नई दिल्ली. अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने जब यह घोषणा की कि ‘अमेरिका इज़ बैक’ यानी अमेरिका लौट आया है, तब कई लोग यह सोचने लग गए कि यह वापसी कितनी दूर तक जाएगी, खासकर चीन के मामले में.
डोनाल्ड ट्रंप के निंदक चाहे जो कहें, ट्रंप अहम मसलों पर चीन को प्रायः घेरते रहे और उसके खिलाफ प्रतिबंध भी लागू करते रहे. बाइडन को अपनी गद्दी संभाले अभी पहले 100 दिन पूरे करने बाकी हैं लेकिन इस बात के परेशान करने वाले संकेत मिलने लगे हैं कि जब अमेरिकी नौसेना कमांडर की रिपोर्ट दक्षिण चीन सागर में चीनी पोतों के बढ़ती गतिविधियों की खबरें दे रही है तब बाइडन चीन के प्रति नरम रवैया कैसे अपना सकते हैं.
इसके शुरुआती संकेत मिलने भी लगे हैं. कन्फ्यूशियस इंस्टीटयूट्स पर से प्रतिबंध हटा लिये गए हैं ताकि वह चीनी दबदबे वाले संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार काउंसिल में फिर से प्रवेश कर सके और जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर चीन से बात कर सके. वाशिंगटन जबकि अपने आंतरिक विभाजनों और कमजोर पड़ते अंतरराष्ट्रीय दबदबे को लेकर जद्दोजहद कर रहा है, ऐसा लगता है कि सार्वजनिक विवादों में उतना दम नहीं है जितना ऊपर से दिखता है.
चीन एक प्रतिस्पर्द्धी
बाइडन के सार्वजनिक बयान काफी सख्त नज़र आते हैं, मगर वे उनके पूर्ववर्तियों की शीतयुद्ध वाली भाषा से काफी हल्के हैं जिसका इस्तेमाल वे चीन के मामले में अपनी नीति का खुलासा करने के लिए किया करते थे. बाइडन ने अपनी विदेश नीति के बारे में दूसरा जो बड़ा बयान वर्चुअल म्यूनिख सुरक्षा सम्मेलन में दिया उसमें उन्होंने चेताया कि चीन से “कड़ा मुक़ाबला” मिलने वाला है इसलिए यूरोप और एशिया को एकजुट हो जाना चाहिए और बीजिंग को अनुशासन में रखने की नीति अपनानी चाहिए. बाइडन की अधिकांश टिप्पणी विदेश नीति, अफगानिस्तान से किया वादा निभाने, इस्लामी तंत्र से लड़ने, जलवायु परिवर्तन, यूक्रेन के प्रति प्रतिबद्धता जताते हुए व्लादिमीर पुतिन पर तीखा कटाक्ष करने तक सीमित थी.
चीन के लिए ऐसा कुछ नहीं कहा गया
अपने पहले भाषण में बाइडन ने विदेश नीति पर बोलते हुए अपने “सबसे गंभीर प्रतियोगी” के लिए ऐसी ही भाषा का प्रयोग किया था, जबकि यह भी कहा था कि अमेरिका अपने हितों की खातिर चीन के साथ मिलकर काम करने को तैयार है. चीनी राष्ट्रपति को किए गए फोन में झिंजियांग का जिक्र करते हुए कोविड और जलवायु संकट का सामना करने में सहयोग, और जरूरी पड़ने पर “व्यावहारिक परिणाम-उन्मुख गतिविधियों” में शामिल होने का वादा भी किया गया. ताइवान और ‘आंतरिक मामलों’ को छोड़कर बीजिंग ने फोन पर दो घंटे हुई इस बातचीत को, जो कि असामान्य बात है खासकर बाइडन के मामले में, सकारात्मक रुख ही प्रदान किया. इसके अगले दिन चीन ने बीबीसी पर रोक लगा दी. यानी पूरा मामला उलझन में ही डालने वाला है.
