हैं, शाहू की प्रगतिशील नीतियों, फुले के जाति-विरोधी धर्मयुद्ध और आंबेडकर के आधुनिकतावादी समतावाद की याद दिलाते हैं. शाहू-फुले-आंबेडकर महाराष्ट्र की प्रगतिशील त्रिमूर्ति हैं, तीनों ही व्यक्ति परंपरावादी कठोरताओं को एक क्रांतिकारी चुनौती देते हैं, लेकिन, जिस तरह भाजपा नेता शाहू-फुले-आंबेडकर का ज़िक्र करते हैं, उसी तरह वह ‘लव जिहाद’, ‘वोट जिहाद’, ‘बटेंगे तो कटेंगे’, ‘औरंगजेब’ और ‘एक है तो सेफ हैं’ जैसे नारे लगाते हैं. शायद संघ का अनुमान है कि धार्मिक घृणास्पद भाषण उसके मूल वोट को एकजुट रखेंगे. आखिरकार, मोदी की राजनीति का मूल उद्देश्य मुसलमानों को राष्ट्रीय दुश्मन के रूप में पेश करना है — एक ऐसी रणनीति जिसने ध्रुवीकृत गुजरात में भाजपा को अप्रत्याशित लाभ दिलाया.
लेकिन क्या मुसलमानों को दुश्मन के रूप में पेश करना महाराष्ट्र में कारगर होगा, जहां वो आबादी का केवल 11 प्रतिशत हैं और उन्हें शायद ही कोई खतरा माना जाता है? महाराष्ट्र खुली सीमाओं वाला राज्य नहीं है और रोहिंग्याओं या “अवैध विदेशियों” द्वारा “घुसपैठ” के बारे में भ्रम को आसानी से नहीं बढ़ाया जा सकता है.
नफरत भरे भाषणों के इस खुले मौसम में, कमरे का हाथी चुनाव आयोग है. तथाकथित चुनाव निगरानी संस्था भाजपा द्वारा संवैधानिक मानदंडों के उल्लंघन और नरेंद्र मोदी द्वारा नफरत भरे भाषणों पर आंखें मूंद कर बैठी है. कांग्रेस ने महाराष्ट्र और झारखंड दोनों में मोदी के भाषणों के बारे में चुनाव आयोग में औपचारिक शिकायत दर्ज कराई है, लेकिन अभी तक, चुनाव आयोग ने निंदा का एक शब्द भी नहीं कहा है. 2022 में, चुनाव आयोग ‘रेवड़ी’ संस्कृति पर बहस करना चाहता था और पार्टियों से यह बताने के लिए कहा कि वह रियायतों पर कितना खर्च कर रहे हैं. फिर भी, इस बार, जबकि भाजपा महाराष्ट्र में महिलाओं को 1,500 रुपये प्रति माह देने वाली लाडकी बहिन योजना जैसी मुफ्त योजनाएं चला रही है, निर्वाचन आयोग कब्र की तरह मौन है.
महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में भाजपा की ओर से धार्मिक अल्पसंख्यकों को निशाना बनाकर हिंसक, ध्रुवीकरण करने वाली भाषा का प्रयोग लगातार जारी है. क्या महाराष्ट्र इस हिंदू-मुस्लिम ज़हर से “सुरक्षित” रहेगा और अपनी शाहू-फुले-आंबेडकर विरासत को कायम रखेगा? या फिर राज्य ‘एक हैं तो सेफ हैं’ धार्मिक ध्रुवीकरण के जाल में फंस जाएगा, जिसे पश्चिम बंगाल ने इतनी शिद्दत से खारिज कर दिया था?
(लेखिका अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस की राज्यसभा सदस्य हैं. उनका एक्स हैंडल @sagarikaghose है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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