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Thursday, 25 April, 2024
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1971 की जंग और क्यों बांग्लादेश और भारत के हित धर्मनिरपेक्षता में निहित हैं

मुजीबुर रहमान ने कहा था कि हमारी धर्मनिरपेक्षता धर्म के खिलाफ नहीं है. मुसलमान अपने धर्म का पालन कर सकते हैं. हिंदू भी अपने धर्म का. बौद्ध अपने धर्म का पालन करें. ईसाई अपने धर्म का. हमारी एकमात्र आपत्ति धर्म को राजनीतिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल करने को लेकर है.

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बांग्लादेश ने अभी हाल में अपनी आजादी के 50 साल पूरे किए हैं, इस वर्ष बांग्लादेश के संविधान को गणपरिषद की मंजूरी के 50 साल भी पूरे हुए हैं. वर्षगांठ मनाने के साथ-साथ यह इस बात को याद करने का भी एक अहम मौका है कि नए राष्ट्र के मार्गदर्शन के लिए कुछ वैचारिक सिद्धांतों को क्यों चुना गया.

उदाहरण के तौर पर धर्म-निरपेक्षता को अपनाना, जैसा बांग्लादेश के पहले कानून मंत्री कमल हुसैन ने 2018 में एक इंटरव्यू में मुझे बताया था कि 1971 के युद्ध के दौरान इस सिद्धांत की अहमियत को समझा गया. उस समय के प्राइम मिनिस्टर-इन-एक्साइल रहे ताजुद्दीन अहमद ने इस्लाम के नाम पर पूर्वी पाकिस्तान पर पाकिस्तान की दमनात्मक कार्रवाई के जवाब में इस सिद्धांत को तवज्जो दी. मई 1971 में घोषित एक 18-सूत्रीय राजनीतिक संदेश में ताजुद्दीन अहमद ने अपने हमवतन लोगों को बतौर बंगाली एकजुट होने की सलाह दी, और आह्वान किया कि वे धर्म, दल या श्रेणी के आधार पर विभाजित न हों. उनके निर्देशों पर ही बांग्लादेश बेतार नियमित रूप से कुरान, गीता, त्रिपिटका और बाइबिल के अंश प्रसारित करता था, जो गांधी के सर्व-धर्म समभाव को ही प्रतिध्वनित करता था.

पाकिस्तान के इस प्रोपेगैंडा कि यह जंग एक इस्लामी राष्ट्र को एकजुट रखने के लिए लड़ी जा रही है, के जवाब में ताजुद्दीन अहमद ने अरब देशों से बांग्लादेश के हितों के समर्थन का आह्वान किया. उनके ही शब्दों में ‘…याह्या खान के सैनिक इस्लामी अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं… एक जुनून-भरा यह विचार दुर्भाग्यपूर्ण है, (एक झूठ है). वह इस्लाम का इस्तेमाल जन-भावनाओं के खिलाफ जाने और लोगों के मानवाधिकारों पर कुठाराघात के लिए कर रहे हैं. बांग्लादेशी नेता मौलाना भशानी ने भी इसी तर्ज पर मिस्र के अनवर सादात और अरब लीग के अब्देल खलेक हसूना समेत दुनिया के तमाम नेताओं को पत्र लिखे और इसी बात पर खासा जोर दिया, ‘…इन सभी अकथनीय कृत्यों को एक मुस्लिम सेना की तरफ से एक बड़ी मुस्लिम आबादी के खिलाफ ही अंजाम दिया गया है.’


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हालांकि, इस्लाम के दुरुपयोग को लेकर पाकिस्तान के दोनों हिस्सों के बीच यह मतभेद युद्ध के समय पत्राचार तक ही सीमित नहीं था. 1956 में पाकिस्तान के पहले संविधान को अपनाने से पहले संविधान सभा की बहस के दौरान शेख मुजीबुर रहमान, जो पहले ही पाकिस्तानी जेलों में समय काट चुके थे, ने दलील दी कि बिना मुकदमे नजरबंद करना गैर-इस्लामी है. उन्होंने कुरान और सुन्ना का हवाला देते हुए विधानसभा को याद दिलाया, ‘किसी को भी बिना मुकदमे के दंडित नहीं किया जा सकता. अल्लाह भी बिना मुकदमे किसी को सजा नहीं देते. यदि मैंने कोई पाप किया है, तो इसके हिसाब-किताब के बाद मुझे नरक भेज दिया जाएगा. यदि मैंने भलाई की है, तो कर्मों के आधार पर मुझे जन्नत नसीब होगी. अब जरा देखिए कि ‘इस्लामिक संविधान’ क्या कहता है, ‘सार्वजनिक व्यवस्था और पाकिस्तान के हितों के नाम पर किसी को भी मुकदमा चलाए बिना ही हिरासत में लिया जा सकता है’.

