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Saturday, 16 November, 2024
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कौन रच रहा है चीफ जस्टिस के खिलाफ साजिश?

जस्टिस रंजन गोगोई चीफ जस्टिस के पद पर आसीन हैं और एक महिला जूनियर कोर्ट असिस्टेंट द्वारा लगाया गया यौन उत्पीड़न व प्रताड़ना का आरोप झेल रहे हैं, तो भी लगता है कि न्यायालय के अंदरूनी हालात सुधरने के बजाय और विकट हो गये हैं.

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अभी पिछले साल बारह जनवरी की बात है. सर्वोच्च न्यायालय के चार वरिष्ठ जजों ने न्यायालय के तत्कालीन चीफ जस्टिस न्यायमूर्ति दीपक मिश्र की रीति-नीति के खिलाफ ‘बगावत’ कर एक तरह से न्यायपालिका को ही कठघरे में खड़ा कर दिया था. अपना असंतोष जताने के लिए संवाददाता सम्मेलन बुलाने जैसा अभूतपूर्व कदम उठाते हुए उन्होंने कहा था कि न्यायालय सही तरीके से काम नहीं कर रहा, जिससे देश का लोकतंत्र खतरे में है.

तब, उनके अनुसार न्यायालय में ढेर सारी अनियमितताएं हो रही थीं, जिन्हें लेकर उनके द्वारा कोई दो महीने पहले चीफ जस्टिस को लिखे पत्र को भी नक्कारखाने में तूती की आवाज़ बना डाला गया था. यकीनन, तब न्यायालय की प्रतिष्ठा को ही गम्भीर झटका नहीं लगा था, पहली बार यह बात उसके परिसर से बाहर गई थी कि देश की न्याय व्यवस्था के शीर्ष पर सब कुछ ठीक नहीं है. अनेक देशवासियों के लिए यह किसी गम्भीर अनिष्ट से कम नहीं था क्योंकि सरकारों के मामले में भले ही उनके पास विकल्पों की कमी नहीं होती, पांच साल बाद वे उनमें से एक को हटाकर दूसरी चुन सकते हैं, न्याय व्यवस्था का कोई विकल्प नहीं है.


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बहरहाल, हड़कम्पों के बीच और कुछ देर के लिए ही सही, उस वक्त उक्त जजों की बगावत रंग लाती दिखी थी और डैमेज कंट्रोल के तौर पर जो प्रयास किये गये थे, उनसे लगा था कि आगे चलकर न्यायालय अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा जल्दी ही नये सिरे से हासिल कर लेगा. साथ ही अपनी अंदरूनी व्यवस्था को इस तरह ढर्रे पर ले आयेगा कि इस तरह की अप्रिय स्थितियां पैदा ही नहीं होंगी.

लेकिन अब, जब तत्कालीन चीफ जस्टिस दीपक मिश्र ही नहीं, दो ‘बागी’ जस्टिस चेलमेश्वर व जस्टिस कुरियन जोसेफ भी सेवानिवृत्त हो चुके हैं, तीसरे जस्टिस रंजन गोगोई चीफ जस्टिस के पद पर आसीन हैं और एक महिला जूनियर कोर्ट असिस्टेंट द्वारा लगाया गया यौन उत्पीड़न व प्रताड़ना का आरोप झेल रहे हैं, तो भी लगता है कि न्यायालय के अंदरूनी हालात सुधरने के बजाय और विकट हो गये हैं. खुद चीफ जस्टिस के ही शब्द हैं-‘न्यायपालिका खतरे में है.’

यहां फिलहाल, अभी इस पचड़े में पड़ने की आवश्यकता नहीं महसूस होती कि जूनियर कोर्ट असिस्टेंट का आरोप सच्चा है या झूठा, सम्बन्धित एजेंसियां निष्पक्ष होकर कर्तव्यनिष्ठा से जांच करेंगी तो दूध का दूध और पानी का पानी होने में देर नहीं लगेगी. चीफ जस्टिस के यह एलान कर देने के बावजूद कि वे पद पर बने रहेंगे और महत्वपूर्ण मामलों की सुनवाई से भी खुद को अलग नहीं करेंगे, यह उम्मीद अपनी जगह कायम है कि सार्वजनिक व व्यक्तिगत नैतिकताओं के मद्देनज़र एक न एक दिन वे अपने विवेक से खुद निर्धारित कर लेंगे कि क्या अभियुक्त के तौर पर उनका पद पर बने रहना न्यायिक आदर्शों और मामले की निष्पक्ष जांच के हित में है? वे कोई राजनीतिक नेता नहीं हैं कि पहले उनके इस्तीफे की मांगें की जायें फिर वे उनके परिप्रेक्ष्य में कोई कदम उठायें.


