राजनीतिक दृष्टि से बेहद संवेदनशील अयोध्या के राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद भूमि विवाद में उच्चतम न्यायालय में चल रही सुनवाई के बीच अचानक ही इसके सर्वमान्य समाधान के लिये फिर से मध्यस्थता का राग अलापने की घटना से ऐसा लगता है कि मानो एक ऐसा वर्ग है जो इस विवाद का समाधान नहीं चाहता है. सवाल उठता है कि आखिर इस विवाद के नहीं सुलझने से किसे लाभ होगा?
उच्चतम न्यायालय ने इस विवाद का सर्वमान्य समाधान खोजने के लिये ही शीर्ष अदालत के पूर्व न्यायाधीश एफएमआई कलीफुल्ला की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय समिति गठित की. जिसने स्वीकार्य किया कि वह अपने प्रयासों में असफल रही है. इस समिति में धर्मगुरू श्री श्री रविशंकर और मध्यस्थता कराने में दक्ष वरिष्ठ अधिवक्ता श्रीराम पांचू शामिल थे.
मध्यस्थता के लिये बनायी गयी समिति की रिपोर्ट के बाद ही प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगाई की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने 6 अगस्त से इलाहाबाद उच्च न्यायालय के सितंबर, 2010 के फैसले के खिलाफ दायर अपीलों पर सुनवाई शुरू की.
संविधान पीठ इस प्रकरण पर रोजाना सुनवाई कर रही है और वह आधे से ज्यादा रास्ता तय कर चुकी है. इस प्रकरण में शामिल प्रमुख हिंदू पक्षकार निर्मोही अखाड़ा और राम लला विराजमान की ओर से दलीलें पेश की जा चुकी हैं. इस समय सुन्नी वक्फ बोर्ड की ओर से दलीलें पेश की जा रही हैं.
ध्यान रहे कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 30 सितंबर, 2010 को अपने बहुमत के फैसले में विवादित 2.77 एकड़ भूमि सुन्नी वक्फ बोर्ड, निर्मोही अखाड़ा और राम लला विराजमान के बीच बराबर बराबर बांटने का आदेश दिया था. उच्च न्यायालय के इस आदेश पर उच्चतम न्यायालय ने मई, 2011 रोक लगा दी थी जो अभी तक बरकरार है. यही नहीं, अयोध्या में विवादित स्थल और उसके पास की अधिग्रहित भूमि पर जनवरी, 1993 की स्थिति के अनुसार यथास्थिति बनाये रखने का भी आदेश दिया था.
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इस प्रकरण की सुनवाई के बीच अचानक ही मध्यस्थता समिति का नाटकीय तरीके से प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ के समक्ष एक प्रतिवेदन देना समझ से परे है. मध्यस्थता समिति ने इस प्रकरण में कुछ हिंदू और मुस्लिम हितधारकों के अनुरोध पर न्यायालय से इसके लिये आवश्यक निर्देश मांगे हैं. लेकिन आधी से अधिक सुनवाई पूरी हो जाने के बाद अचानक इस तरह की पहल से ऐसा महसूस होता है कि कुछ संगठन अपने राजनीतिक हितों की खातिर इस विवाद को लटकाये रखना चाहते हैं.
यह भी दिलचस्प है कि सुन्नी वक्फ बोर्ड संविधान पीठ के समक्ष एक ओर बहस कर रहा है और दूसरी ओर नये सिरे से मध्यस्थता भी चाहता है. मध्यस्थता समिति से अनुरोध करने वालों में सुन्नी वक्फ बोर्ड के अलावा एक निर्वाणी अखाड़ा भी है.
शीर्ष अदालत ने आठ मार्च को न्यायमूर्ति कलीफुल्ला की अध्यक्षता में मध्यस्थता समिति गठित की थी. जिसने फैज़ाबाद में बंद कमरे में इस विवाद का सर्वमान्य हल खोजने के लिये विभिन्न हितधारकों से बातचीत की थी.
अंततः प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई ने दो अगस्त को न्यायालय को सूचित किया कि मध्यस्थता समिति इस विवाद का सर्वमान्य समाधान खोजने में असफल रही है, इसलिए अब उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ दायर 14 अपीलों पर 6 अगस्त से सुनवाई होगी. हालांकि प्रधान न्यायाधीश ने स्पष्ट किया था कि इस समिति की रिपोर्ट का विवरण गोपनीय ही रहेगा.
यह भी एक दिलचस्प तथ्य है कि शीर्ष अदालत में एक विवाद पर नियमित सुनवाई शुरू होने के बाद से ही इसके पूरा होने और समय से फैसला आने के बारे में कयास लगाये जा रहे थे क्योंकि प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई 17 नवंबर को सेवानिवृत्त हो रहे हैं.
इस मामले की सुनवाई कर रही प्रधान न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ के पास सप्ताह के सभी पांच कार्य दिवसों में बहस सुनने की स्थिति में सिर्फ 58 दिन ही उपलब्ध थे . संविधान पीठ के पास अभी 29 दिन बचे हैं. इसी दौरान उसे सुनवाई पूरी करके अपना फैसला सुनाना है.