मुजीब ने कराची यूनिवर्सिटी की ओर से छात्रों को दिए गए उन फॉर्मों को भी उपहास का विषय बताया जिसमें छात्रों से यह प्रतिबद्धता जताने को कहा गया था कि वे ऐसी किसी गतिविधि में शामिल नहीं होंगे जो ‘पाकिस्तान को कोई नुकसान पहुंचाने वाली या कराची यूनिवर्सिटी के खिलाफ पूर्वाग्रहपूर्ण हो.’ राष्ट्र को यह मानने का क्या अधिकार था कि छात्र राष्ट्र के विरोधी हैं? मुजीब के साथ-साथ एच.एस. सुहरावर्दी ने भी इस्लामी प्रावधानों का जोरदारी से विरोध किया, मसलन राष्ट्र को पाकिस्तान का ‘इस्लामिक गणराज्य’ नाम देना और राष्ट्र प्रमुख का पद किसी मुस्लिम के लिए आरक्षित करना.

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फिर भी, चौदह साल बाद जब चीफ मार्शल लॉ एडमिनिस्ट्रेटर जनरल याह्या खान ने घोषणा की कि लीगल फ्रेमवर्क ऑर्डर यानी देश के कानूनी ढांचे—जिसके तहत चुनाव होने थे—के पांच मूलभूत सिद्धांतों में से एक ‘इस्लामी विचारधारा का पालन करना है जो कि पाकिस्तान के निर्माण का आधार भी थी, तब अवामी लीग ने यह सिद्धांत स्वीकार कर लिया. लेकिन जंग के समय इस्लाम के नाम पर अत्याचारों ने उसे धर्म-निरपेक्षता की ओर रुख करने को प्रेरित किया. बहरहाल, बांग्लादेश के संस्थापकों के लिए धर्मनिरपेक्षता क्या मायने रखती थी?

‘हमारी धर्मनिरपेक्षता किसी धर्म के खिलाफ नहीं’

जंग के कुछ समय बाद ताजुद्दीन अहमद एक बौद्ध प्रतिनिधिमंडल से मिले. बांग्लादेश ऑब्जर्वर की एक रिपोर्ट के मुताबिक, प्रधानमंत्री ने घोषणा की कि बांग्लादेश एक ‘पूरी तरह धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र होगा जो हर धर्म को पूर्ण स्वतंत्रता सुनिश्चित करेगा. उन्होंने कहा कि राज्य कभी भी किसी भी धर्म के मामले में हस्तक्षेप नहीं करेगा, लेकिन साथ ही कहा कि किसी को भी धर्म के नाम पर लोगों के शोषण की अनुमति भी नहीं दी जाएगी.’ धर्मनिरपेक्षता पर बांग्लादेश की समझ को संविधान के अनुच्छेद-8 में कुछ इस तरह निहित किया गया है जिसका अर्थ है—’किसी भी रूप में सांप्रदायिकता अस्वीकार्य ही होगी, चाहे किसी धर्म के पक्ष में राजनीतिक स्थिति का दर्जा देना हो, राजनीतिक उद्देश्यों के लिए धर्म का दुरुपयोग हो; या किसी विशेष धर्म का पालन करने वाले व्यक्तियों के खिलाफ किसी भी तरह का भेदभाव, या उत्पीड़न.’ 1956 (और 1973) के पाकिस्तानी संविधानों के विपरीत बांग्लादेश के 1972 के संविधान में राष्ट्र प्रमुख का पद किसी मुसलमान के लिए आरक्षित नहीं किया गया था.

