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Saturday, 20 April, 2024
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राजनीति ईमानदार चेहरों की पहचान पुख्ता नहीं होने देती, न ही उनको मुकम्मल जहां मिलने देती है!

भगौती प्रसाद ने राजनीति को धनोपार्जन का साधन नहीं बनाया था, इसलिए जल्दी ही उन्हें इसकी कीमत भी चुकानी पड़ी.

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उत्तर प्रदेश के बहराइच जिले में भारतीय जनता पार्टी के एक दलित नेता थे- भगौती प्रसाद. राजनीति की काजल की कोठरी में रहकर भी वे अपनी मिसाल आप थे न कभी बद हुए और न ही बदनाम. खुद को दलित का बेटा कहकर अपने भाई-बंधुओं से इमोशनल अत्याचार करके उस कोठरी में जमे रहने की कोशिश भी नहीं की. राजनीति में ईमानदारी, उसके नैतिक स्वरूप, उसूलों व सिद्धांतों के लिए अपना समूचा जीवन देने के बाद अपने अंचल की सामाजिक कृतघ्नता की कीमत चुकाने को अभिशप्त हुए तो भी. अत्यंत दारुण परिस्थितियों के बीच दुनिया से गये तो भी आधी-अधूरी खबर ही बना सके! उनकी पार्टी भाजपा ने भी कभी उसे पूरी करने की कोशिश नहीं की. आज की तारीख में अमित शाह और नरेन्द्र मोदी की होकर तो वह भगौती प्रसाद की कर्मभूमि बहराइच में भी न उन्हें अपनी परम्परा का अंग मानती है, न विरासत का और न ही अपने पूर्वजों या पुरखों में शुमार करती है.

आज की मूल्यहीन राजनीति वैसे भी अपनी कोठरी में ईमानदार चेहरों की पहचान पुख्ता नहीं होने देती, न ही उनको मुकम्मल जहां मिलने देती है!

बहरहाल, बहराइच जिले के इकौना विधानसभा क्षेत्र की जनता ने 1967 में भगौतीप्रसाद को जनसंघ का विधायक चुना तो वे उसके दीपक की बाती हुआ करते थे यानी नींव की ईंट. उन्होंने 1964 में इस पार्टी के बहुचर्चित पूर्व सांसद के. के. नैयर के साथ अपना राजनीतिक सफर शुरू किया. ये के. के. नैयर वही थे, जिन्होंने फैजाबाद में जिलाधिकारी रहते हुए 22-23 दिसम्बर, 1949 की रात अयोध्या स्थित बाबरी मस्जिद में जबरन मूर्तियां रखने के कट्टरपंथियों के षडयंत्र को शह व समर्थन देने में अपनी स्थिति का भरपूर दुरुपयोग किया.


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लेकिन उनके विपरीत भगौती प्रसाद के पास खोने के लिए गरीबी को छोड़कर कुछ नहीं था. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के सादगी भरे जीवन व विचारधारा से बहुत गहरे तक प्रभावित होने के बावजूद वे खुद को उनकी वारिस कहने वाली कांग्रेस पार्टी से नहीं जुड़े, क्योंकि उनको लगता था कि उसने राष्ट्रपिता का रास्ता छोड़ दिया है. 1967 में जनसंघ ने उन्हें चुनाव लड़ाना चाहा और गरीबी रास्ता रोकने चली तो उन्होंने 1800 रुपयों में अपनी एकमात्र भैंस बेंच दी और उतने से कुछ कम में ही अपनी उम्मीदवारी का प्रचार करके जीत गये. इस जीत की इमारत की एक-एक ईंट उन्होंने खुद अपनी जनसेवा से जुटाई क्योंकि तब कोई रामलहर या मोदी लहर उनकी मदद को उपस्थित नहीं थी.

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हां, वह डाॅ. राममनोहर लोहिया के गैर-कांग्रेसवाद का दौर था, जिसमें भगौती प्रसाद ने 1969 के विधानसभा चुनाव में भी अपनी जनता का विश्वास नहीं खोया था. जब तक विधायक रहे, वे अपने क्षेत्र की समस्याओं के समाधान की ही चिंता करते रहे. अपने या अपने परिवार के लिए भूमि, भवन, संपदा या वाहन के जुगाड़ में नहीं लगे. जीप या कार खरीदने की हैसियत नहीं थी, सो इकौना से राजधानी लखनऊ तक की यात्रा वे आम यात्रियों की तरह बस या रेल से ही किया करते थे.

लेकिन बाद में राजनीति में, जनसंघ या भाजपा में भी, कुछ दूसरी ही तरह के सिक्के चलने लगे. भगौती प्रसाद ने पाया कि वे उन सिक्कों को प्रचलन से बाहर नहीं कर पा रहे, तो उनके दूषित प्रवाह में बहने की बेबसी को अंगीकार करने के बजाय किनारा कस लेना बेहतर समझा.

