संसद के मौजूदा सत्र में मानवाधिकार (संशोधन) विधेयक 2019 पर लोकसभा में चर्चा के दौरान एक दिलचस्प बहस हुई. इस विधेयक के पक्ष में बोलने के लिए खड़े हुए बीजेपी सांसद और पूर्व केंद्रीय मंत्री सत्यपाल सिंह ने कहा कि भारत में मनुष्यों का हमेशा सम्मान रहा है और हम सब तो ऋषियों की संतान हैं. पिछली सरकार में मानव संसाधन राज्य मंत्री रहते हुए भी सत्यपाल सिंह मानव विकास यानी इवोल्यूशन की डार्विन की थ्योरी को खारिज कर चुके हैं.
इसके जवाब में डीएमके सांसद कनिमोढ़ी ने कहा कि लेकिन ‘मेरे पुरखे ऋषि नहीं थे. वे साधारण इंसान (होमो सेपियन) थे. वे शूद्र थे. हम न तो किसी देवता से पैदा हुए हैं और न उनके शरीर के किसी हिस्से से. हम यहां सामाजिक न्याय के आंदोलन और मानवाधिकारों के लिए चलाए गए संघर्षों की वजह से आए हैं.’
कनिमोढ़ी की इस टिप्पणी में शायद इस सवाल का जवाब है कि बीजेपी के अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा तमिलनाडु जाकर क्यों रुक गया है. 2019 का जनादेश भारतीय जनता पार्टी के लिए विभिन्न दृष्टिकोणों से ऐतिहासिक रहा. पहली बार किसी गैर-कांग्रेस पार्टी ने पांच साल के पूर्ण कार्यकाल के बाद प्रचंड बहुमत से लगातार दूसरा कार्यकाल जीता.
पहली बार कोई गैर-कांग्रेस पार्टी अपने दम पर लोक सभा में 300 सीटों के आंकड़े को पार करती है. यही नहीं, बीजेपी ने जो 303 सीटें जीती हैं, इनमें से 224 सीटें उसने 50 प्रतिशत से अधिक वोट पाकर जीती है. इन्हीं चुनाव में बीजेपी के जीते उन राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों की संख्या लगभग दोगुनी हो गयी, जहां उसने 50 प्रतिशत से ज्यादा वोट पाये हैं- 2014 में जहां ऐसे क्षेत्र सात थे, 2019 में ऐसे 13 राज्य/संघ शासित प्रदेश हैं, जहां के आधे से ज्यादा वोट बीजेपी को मिले हैं.
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मोदी लहर में भी तमिलनाडु में घट गए बीजेपी के वोट
सिर्फ हिंदी पट्टी में ही नहीं, बीजेपी ने ओडिशा, पश्चिम बंगाल, जम्मू-कश्मीर और यहां तक कि उत्तर पूर्वी राज्यों सहित लगभग सभी राज्यों में अपना वोट प्रतिशत बढ़ाया है. लेकिन इस जनादेश में एक अपवाद है – तमिलनाडु. वैसे तो कर्नाटक को छोड़कर बीजेपी की अन्य किसी दक्षिण भारतीय राज्यों में कोई पैठ नहीं है, फिर भी तमिलनाडु अपवाद है क्योंकि ये अकेला ऐसा बड़ा राज्य है जिसमें बीजेपी का वोट प्रतिशत बढ़ने की बजाए कम हुआ है. बीजेपी का तमिलनाडु में प्रदर्शन देखें तो पाएंगे कि यहां उसका वोट प्रतिशत 2014 में 5.56 से घटकर 2019 में 3.66 प्रतिशत रह गया है.
अन्य दक्षिणी राज्यों को देखें तो पाएंगे कि बीजेपी का वोट प्रतिशत हर जगह बढ़ा है – चाहे वो केरल हो, कर्नाटक हो या तेलंगाना. केरल में बीजेपी को 2014 में 10.45 प्रतिशत वोट मिले थे, जो 2019 में बढ़कर 12.93 प्रतिशत हो गए हैं. कर्नाटक में बीजेपी के वोट 2014 के 43.37 प्रतिशत से बढ़कर 51.40 प्रतिशत हो गए हैं. तेलंगाना का गठन 2014 आम चुनाव के बाद हुआ था फिर भी राज्य विधान सभा में बीजेपी का वोट प्रतिशत 11.2 से बढ़कर 2019 में 19.8 प्रतिशत हुआ है. तेलंगाना से विभाजन के बाद आंध्र प्रदेश में ये पहला आम चुनाव था.
तमिलनाडु में ऐसा क्या है जो प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ओर बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह का जादू वहां नहीं चल पाया? ऐसा क्यों हुआ कि तमिलनाडु की राजनीति के दो दिग्गजों – करुणानिधि और जयललिता की मृत्यु के बाद भी बीजेपी प्रदेश में पैर न जमा सकी? जाहिर है कि चाहे कावेरी नदी के पानी का मुद्दा हो, जिसमें केंद्र सरकार कर्नाटक चुनाव (2018) के कारण खुल्लमखुल्ला तमिलनाडु के हितों के खिलाफ खड़ी दिखी, या 2016 में जल्लीकट्टू पर प्रतिबंध का मामला हो, या फिर श्रीलंकाई नौसेना द्वारा तमिल मछुआरों पर लगातार हो रहे हमले- इन सबसे तमिलनाडु के लोग केंद्र सरकार से खुश तो बिलकुल नहीं थे. लेकिन, तमिलनाडु में बीजेपी के ख़राब प्रदर्शन का एक और बहुत अहम पहलू है.