सबसे अहम बात यह है कि नए प्रधानमंत्री शेख मुजीबुर रहमान ने धर्म को हथियार बनाने के खिलाफ पूरी दृढ़ता से अपनी बात रखी. 4 नवंबर, 1972 को संविधान विधेयक पारित होने से पहले अपने अंतिम भाषण में उन्होंने इस बात को रेखांकित किया कि धर्मनिरपेक्षता का मतलब किसी धार्मिक प्रथा का विरोध करना नहीं है. उनकी एकमात्र आपत्ति राजनीतिक हथियार के तौर पर धर्म के दुरुपयोग को लेकर थी जैसा पिछले 25 वर्षों में हुआ था. उनका यह भाषण काफी ध्यान देने योग्य है, जिसमें उन्होंने कहा था:—

‘हमारी धर्मनिरपेक्षता धर्म के खिलाफ नहीं है. मुसलमान अपने धर्म का पालन कर सकते हैं—राष्ट्र के पास उन्हें रोकने की कोई ताकत नहीं है. हिंदू भी अपने धर्म का पालन कर सकते हैं—कोई उन्हें ऐसा करने से नहीं रोक सकता. बौद्ध अपने धर्म का पालन करें—कोई उन्हें रोकने वाला नहीं है. ईसाई अपने धर्म का पालन करें—इससे उन्हें भी कोई नहीं रोक सकता. हमारी एकमात्र आपत्ति धर्म को राजनीतिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल करने को लेकर है.

‘हमने 25 साल में धर्म के नाम पर चोरी, धर्म के नाम पर कुशासन, धर्म के नाम पर विश्वासघात, धर्म के नाम पर अत्याचार, धर्म के नाम पर हत्या और धर्म के नाम पर अन्याय देखा है. यह सब कुछ इसी बांग्लादेश की धरती पर हुआ है. धर्म पवित्र होता है. और अब राजनीतिक हथियार के तौर पर धर्म के इस्तेमाल करने की अनुमति नहीं दी जाएगी.’

धर्मनिरपेक्षता को धर्म के प्रति सम्मान का प्रतीक मानने वाले मुजीब अकेले नहीं थे. हमारे पास बतौर फोटोग्राफिक सबूत भी मौजूद हैं कि कैसे इस भाषण के कुछ ही मिनट बाद जब मौलाना तारकाबागीश ने कुरान का पाठ किया तो पूरी सभा ने दुआओं के लिए अपने हाथ उठा रखे थे.


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अब, जरूरत थी कि दुनियाभर के मुस्लिम नेताओं—जो बांग्लादेश को एक स्वतंत्र और संप्रभु राष्ट्र के तौर पर मान्यता देने के अनिच्छुक थे—को पूरी जोरदारी के साथ इस विचार से अवगत कराया जाए कि बांग्लादेशी धर्मनिरपेक्षता धार्मिक प्रथाओं का कोई विरोध नहीं करते हैं. कमाल हुसैन ने अपने संस्मरणों में उन वार्ताओं का जिक्र किया है, जिसके परिणामस्वरूप बांग्लादेश को पाकिस्तान की तरफ से औपचारिक मान्यता मिल पाई ताकि उसके प्रतिनिधि लाहौर में इस्लामी शिखर सम्मेलन के औपचारिक उद्घाटन समारोह में शामिल हो सकें. हुसैन ने पाकिस्तान में बांग्लादेश का राष्ट्रगान सुनने के दौरान के अपने अनुभव को भी साझा किया:—

लाहौर में हमारा आगमन निस्संदेह एक ऐतिहासिक क्षण था, जो भावनाओं से ओत-प्रोत था. बांग्लादेश का झंडा फहरा रहा था और जब गार्ड ऑफ ऑनर पेश किया गया, तो सैन्य बैंड ने आमार सोनार बांग्ला (बांग्लादेश का राष्ट्रगान) बजाना शुरू किया. चूंकि राष्ट्रगान के रूप में इस्तेमाल होने वाला संक्षिप्त संस्करण पाकिस्तान में उपलब्ध नहीं था, बैंड ने लगभग 20 मिनट तक राष्ट्रगान बजाया! यही नहीं, पाकिस्तान के सैन्य प्रमुखों ने जनरल टिक्का खान के साथ सावधान की मुद्रा में खड़े होकर बांग्लादेश के झंडे को सलामी दी. वहां पर मौजूद कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं होगा जिसने प्रतीकात्मक तौर पर इस व्यवहार और इसकी अहमियत को जाना-समझा न हो.