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यहां यह भी गौरतलब है कि किसी न्यायाधीश पर ऐसे आरोप चस्पां किये जाने का यह कोई पहला मौका नहीं है. इससे पहले भी कई न्यायाधीशों की सहायिकाएं व नौकरानियां आदि उन पर ऐसे लांछन लगा चुकी हैं. लेकिन ऐसे किसी भी मामले में किसी न्यायाधीश को सज़ा सुनाये जाने की अभी तक एक भी मिसाल नहीं है. शायद यही कारण है कि आज उनमें से कोई भी इस कांड के पक्ष या प्रतिपक्ष में कुछ बोलने को तैयार नहीं है.

लेकिन दूसरे पहलू पर जायें तो यौनाकर्षण सृष्टि का आधार है और इतिहास गवाह है कि कोई भी पद, उसकीआज की तारीख में देश के सात-सात धर्माचार्य जेलों की सलाखों के पीछे अपने यौन अपराधों का खामियाजा न भुगत रहे होते. हां, चीफ जस्टिस का यह कहना सही है कि उनकी दो दशकों की न्यायिक सेवा निष्कलंक रही है और इससे पहले उन पर किसी ने ऐसा कोई आरोप नहीं लगाया. ऐसे में इंसाफ का एक यह सिद्धांत भी याद रखना ही होगा कि जब तक आरोप असंदिग्ध रूप से सिद्ध न हो जाये, अभियुक्त को उसकी सज़ा नहीं दी जा सकती. अलबत्ता, मीडिया ट्रायल से आमतौर पर उसका बचाव संभव नहीं होता.

लेकिन इस बात का क्या किया जाये कि चीफ जस्टिस ने खुद पर इस आरोप के संदर्भ में ‘बड़ी साजिश’ की बात कहकर खुद ही उसे गम्भीर बना दिया है. उनके इस कथन के बारे में भी अभी यह निर्धारित होना बाकी है कि वह वास्तविकता है या सफाई, लेकिन जैसा वे कह रहे हैं, अगर अगले सप्ताह न्यायालय में होने जा रही कुछ महत्वपूर्ण मामलों की सुनवाई प्रभावित करने के लिए उन पर षडयंत्रपूर्वक ऐसा आरोप लगाया या लगवाया गया है, क्योंकि ‘पैसे के मामले में उन पर उंगली नहीं उठाई जा सकती थी’ और इसके पीछे कोई एक नहीं बल्कि कई ऐसे व्यक्ति हैं, जो पहले जेल में थे और अब उससे बाहर हैं, तो इन षडयंत्रकारियों के चेहरों और मन्सूबों से नकाब उठनी ही चाहिए.

उसकी टाइमिंग को लेकर उठाये जा रहे सवालों को भी उनकी तार्किक परिणति तक ले जाया जाना चाहिए. अगर पीड़िता का यह यौन उत्पीड़न पिछले साल हुआ तो वह अब तक चुप्पी क्यों साधे हुए थी और उसने हलफनामे के लिए यही वक्त क्यों चुना? इसके साथ ही देश को यह जानने का हक भी है ही कि क्या इस तरह चीफ जस्टिस पर आरोप लगाये जाने मात्र से देश की सबसे बड़ी अदालत की निर्णय प्रक्रिया को बाधित किया जा सकता है? यह सवाल इसलिए भी तार्किक उत्तर की मांग करता है कि सर्वोच्च न्यायालय के फैसले कोई व्यक्ति नहीं बल्कि न्यायिक पीठें करती हैं और कई बार उनमें कई-कई सदस्य होते हैं.


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चीफ जस्टिस की ही मानें तो इस मामले में चीजें बहुत आगे बढ़ चुकी हैं. ऐसे में न्याय व्यवस्था में जनता के विश्वास को बनाये रखने के लिए बेहतर यही होगा कि उनके खिलाफ यौन उत्पीड़न के आरोप के साथ ही उस ‘बड़ी साजिश’ की भी सम्यक जांच हो, जिसके निशाने पर महज चीफ जस्टिस नहीं बल्कि न्यायालय की समूची प्रक्रिया है. ऐसा नहीं हुआ तो अभी जो बदनामी बरबस गले आ पड़ी है, उसके दिये कलंक से पिंड छुड़ाना बहुत मुश्किल हो जायेगा और कौन जाने, वे अमिट होकर ही रह जायें. इस मामले में सबसे बड़ा सवाल दरअसल, यही है कि क्या उसे उसकी तार्किक या कि स्वाभाविक परिणति तक पहुंचने दिया जायेगा?

(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं)

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