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तमिलनाडु में राष्ट्रीय पार्टियां हाशिए पर
भारत की राजनीति में तमिलनाडु और द्रविड़ राजनीति का एक अलग ही मुकाम है. केरल के बाद तमिलनाडु देश का दूसरा प्रदेश बना, जहां गैर-कांग्रेसी सरकार बनी. जहां केरल ने ये उपलब्धि 1957 में पायी, तमिलनाडु ने 1967 में ये मौका हासिल किया. तब से लेकर आज तक कांग्रेस, बीजेपी, कम्युनिस्ट पार्टियां या कोई अन्य राष्ट्रीय दल वहां सत्ता में नहीं आ पाईं. तमिलनाडु में राजनीति हमेशा डीएमके और एआईएडीएमके के बीच घूमती रहती है. राज्य विधान सभा चुनाव हों या लोक सभा, राष्ट्रीय पार्टियों को इन्हीं दोनों में से एक के साथ गठबंधन करना पड़ता है.
अब अपने मूल सवाल पर लौटते हैं कि तमिलनाडु में बीजेपी का प्रदर्शन 2014 के मुकाबले क्यों गिरा? ऐसा लगता है कि बीजेपी के कट्टर हिंदुत्व की राजनीति का मिजाज द्रविड़ आंदोलन के विपरीत है. उग्र हिंदुत्व की राजनीति तमिल गौरव को चिढ़ाती प्रतीत होती है. ऐसे समुदाय कम हैं जिनको अपनी भाषा और संस्कृति पर इतना गर्व और प्रेम हो, जितना कि एक तमिल को है. जब बात भाषा की आती है तो तमिलभाषी व्यक्ति जाति और धर्म के बंधन से उठकर एक अखंड और मजबूत समूह का हिस्सा बन जाता है. वह भाषा को अपनी सबसे बड़ी पहचान मानता है. ‘दुनिया की सभी भाषाओं में, ये हमारी ‘तमिल मां ‘ है जो आज सबसे अधिक अपमानजनक स्थिति में है. हमारी मां, दुनिया की सभी भाषाओं में सबसे प्राचीन और सबसे गौरवशाली, आज उस ऊंची चोटी से गिर चुकी है, जहां उसका स्थान था…’ तमिल विद्वान, निबंधकार तिरुवरूर वी कल्याणसुंदरम (1883-1953) के इन शब्दों को द्रविड़ आंदोलन का मूल माना जाता है.
तमिल भाषा से प्रेम के साथ, संस्कृत-विरोध, हिंदी थोपे जाने का विरोध और ब्राह्मण वर्चस्व का विरोध, द्रविड़ राजनीति के आधार स्तम्भ हैं, जिनका अनुशरण पेरियार ईवी रामास्वामी से लेकर सीएन अन्नादुरई, एमजी रामचंद्रन से लेकर करुणानिधि व जयललिता और अब स्टालिन कर रहे हैं. तमिलनाडु की राजनीति में इस मूल विचार में कोई मिलावट बर्दाश्त नहीं की जाती. दलित और मुसलमान दोनों द्रविड़ अंदोलन के अभिन्न अंग हैं. इसके विपरीत भारतीय जनता पार्टी की विचारधारा के मूल स्तम्भ है हिंदी भाषा और हिंदुत्व- जिसकी नींव और मीनार दोनों ही ब्राह्मणवाद पर टिकी है.
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जहां बीजेपी राम को आदर्श मानती है, द्रविड़ राजनीति में रावण नायक है क्योंकि वह द्रविड़ है. द्रविड़ आंदोलनकारी यहां तक कहते हैं कि रामायण को आर्य लोगों ने द्रविड़ लोगों को नीचा दिखने के लिए लिखा था. द्रविड़ राजनीति के प्रणेता सी अन्नादुरई ने रामायण का तमिल में अनुवाद करने के लिए प्राचीन तमिल लेखक क़म्ब (कंबर) की आलोचना भी की थी. अयोध्या में राम मंदिर बनने या ना बनने में तमिलनाडु को कोई दिलचस्पी नहीं है.
यही नहीं, 2007 में जब सेतुसमुद्रम शिपिंग कैनाल प्रोजेक्ट – भारत और श्रीलंका के बीच में एडम्स ब्रिज या रामसेतु को काटते हुए एक शिपिंग मार्ग बनाने की परियोजना पर विवाद चल रहा था तो करुणानिधि ने व्यंग करते हुए कहा था कि पता नहीं राम ने किस इंजीनियरिंग कॉलेज से स्नातक किया है? क्या इसके लिए कोई प्रमाण है?
राम, हिंदी, हिंदुत्व की राजनीति, जिसने अन्य राज्यों में बीजेपी को बड़ा बनाया है, वही तमिलनाडु में बीजेपी के विकास के लिए बाधित हो रही है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)
हिंदी हिन्दू ही जीवन का आधार है। एक बनकर रही। नहीं तो ना हिन्दू बचेगा ना ही तमिल।