आमार सोनार बांग्ला की रचना रवींद्रनाथ टैगोर ने की थी, जिनके गीत को कुछ ही समय पहले इस्लाम विरोधी होने के कारण रेडियो पाकिस्तान पर प्रतिबंधित कर दिया गया था. उस समय की विडंबनाएं कुछ अलग ही थीं. हुसैन ने सऊदी अरब के किंग फैसल के साथ अपनी मुलाकात के बारे में भी विस्तार से बताया है:—

जैसा अनुमान लगाया गया था किंग फैसल ने धर्मनिरपेक्षता को लेकर सवाल उठाया है, और तब मुझे उस पृष्ठभूमि की व्याख्या का अवसर मिल गया जिसके आधार पर संविधान के प्रावधान निर्धारित किए गए थे…खुद को एक इस्लामिक राष्ट्र बताने वाला पाकिस्तान सालों से और खासकर 1971 में दमनात्मक कदम उठा रहा था, ऐसा करके उसने न केवल इस्लाम को बदनाम किया बल्कि देश को भी तबाह कर दिया. इसमें कोई दो-राय नहीं कि बांग्लादेश के मुसलमान भी पाकिस्तानियों की तरह ही धर्मनिष्ठ हैं, लेकिन, राजनीतिक उद्देश्यों के साथ धर्म के दुरुपयोग के बीच पाखंड और असहिष्णुता का अनुभव करने के बाद बांग्लादेश ने अपने संविधान में धार्मिक असहिष्णुता मुक्त वातावरण कायम करने वाले प्रावधान शामिल करने का फैसला किया. ये प्रावधान मुस्लिमों के पैगंबर की बेहतरीन परंपराओं को ध्यान में रखकर ऐसी स्थितियां बनाने की कोशिश थे जिसमें धार्मिक अल्पसंख्यक सुरक्षित महसूस करें, और नागरिक धर्म के नाम पर एक-दूसरे पर अत्याचार न करें. मुस्लिम बहुल बांग्लादेश में सांप्रदायिक सद्भाव और धार्मिक सहिष्णुता की एक परंपरा रही है, जिसमें अन्य समुदाय भी शांति से रह सकें.

शेख मुजीब ने 1973 में अल्जीयर्स में आयोजित गुटनिरपेक्ष शिखर सम्मेलन के दौरान मुअम्मर गद्दाफी से भी कुछ इसी तरह बात की. उन्होंने अपने सभी लोगों—मुस्लिमों और गैर-मुस्लिमों—के प्रति बांग्लादेश की प्रतिबद्धता को कुछ इस तरह जाहिर किया:—

हमारी धर्मनिरपेक्षता किसी धर्म के खिलाफ नहीं है. हमारी धर्मनिरपेक्षता सभी धर्मों के लोगों के बीच सद्भाव का प्रतीक है. यहां तक, कुरान की शुरुआत में अल्लाह को रब्बल अलमीन कहा गया है, जो सारी सृष्टि का स्वामी है, न कि रब्बल-मुसलमीन यानी केवल मुसलमानों का भगवान. यही वह भावना है जो हमारी धर्मनिरपेक्षता को रेखांकित करती है.

पड़ोसी देश भारत का क्या रहा रुख

युद्ध के दौरान की स्थितियों ने जिस तरह बांग्लादेश की समझ को बदला कि किस हद तक धर्म का दुरुपयोग किया जा सकता है, उसी तरह पड़ोसी देश भारत में भी बदलाव दिखा. भारतीय संसद में एक-एक करके उठे कांग्रेस पार्टी के सदस्यों ने बस यही उद्घोष किया कि भारतीय धर्मनिरपेक्षता की ताकत ही पाकिस्तान के विभाजनकारी ‘द्वि-राष्ट्र’ सिद्धांत को हरा सकती है; राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और जनसंघ की विभाजनकारी बयानबाजी पाकिस्तान को नहीं हरा सकती. बहस के दौरान नागपुर के एन.के.पी साल्वे ने आरएसएस के कामकाज के बारे में अपनी स्थानीय जानकारी के आधार पर कहा, ‘ऐसा कहा जाता है कि यह एक सांस्कृतिक संस्था है. लेकिन यह किस तरह की भारतीय संस्कृति है जो मुसलमानों, ईसाइयों के लिए खुली नहीं है? क्या ईसाइयों या मुसलमानों के बेटों के लिए चरित्र निर्माण जरूरी नहीं है?’

