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Tuesday, 19 November, 2024
होममत-विमतजब भी माननीय पौधारोपण करते हैं, देश में जंगल कम हो जाते हैं

जब भी माननीय पौधारोपण करते हैं, देश में जंगल कम हो जाते हैं

हमारे यहां नदियों की अपनी कोई जमीन ही नहीं है, ऐसा कोई नोटिफिकेशन नहीं जो बताता हो कि अमुक जमीन अमुक नदी की है. नदी पथ की जमीन या तो सरकार की होती है या निजी. तो पौधारोपण किस जमीन पर होगा ?

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कुछ फील गुड तथ्यों पर नजर डालिए. देश में संकल्प पर्व मनाया जा रहा है. इसके तहत बड़ी संख्या में हो रहे पौधारोपण की खबरें आ रही है. अरबों की संख्या में पौधे लगाए जा रहे हैं, 25 करोड़ पौधे तो अकेले उत्तर प्रदेश ने ही लगा दिए हैं. केंद्र और दिल्ली सरकार के तकरीबन हर मंत्री की पौधारोपण करती तस्वीर अखबारों में आ चुकी है. पर्यावरण मंत्रालय ने दिसंबर में एक रिपोर्ट जारी कर यह बताया था कि देश में वन क्षेत्र तेजी से बढ़ रहा है. हालिया आई एक रिपोर्ट यह भी बताती है कि वनक्षेत्र को डायवर्जन करने की सरकारी सिफारिशों में भारी कमी आई है.

कुल मिलाकर सब हरा ही हरा है.

संकल्प पर्व और 181 हेक्टेयर जंगल के कुछ दिन

लेकिन इन हरों के बीच कुछ – कुछ काला पीला भी है. ओडिशा से शुरु करते हैं. मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने दो महत्वपूर्ण निर्णय लिए. उन्होने प्रदेश में सबुजा योजना की शुरुआत करते हुए लाखों पौधे लगाने का संकल्प लिया और क्योंझर जिले में बेहतरीन घने जंगल को साफ करने की अनुमति दे दी. गंधलपाड़ा गांव और उससे सटा 181 हेक्टेयर का जंगल बस कुछ ही दिनों का मेहमान है. यहां खनन की अनुमति दी गई है जिसके लिए मात्र नौ लाख वयस्क पेड़ काटने होंगे. इसके बाद यहां विकास होगा जिसमें जिसमें स्थानीय आदिवासियों की भागीदारी कुली, मजदूर और ड्राइवर के रूप में होगी.


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एक छोटी सी समस्या यह है कि मुंडा और भुइयां जैसे आदिवासी इसका विरोध कर रहे हैं, उन्हे पैसा नहीं चाहिए वे वनोपज पर जिंदा रहते हैं. भुइयां तो प्रिमिटिव यानी अति पिछड़े आदिवासी समूह में आते हैं. सरकार और कॉरपोरेट परेशान है कि विकास की सीधी सादी परिभाषा इन अड़े हुए आदिवासियों को कैसे समझाए. विरोध से परेशान राज्य सरकार ने ग्रीनफील्ड खनन की नीलामी आमंत्रित करने के लिए लॉकडाउन का समय चुना ताकि आदिवासी संगठित होकर विरोध न कर सकें.

देश के सबसे प्रदेश उत्तर प्रदेश ने संकल्प पर्व के दौरान पच्चीस करोड़ पौधे लगाने का दावा किया. इनमें बड़ी संख्या में औषधीय पौधे शामिल है. पच्चीस करोड़ के रोचक दावे को समझने के लिए तकरीबन तीन साल पहले मध्यप्रदेश की एक रिकार्ड ब्रेकर योजना पर नजर डालिए. हुआ यूं कि सदगुरु जग्गी वसुदेव महाराज ने दक्षिण से हिमालय (ऋषिकेश) तक की सड़क यात्रा की. योजना थी नदियों की रक्षा के लिए जागरूकता फैलाना. सदगुरू ने प्रभावित होकर रास्ते में पड़ने वाले राज्यों ने अपनी नदियों के किनारे बड़ी संख्या में पौधे लगाने का वचन दिया.

मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने छह करोड़ पौधे लगाने का आदेश दे दिया. उनके अधिकारियों ने पूरे प्रदेश की नर्सरियों में मौजूद सभी पौधे खरीद लिए लेकिन छह करोड़ पूरे नहीं हुए. बड़े नर्सरी मालिकों और वन विभाग को आदेश हुआ कि कैसे भी हो, पौधे उपलब्ध कराए जाएं. आनन फानन में उत्तर प्रदेश की नर्सरी मालिकों से संपर्क किया गया.

इसके बाद यूपी – एमपी सभी जगह जिम्मेदारों ने पेड़ों की डालें तोड़ी और एक बड़ी डाल से कई छोटी – छोटी टहनियां तोड़कर उन्हे काली पोलीथिन में मिट्टी भरकर पौधे की तरह लगा दिया. इस तरह छह करोड़ पौधे मध्यप्रदेश पहुंच गए और उन टहनियों को मिट्टी सहित नदी किनारे गड्डों में लगा दिया गया. नर्मदा के तट काली पोलिथिन से पट गए. अब टहनियों में जड़े तो थी नहीं कि वे पनपते इसलिए सुख गए. ऐसा नहीं कि सभी छह करोड़ पौधे बिना जड़ की टहनियां थी लेकिन जिनमें जड़े थी वह भी सूख गए क्योंकि उनकी देखभाल के लिए कोई इंतजाम नहीं किया गया था. उन छह करोड़ पौधों का कैजुअलटी रेट सौ फीसद रहा.

25 करोड़ पौधे लेकिन लगाएंगे

इस छोटी सी घटना के परिप्रेक्ष्य में पच्चीस करोड़ पौधों के भविष्य का अंदाजा लगाया जा सकता है. उत्तर प्रदेश वन विभाग और प्रदेश की सभी नर्सरियां मिलकर भी 25 करोड़ पौधों की आपूर्ति नहीं कर सकती लेकिन जब स्थानीय मीडिया का एकमात्र समाचार स्रोत खुद सरकार हो तो सब संभव है.

नदियों के किनारे पौधारोपण के फेल होने के पर्यावरणीय और सामाजिक कारण भी होते हैं जिन पर अधिकारी विचार करना ही नहीं चाहते क्योंकि पौधा लगाना अपने आप में इतना पाजिटिव साउंड करता है कि इसका विरोध हो ही नहीं सकता. इसीलिए तो दिल्ली सरकार लगातार पौधारोपण करती है, अब यह पूछने बताने की किसे फुर्सत है कि दिल्ली में पौधे लगाने की जगह ही नहीं बची है. यमुना तट की ज्यादातर जमीन केंद्र सरकार की है या यूपी सरकार.

उमा भारती ने गंगा मंत्री रहते हुए झारखंड में एक दिन में लाखों पौधे रोपे थे. उन पौधों का क्या हुआ, किसी को कोई खबर नहीं.

दरअसल समस्या यह है कि हमारे यहां नदियों की अपनी कोई जमीन ही नहीं है, ऐसा कोई नोटिफिकेशन नहीं जो बताता हो कि अमुक जमीन अमुक नदी की है. नदी पथ की जमीन या तो सरकार की होती है या निजी. तो पौधारोपण किस जमीन पर होगा ?

गंगा पथ पर बिहार – झारखंड क्षेत्र में सरकारी जमीन दलदली है और उत्तर प्रदेश में ज्यादातर जमीन खेती के अलावा वन विभाग की है. स्वाभाविक रूप से ज्यादातर पौधारोपण निजी जमीनों पर यानी खेती की जमीनों पर किया जाता है. किसानों को कहा जाता है कि फलदार वृक्ष लगाने से उन्हें फायदा होगा. लेकिन सच्चाई यह है कि फलदार वृक्ष भूमि कटाव नहीं रोकते उनकी जड़ में मजबूत पकड़ नहीं होती इसलिए वे पहली बाढ़ में ही बह जाते हैं. इसे यूं समझिए – एक पौधे को पेड़ बनने में तकरीबन तीन साल का समय लगता है और गंगा में स्वाभाविक रूप से हर साल बाढ़ आती है. इस तरह पौधा वहां टिक ही नहीं सकता. भूमि कटाव रोकने में पीपल और बरगद जैसे पौधे सक्षम होते हैं लेकिन इनकी क्विक रेवेन्यू वेल्यू नहीं है इसलिए ये किसी के फेवरेट नहीं है.


