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Saturday, 2 November, 2024
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आईटी कानून की रद्द की जा चुकी धारा 66ए के तहत मुकदमे दर्ज होने के लिये कौन है जिम्मेदार

धारा 66ए निरस्त किये जाने के बावजूद इसके तहत मामले दर्ज होने की जानकारी मिलने पर देश की शीर्ष अदालत भी हतप्रभ है. न्यायालय भी जानना चाहता है कि आखिर ऐसा कैसे हो रहा है.

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क्या न्यायपालिका द्वारा कानून के किसी प्रावधान को निरस्त किये जाने के बावजूद पुलिस इसके तहत मुकदमा दायर कर सकती है? इसका सीधा जवाब है, नहीं. लेकिन सूचना प्रौद्योगिकी कानून की धारा 66ए के मामले में ऐसा नहीं है. सुप्रीम कोर्ट द्वारा मार्च 2015 में धारा 66ए को निरस्त किये जाने के बावजूद विभिन्न राज्यों की पुलिस धड़ल्ले से इस धारा के तहत मामले दर्ज कर रही है और ये मामले अदालत में भी पहुंच रहे हैं.

धारा 66ए निरस्त किये जाने के बावजूद इसके तहत मामले दर्ज होने की जानकारी मिलने पर देश की शीर्ष अदालत भी हतप्रभ है. न्यायालय भी जानना चाहता है कि आखिर ऐसा कैसे हो रहा है.

किसी कानून के निरस्त किये गये प्रावधान के तहत मुकदमे दर्ज होने के बारे में केन्द्र सरकार पुलिस व्यवस्था को राज्य का विषय बताते हुए अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ने का प्रयास कर रही है. केन्द्र के इस रवैये को किसी भी तरह से उचित नहीं ठहराया जा सकता.


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धारा 66ए और गृह मंत्रालय का आदेश

शीर्ष अदालत की फटकार के बाद अब गृह मंत्रालय ने 15 जुलाई को सभी राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों को सूचना प्रौद्योगिकी कानून की निरस्त की जा चुकी धारा 66ए के तहत मामले दर्ज नहीं करने के बारे में परामर्श जारी किये हैं. केन्द्र ने सभी राज्य सरकारों को इस धारा के तहत दर्ज मामलों को तत्काल प्रभाव से वापस लेने का भी निर्देश दिया है.

सवाल यह है कि न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद ही केन्द्रीय गृह मंत्रालय हरकत में क्यों आया? पिछले छह साल से गृह मंत्रालय ने इस ओर ध्यान क्यों नहीं दिया. केन्द्र की ओर से यह कहना पर्याप्त नहीं है कि इस कानून की धारा को निरस्त किये जाने का जिक्र सूचना प्रौद्योगिकी कानून के फुटनोट में किया गया है.

एक दिलचस्प तथ्य यह है कि वर्ष 2000 में बनाये गऐ सूचना प्रौद्योगिकी कानून में संप्रग सरकार के कार्यकाल में 2009 में संशोधन करके धारा 66ए शामिल किया गया. यह धारा 27 अक्टूबर, 2009 से देश में प्रभावी हुयी.

धारा 66A कहती थी कि अगर कोई व्यक्ति कंप्यूटर या फिर किसी अन्य संचार उपकरण के माध्यम से कोई आपत्तिजनक ऐसी जानकारी प्रेषित करता है जो चरित्रहनन करने वाली हो या फिर झूठी हो या दूसरे को परेशान करने वाली हो तो यह दंडनीय अपराध होगा और इसके लिए दोषी व्यक्ति को तीन साल तक की कैद और जुर्माने की सजा हो सकती थी.

इस कानून की धारा 66ए के दुरुपयोग का मामला पहली बार संभवत: तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी के एक कार्टून को साझा करने वाले जादवपुर विश्वविद्यालय की अप्रैल, 2012 में गिरफ्तारी के साथ चर्चा में आया था. इसके बाद मई, 2012 में एयर इंडिया के केबिन क्रू के दो सदस्यों को प्रधानमंत्री के बारे में अशोभनीय मजाक और राष्ट्रीय ध्वज का अनादर करने के आरोप में गिरफ्तारी हुयी.

लेकिन सूचना प्रौद्योगिकी कानून के दुरुपयोग के मामले ने सितंबर, 2012 के बाद तूल पकड़ा जब एक व्यंग्यकार असीम त्रिवेदी को संसद को लेकर एक कार्टून फेसबुक पर पोस्ट करने के मामले में गिरफ्तार कर लिया गया.

इसके कुछ समय बाद ही कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम के पुत्र कार्ति चिदंबरम द्वारा कथित रूप से रॉबर्ट वाड्रा से ज्यादा संपत्ति अर्जित करने के बारे में अक्टूबर, 2012 में पुडुचेरी के एक कारोबारी को गिरफ्तार किया गया.