साल्वे ने जनसंघ और कांग्रेस के बीच दृष्टिकोण के अंतर को भी रेखांकित किया, ‘कहा जाता है कि जनसंघ बांग्लादेश की जीत और मुक्ति और बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम में भारत के योगदान से खुश है. निश्चित तौर पर आप खुश हैं और हम भी खुश हैं सिवाय इसके कि आपके कारण अलग हैं और हमारे कारण अलग हैं. हमारे लिए यह द्वि-राष्ट्र सिद्धांत और धर्मनिरपेक्ष आदर्शों के खिलाफ एक लड़ाई थी, जिसे हम अहमियत देते हैं. हमारी समझ से आपके लिए यह एक अलग तरह की लड़ाई थी. आप चाहते थे कि एक इस्लामिक राष्ट्र नष्ट हो जाए. ऐसा हुआ भी और इससे आप खुश हैं.’

अपनी भावनाएं जाहिर करते हुए साल्वे ने कहा, ‘पाकिस्तान के लोगों के लिए बहुत दुख होता है…आखिर पाकिस्तान के लोगों ने हमारा क्या बिगाड़ा है? वे तो एक बेहद खतरनाक व्यवस्था के शिकार हुए हैं.’ उन्होंने कहा कि जहां कांग्रेस बांग्लादेश की मुक्ति के बाद युद्ध जारी नहीं रखना चाहती थी, वहीं जन संघ का दृष्टिकोण भिन्न था. उन्होंने कहा, ‘इन सब वजहों से हमें यही लगता है कि बांग्लादेश में हमारी जीत पर आपकी सोच पूरी तरह से भिन्न हैं—दरअसल, यह उन कारणों के विपरीत हैं, जिन्हें हम बांग्लादेश की मुक्ति के मद्देनजर अहम मानते हैं.’ शासन वर्ग के एक खेमे ने पाकिस्तान के लोगों के प्रति साल्वे की भावना से सहमति भी जताई.

युद्ध के बाद के आत्मविश्वास से भरे और उद्देश्यपूर्ण महीनों में, और कांग्रेस पार्टी को पूर्ण बहुमत दिलाने वाले 1971 के आम चुनाव के बाद भारत की संसद ने भारतीय दंड संहिता की कुछ धाराओं में संशोधन किया, जो सांप्रदायिकता से लड़ने की इसकी क्षमता और अर्धसैनिक संगठनों को मजबूती देने वाली थीं और इससे किसी भी समुदाय या समूह की भारत के प्रति निष्ठा पर आरोप लगाना एक आपराधिक कृत्य बन गया. चार साल बाद, आपातकाल के दौरान संसद ने ‘धर्मनिरपेक्षता’ शब्द को संविधान की प्रस्तावना में शामिल करने के लिए इसमें संशोधन किया. हालांकि, केवल कोई शब्द आरएसएस की शाखाओं की प्रगति रोक नहीं सकता था जो धीरे-धीरे और पूरी दृढ़ता से भारत में अपनी जड़ें गहराई से जमाने में जुटी थीं.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(नीति नायर वर्जीनिया यूनिवर्सिटी में इतिहास पढ़ाती हैं. वह चेंजिंग होमलैंड्स: हिंदू पॉलिटिक्स एंड द पार्टिशन ऑफ इंडिया (हार्वर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस एंड परमानेंट ब्लैक, 2011) की लेखिका हैं. हार्वर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस द्वारा प्रकाशित उनकी नई किताब हर्ट सेंटिमेंट्स: सेक्युलरिज्म एंड बिलॉन्गिंग इन साउथ एशिया, 2023 में आने वाली है.)


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