चूंकि उन्होंने राजनीति को धनोपार्जन का साधन नहीं बनाया था, इसलिए जल्दी ही उन्हें इसकी कीमत भी चुकानी पड़ी. राम लहर पर सवार होकर भाजपा सत्ता की ऊंचाइयों तक पहुंची और उसके नेता लग्जरी कारों में नजर आने लगे तो भगौती प्रसाद गुजर-बसर के लिए चाय व चने बेचने को अभिशप्त थे. अपनी खुद्दारी की रक्षा के लिए उन्होंने पूरे दस साल तक ऐसा किया.

कोई उनसे उनके बाद उनकी सीट पर चुने गये विधायक के पांच-पांच पेट्रोलपम्पों का जिक्र करता तो वे मुसकराते हुए कहते-मेरे पास ईमानदारी की दौलत है जो उसके पास नहीं है. बहुत से दूसरे लोगों के पास भी नहीं है.

उत्तर प्रदेश में 1990 के बाद एक ऐसा भी दौर आया जब कई भाजपा नेता ‘हुकूमत चंद हफ्तों की महल मीनार से ऊंचा’ जैसी पंक्तियों को सार्थक करने लगे. लेकिन न भगौती प्रसाद ने किसी से कुछ मांगा, न किसी ने उनकी सुध ली. अलबत्ता 2006 में मुलायम सिंह यादव ने अपने मुख्यमंत्रीकाल में उन्हें एक लाख रुपयों की आर्थिक सहायता दिलाई थी. लेकिन उनकी बदहाली को देखते हुए वह ऊंट के मुंह में जीरा ही सिद्ध हुई.

बाद में शरीर ने साथ नहीं दिया तो चाय व चने की दुकान भी बंद हो गई. बीमार हुए और शारीरिक अशक्तता इतनी बढ़ गई कि पूर्व विधायक के नाते मिलने वाली साढ़े दस हजार रूपया महीना की पेंशन लेने लखनऊ जाने में भी असमर्थ हो गये तो साढ़े पांच हजार की घर की कुल जमापूंजी डाॅक्टरों पर लुटाने के बाद 8 जुलाई, 2013 को अपने जिले बहराइच के सरकारी अस्पताल पहुंचे. वहां घोर उपेक्षा के बीच उन्होंने अंतिम सांस ली तो परिजनों के पास कफन तक के पैसे नहीं थे. तब गांव वालों ने चंदा करके उनका अंतिम संस्कार सम्पन्न किया.


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उनके बेटे राधेश्याम के अनुसार धनाभाव के कारण उनका हार्निया का आपरेशन लम्बे अरसे से टलता आ रहा था, जो अंततः जान पर आ बना. जिला अस्पताल में भर्ती होने आये तो पहले तो उन्हें भर्ती करने में हीला हवाली की गई, फिर इलाज में भरपूर लापरवाही बरती गई. उन्हें जूनियर डाॅक्टरों के भरोसे छोड़ दिया गया. यह उपेक्षा उनकी उस ईमानदारी की सजा जैसी थी जिसके लिए कुछ ही दिनों पहले प्रदेश विधानमंडल के उत्तरशती समारोह में उनको सम्मानित किया गया था.

विडंबना यह कि समारोह के बाद किसी ने भी उनका हालचाल नहीं लिया. बीमारी की हालत में ही एक दिन उन्होंने बेटे राधेश्याम से मुलायम सिंह यादव के पास ले चलने को कहा. उन्हें उम्मीद थी कि मुलायम से उन्हें कुछ मदद जरूर मिल जायेगी लेकिन किराये के पैसे ही नहीं जुट सके और बात आई गई हो गई.

आज की सुख व ऐश्वर्य के भोग की राजनीति में भगौतीप्रसाद शायद ही किसी के रोलमाडल हों लेकिन वे अपनी संतानों से कहा करते थे कि जीवनयापन के लिए ईमानदारी से किया गया कोई भी काम छोटा नहीं होता. वह पैसा भले ही न दे, पर थोड़ी दिक्कतों के साथ सुख जरूर देता है. शायद इसी सुख के लिए उन्होंने जीवन भर ईमानदारी का साथ नहीं छोड़ा. छोड़ते भी कैसे, उन्हें स्वतंत्र पार्टी के ईमानदारी में अपना सानी न रखने वाले मंगलप्रसाद की विरासत प्राप्त हुई थी जो 1962 के चुनाव में इकौना के विधायक बने थे और गले तक कर्ज में डूबे अपने परिवार को छोड़कर इस दुनिया से चले गये थे.

(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं)

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