यही नहीं, नवंबर, 2012 में शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे के अंतिम संस्कार के दौरान मुंबई बंद के आयोजन को लेकर सोशल मीडिया पर लिखी पोस्ट के संबंध में दो लड़कियों की गिरफ्तारियों की घटना ने भी धारा 66ए के दुरुपयोग की गंभीरता को उजागर किया.

इसके साथ ही कानून की छात्रा श्रेया सिंघल ने धारा 66ए की संवैधानिक वैधता को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी और इसमें दलील दी कि इस प्रावधान से संविधान के अनुच्छेद 19 (1) के तहत नागरिकों को प्राप्त अभिव्यक्ति की आजादी का हनन हो रहा है. इसके बाद न्यायालय में कई अन्य याचिकाएं भी दायर हुयीं.

उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति जे चेलामेश्वर और न्यायमूर्ति आर एफ नरिमन की पीठ ने SHREYA SINGHAL VS UNION OF INDIA में 24 मार्च 2015 को अपने फैसले में धारा 66ए को असंवैधानिक घोषित किया और कहा कि यह संविधान के अनुच्छेद 19 (1)(ए) के तहत नागरिकों को प्राप्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का हनन करती है.


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कुछ नहीं बदला

गैर सरकारी संगठन पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) ने धारा 66ए के तहत मामले दर्ज किये जाने की ओर शीर्ष अदालत का ध्यान आकर्षित किया था. इसी के आधार पर न्यायालय ने 15 फरवरी, 2019 को एक बार फिर निर्देश दिया कि इस फैसले की प्रति प्रत्येक उच्च न्यायालय और जिला अदालतों के साथ ही राज्यों में पुलिस विभाग को उपलब्ध करायी जाये. लेकिन ऐसा लगता है कि इसके बावजूद स्थिति में कोई विशेष बदलाव नहीं आया.

पीयूसीएल के अनुसार आज भी धारा 66ए के तहत विभिन्न राज्यों में पुलिस ने एक हजार से ज्यादा मामले दर्ज कर रखे हैं. इनमें से कई मामलों में लोगों को गिरफ्तार भी किया गया है. शीर्ष अदालत को यह भी बताया गया है कि इस धारा के तहत दर्ज मामलों की निचली अदालतें सुनवाई कर रही हैं.

इस संगठन ने न्यायालय से अनुरोध किया है कि उच्च न्यायालयों के माध्यम से प्रत्येक जिला अदालत में शीर्ष अदालत का मार्च 2015 का फैसला भेजने का निर्देश दिया जाए ताकि किसी भी व्यक्ति को अनुच्छेद 21 के तहत प्राप्त दैहिक स्वतंत्रता के अधिकार से वंचित नहीं होना पड़े.

कानून की किताब से निकाली जा चुकी इस धारा के तहत छह साल बाद भी मुकदमे दर्ज होने और अदालतों में इनकी सुनवाई होने जैसे तथ्य समूची व्यवस्था की पोल खोल रही है.

एक ओर पुलिस इस प्रावधान का दुरुपयोग करके जग हंसाई करा रही है तो दूसरी ओर अभियोजन विभाग और फिर निचली अदालत के न्यायिक अधिकारी भी मौलिक अधिकारों की रक्षा से संबंधित न्यायिक व्यवस्थाओं के प्रति अपनी अनभिज्ञता का परिचय दे रहे हैं.

स्थिति की गंभीरता को देखते हुये अब शीर्ष अदालत ने सभी राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों के साथ ही सभी उच्च न्यायालयों के रजिस्ट्रार जनरल से इस बारे में जवाब मांगा है. न्यायालय जानना चाहता है कि आखिर मौलिक अधिकारों से संबंधित इतने महत्वपूर्ण फैसले के बारे में पुलिस और दूसरे तंत्र को संवेदनशील क्यों नहीं बनाया गया.

चूंकि न्यायालय महसूस करता है कि यह मौलिक अधिकारों के हनन से संबंधित महत्वपूर्ण मामला है, इसलिए उसे धारा 66ए के तहत मुकदमों का सामना कर रहे और गिरफ्तार हुए व्यक्तियों को समुचित मुआवजा दिलाने तथा इस फैसले को नजरअंदाज करके निर्दोष व्यक्तियों के खिलाफ मुकदमे दर्ज करने के लिये जिम्मेदार पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों के खिलाफ उचित कार्रवाई करने पर भी विचार करना चाहिए ताकि भविष्य में पुलिस और प्रशासन इस तरह की गंभीर गलती नहीं करें.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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