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ऐसी स्थिति में अचानक ही नये सिरे से मध्यस्थता की बात करने से यही लगता है कि सुन्नी वक्फ बोर्ड और निर्वाणी अखाड़ा जैसी संस्थाएं इस विवाद का हल नहीं चाहते हैं.
कुछ इसी तरह घटना 2017 में तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा के कार्यकाल के दौरान भी हुई थी. उस समय सुन्नी वक्फ बोर्ड और बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी ने इन अपीलों पर 2019 के लोकसभा चुनावों के बाद सुनवाई करने का अनुरोध किया था.
न्यायालय में उस समय इस संगठनों की ओर से कहा गया था कि सुनवाई स्थगित नहीं होने की स्थिति में वे न्यायिक कार्यवाही का बहिष्कार करेंगे. न्यायालय में यह सवाल भी उठाया गया था कि इसकी सुनवाई की ‘जल्दी’ क्या है?
तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पीठ के समक्ष संप्रग सरकार में कानून मंत्री रह चुके कपिल सिब्बल और वरिष्ठ अधिवक्ता राजीव धवन और दुष्यंत दवे के तेवरों से कुछ ऐसा संकेत मिल रहा था कि मानों उनकी दिलचस्पी दशकों से कानूनी लड़ाई में उलझे इस विवाद के शीघ्र समाधान की बजाय इसे लंबे समय तक लटकाये रखने में अधिक है. ऐसा क्यों था, इसके बारे में ये तीनों वरिष्ठ अधिवक्ता और उनके मुवक्किल बेहतर जानते होंगे.
बहरहाल, अनेक गतिरोधों और उतार चढ़ाव के बीच इस विवाद की सुनवाई किसी न किसी वजह से लोकसभा चुनावों तक नहीं हो सकी और इसके बाद इस साल मार्च में प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई ने इस प्रकरण का सर्वमान्य समाधान खोजने के लिये मध्यस्थता समिति गठित की जो इस प्रक्रिया में असफल हो गयी थी.
मध्यस्थता समिति के असफल होने के बाद संविधान पीठ जब सारे प्रकरण पर सुनवाई कर रही है. इस दौरान वेद पुराणों से लेकर बाबरनामा, आईने-अकबरी और जहांगीर-नामा तथा अंग्रेजों के शासनकाल में आए कारोबारियों के यात्रा संस्मरणों का विस्तार से हवाला दिया जा चुका है.
ऐसी स्थिति में अचानक ही मध्यस्थता का मुद्दा बीच में उठने का औचित्य समझ से परे है. सवाल उठता है कि सुन्नी वक्फ बोर्ड और निर्वाणी अखाड़ा ने मध्यस्थता के माध्यम से समाधान खोजने के लिये न्यायालय से अनुरोध करने की बजाय पूर्व न्यायाधीश कलीफुल्ला की समिति से आग्रह क्यों किया? यदि इन संगठनों ने समिति से अनुरोध किया भी तो क्या मध्यस्थता समिति को न्यायालय को सूचित करना पर्याप्त नहीं था?
यह भी समझ में नहीं आया कि मध्यस्थता समिति, जो कोई भी सकारात्मक नतीजे पर पहुंचने में विफल रही, का अचानक ही संविधान पीठ से आवश्यक निर्देश मांगने का क्या औचित्य था?
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इस ताजा घटनाक्रम से ऐसा आभास होता है कि अयोध्या प्रकरण से जुड़े कुछ संगठन प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ के समक्ष चल रही सुनवाई को पटरी से उतारना चाहते हैं. ऐसा आभास होने की वजह यह है कि अगर सुनवाई रुक गयी और मामला फिर से मध्यस्थता के लिये सौंप दिया गया तो इसका फैसला न्यायमूर्ति गोगोई के कार्यकाल में नहीं आ सकेगा.
न्यायमूर्ति गोगोई 17 नवंबर को सेवानिवृत्त हो रहे हैं और उनके बाद दूसरे वरिष्ठतम न्यायाधीश न्यायमूर्ति एस ए बोबडे प्रधान न्यायाधीश बनेंगे. ऐसी स्थिति में नये प्रधान न्यायाधीश को इस विवाद के लिये नये सिरे से पीठ का गठन करना होगा और इस तरह इन अपीलों पर सुनवाई फिर कुछ महीनों या साल के लिये टल जायेगी.
संविधान पीठ अगर मध्यस्थता समिति को नये सिरे से इस विवाद का सर्वमान्य समाधान खोजने की अनुमति देती है तो निश्चित ही यह एक बहस का मुद्दा होगा कि आखिर कौन सी ताकतें हैं जो एक सदी से भी अधिक पुराने इस विवाद को लटकाये रखना चाहती हैं.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं .जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं. इस लेख में उनके विचार निजी हैं)