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ज़मीन से जुड़ी नीति
अब जरा वास्तविक नीति पर विस्तार से नज़र डाल लें. पहली बात, अमेरिकी विदेश विभाग के मंत्री एंथनी लिंकेन ने ‘क्वाड’ (जिसमें भारत, ऑस्ट्रेलिया, और जापान भी शामिल हैं) के विदेश मंत्रियों से जो बात की उसके ब्योरे इस समूह की अहमियत की पुष्टि करते हैं. लेकिन इस तरह के पिछले बयानों के विपरीत इसमें चीन के बारे में कुछ नहीं कहा गया है. चार देशों में से केवल जापान ने चीन के खिलाफ साफ बातें की. भारत ऐसा कभी नहीं करता, ऑस्ट्रेलिया का बयान तो बेहद छोटा ही था और पिछले साल के बयान के मुक़ाबले और भी अस्पष्ट था. कहा जा सकता है कि बाइडन ने जापान के प्रधानमंत्री योशिहिदे सुगा को फोन करके सेंकाकु समेत जापान की सुरक्षा के प्रति जो प्रतिबद्धता जताई उसका काफी असर पड़ा. लेकिन साझा सुरक्षा की शर्त अंतर्निहित ही है और अमेरिका इससे शायद ही पीछे हटेगा. इसलिए इसे एक और मिश्रित प्रतिक्रिया ही कहा जा सकता है.
अमेरिकी विश्वविद्यालयों में चीन की पैठ
एक और नीतिगत परिवर्तन ज्यादा उत्सुकता पैदा करने वाला है. करीब 2018 से, अमेरिकी विश्वविद्यालयों में चीन की पैठ का मामला भारी विवाद पैदा करता रहा है. इसकी वजह से चार्ल्स लीबर सरीखे प्रसिद्ध वैज्ञानिक की गिरफ्तारी हुई, जबकि विश्वविद्यालयों के प्रोफेसरों का अमेरिकी संघ खासकर कन्फूसियस इंस्टीटयूट्स की भूमिका पर अरसे से सवाल उठाता रहा है. फेडरल ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टिगेशन (एफबीआइ) ने इस मसले को काफी गंभीरता से लिया और उसने विश्वविद्यालयों को विदेश से मिलने वाले फंड, और ‘थाउजेंड टैलेंट प्लान’ जैसे कार्यक्रमों में शिक्षकों की नियुक्ति का खुलासा करने पर ज़ोर दिया. लेकिन अब व्हाइट हाउस से जारी एक प्रशासनिक आदेश ने ‘कन्फूसियस इंस्टीटयूट्स और क्लासरूम्स के साथ उन छात्रों, और अतिथि शिक्षक बुलाने वाले प्रोग्राम सर्टिफ़ाएड स्कूलों के करारों का खुलासा करने की ज़रूरत’ खत्म कर दी है. यह आश्चर्यजनक है लेकिन इससे बीजिंग जरूर खुश होगा और एक बार फिर फंड की गठरी का मुंह खोल देगा.
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संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार संगठन
इसके अलावा यह घोषणा भी गौरतलब है कि अमेरिका संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार काउंसिल (यूएनएचआरसी) में फिर से शामिल होगा. 2018 में ट्रंप के दौर में अमेरिका इसके सदस्यों पर यह वाजिब आरोप लगाते हुए इससे अलग हो गया था कि वे खुद मानवाधिकर का उल्लंघन करते रहे हैं. बाइडन का एजेंडा यह है कि अमेरिका अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं में फिर से शामिल होकर उनमें अपना नेतृत्व बहाल करे और अपनी मौजूदगी जताए. यह अच्छी नीति है, लेकिन माना यह जाता है कि यूएनएचआरसी में बीजिंग का वर्चस्व तब से है जब पिछले साल उसे इस परामर्श समूह के लिए चुन लिया गया, जो अपने आप में एक विडंबना ही है.
अगस्त 2019 में भारत ने संविधान के अनुच्छेद 370 को रद्द कर दिया तो यूएनएचआरसी के दो विशेषज्ञों ने कश्मीर की स्वायत्तता खत्म किए जाने पर बयान दिया. चीन के पसंदीदा प्रस्ताव जिस तरह बिना विरोध के पारित हो जाते हैं उससे जाहिर है कि चीन का कितना असर है. अब चिंता यह जाहिर की जा रही है कि अमेरिका यूएनएचआरसी में फिर से शामिल हो जाएगा तो वहां अमेरिका और चीन के बीच संतुलन का खेल शुरू हो जाएगा और अमेरिका भी अपने हित आगे बढ़ाने की कोशिश करेगा.