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वन क्षेत्र की गणना का गणित

बात सिर्फ इतनी नहीं है कि सरकारी स्तर पर संकल्प पर्व मनाया जा रहा है और धरती को हरा भरा रखने का दिखावा किया जा रहा. इसके पीछे ध्यान भटकाने की सोची समझी कोशिश है. बानगी देखिए- पर्यावरण मंत्रालय ने EIA यानी पर्यावरण प्रभाव आकलन का नया ड्राफ्ट पेश किया है. यह 2006 के नोटिफिकेशन की जगह लेगा. इसे जनता की राय जानने के लिए सामने रखा गया है.

लॉकडाउन की उथल पुथल से जूझते लोग इस ड्राफ्ट (600 पेज) को नहीं देखेंगे और इसी बीच इसे पास कर दिया जाएगा. वैसे कई छात्र संगठनों के विरोध के बाद पब्लिक कमेंट की तारीख 11 अगस्त तक बढ़ा दी है, बावजूद इसके इस ड्राफ्ट का पास होना तय है. इसके पास होने के बाद किसी भी परियोजना के लिए पर्यावरणीय प्रभाव जांचने और परियोजना क्षेत्र में रहने वालों की आवाजों का कोई मतलब नहीं रह जाएगा. इसे बिजनेश फ्रेंडली कहा जा रहा है.

केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने तो एक कदम आगे बढ़कर पर्यावरणीय जांच वाली पूरी प्रक्रिया को ही बकवास करार दिया क्योंकि इससे विकास की तेजी प्रभावित होती है.  इस नए ड्राफ्ट को हरे – हरे के बीच पास करने के लिए ही सारा ड्रामा रचा गया है। जैसा कि शुरु में कहा गया, सरकारी समर्थन की एक रिपोर्ट यह भी बताती है कि अब वन भूमि की लैंड यूज चेंज करने की सरकारी सिफारिशे कभी कम हो गई है.


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वन क्षेत्र की गणना का एक गणित भी देख लिजिए. जिन जंगलों को काटा जाना होता है वहां पेड़ उसी को माना जाता है जो चार फीट तक तीस सेमी चौड़ा हो, इससे कमजोर को पेड़ ना मानकर बल्ली माना जाता है. लेकिन जब सरकार यह बताती है कि देश में वन क्षेत्र कितना बढ़ गया तो वह सारा इलाका गिन लिया जाता है जहां बड़े पैमाने पर पौधारोपण किया गया है. इस तथ्य को कोई मतलब नहीं रह जाता है कि ओड़िसा के क्योंझर में जिन साल के वृक्षों को काटा गया है उन्हे परिपक्व होने में 130 साल लगते हैं.

साल के जंगल टाई और डाई प्रक्रिया से आकार लेते हैं. यानी उगते है, मरते है फिर उगते हैं. दस हजार पेड़ मिलकर भी एक पीपल के पेड़ के बराबर ऑक्सीजन पैदा नहीं कर सकते.

इस तरह यह बताने की कोशिश की जा रही है कि देश में जंगल कटने के तमाम आदेशों के बावजूद जंगल बढ़ रहे हैं क्योंकि माननीय पौधे लगा रहे हैं.

माननीय समझते क्यों नहीं कि बगीचे लगाए जाते है और जंगल बचाए जाते है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. यह लेख उनके निजी विचार हैं)

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1 टिप्पणी

  1. आने वाले भविष्य के लिए एक बहुत डरावना एक मात्र सत्य। पर इस बात का उपाय क्या है।सरकार का विरोध प्रदर्शन कर के भी बचाव नही कर पाए अफसोस जभी तक जनता जागरूक होगी तभी तक कुछ बचेगा नही यहा की जनता के पास कोई टाइम नही है।???????

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