जलवायु परिवर्तन
जलवायु परिवर्तन को बाइडन जिस तरह एक ‘संकट’ के रूप में ले रहे हैं वह स्वागत योग्य है. इस मामले में उन्होंने शुरुआती कदम उठाते हुए एक कमिटी का गठन किया, पर्यावरण के लिए घातक ‘कीस्टोन पाइपलाइन’ को रद्द किया, और पेरिस समझौते से फिर जुड़ने का फैसला किया. जलवायु के मामले में उनके विशेष दूत जॉन केरी ने कहा है कि जलवायु परिवर्तन समझौता अपने आप में एकदम अकेला मसला है जिसका चीन के मानवाधिकार उल्लंघनों से कोई सौदा नहीं किया जा सकता. इस पर चीन ने नाराजगी जाहिर की, लेकिन अमेरिका-चीन संबंधों पर प्रभावशाली नेशनल कमिटी (एनसीयूएससीआर) की हाल की बैठक में आला राजनयिक यांग जीशी ने इस मसले पर मजबूत सहयोग के लिए आगे का रास्ता सुझाया है.
जलवायु परिवर्तन पर किसी कार्रवाई में चीन की अनदेखी नहीं की जा सकती. इसकी कुछ वजह यह है कि दुनिया में गैसों का 25 फीसदी उत्सर्जन चीन में ही होता है, और एक वजह है भी है कि दुनिया की अर्थव्यवस्था पर उसका जो असर है वह चीन को जवाबदेह बनाता है. इसलिए केरी के बहादुराना शब्दों के बावजूद बाइडन को चीन से निबटना पड़ेगा क्योंकि वह अमेरिकी उद्योग जगत के ताकतवर हलके और एनसीयूएससीआर जैसे समूह— जिसके बोर्ड में हेनरी किसिंजर सरीखे पूर्व राजनयिक और व्यवसाय जगत के दिग्गज शामिल हैं—का इस्तेमाल करके सरकार पर टकराव की जगह सहयोग का रास्ता अपनाने का दबाव डालेगा.
आश्चर्य नहीं कि ‘चीनी खतरे’ को रेखांकित करते कई सरकारी और गैर-सरकारी दस्तावेज़ इधर चुपचाप जारी किए गए हैं. ऐसा एक दस्तावेज़ था चीन के खिलाफ ‘अवर्गीकृत गुप्त रणनीति’ संबंधी दस्तावेज़; और दूसरा था अज्ञात स्रोत से आया ‘लॉन्गर टेलीग्राम’ जिसमें यह बताया गया है कि आक्रामक चीन से कैसे निबटा जाए. इनके साथ, नौसेना में सेवा दे रहे वरिष्ठ अधिकारियों की ओर से चेतावनी को और पेंटागन के अंदर से आने वाली रिपोर्टों को भी जोड़ा जा सकता है.
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यहां ऐसी कोई सलाह नहीं दी जा रही है कि अमेरिका चीन के खिलाफ बेलाग आक्रामक हो जाए, लेकिन आशंका यह है कि कई घरेलू संकट से— जिनमें कोविड से लेकर भीड़ की हिंसा और राजनीतिक विभाजन तक शामिल हैं— जूझ रही डेमोक्रैट सरकार चीनी दुस्साहस से निबटने की स्पष्ट नीति लागू करने की जगह ‘सहयोग’ का रास्ता चुनने के लालच में फंस सकती है.
चीनियों के मामले मैं यह बहुत अच्छा रास्ता नहीं हो सकता है. जैसा कि ‘लॉन्गर टेलीग्राम’ लिखने वाले अज्ञात लेखक ने चेतावनी दी है, “अमेरिकी रणनीति में इस बात को कभी नहीं भूलना चाहिए कि जिस चीनी रणनीति को वह नाकाम करना चाहती है उसका स्वरूप कितना यथार्थफरक होता है.
चीनी नेता ताकतवर का सम्मान करते हैं और कमजोरों का तिरस्कार करते हैं. वे अपनी बात पर अडिग रहने वालों की इज्ज़त करते हैं और ढुलमुल लोगों का तिरस्कार करते हैं. यह बिलकुल साफ बात है. चीनियों के सामने बहाने मत बनाइए, सीधी बात कह डालिए. यह नहीं हो रहा है, फिलहाल तो नहीं ही हो रहा है. इंतजार मत कीजिए, अपनी तलवार पर सान चढ़ाकर रखिए.
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(लेखिका राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय की पूर्व निदेशक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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