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Sunday, 22 December, 2024
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कांग्रेस को कब समझ में आएगा कि पानी उसके सिर के ऊपर से बह रहा है?

गांधी परिवार के लिहाज से भी यह काफी लंबा खिंच गया है, सोनिया गांधी 24 साल से पार्टी अध्यक्ष हैं जबकि इंदिरा गांधी ने आठ साल तक, राजीव ने सात साल और नेहरू ने चार साल अध्यक्षता की थी

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कभी बोरिस जॉनसन के सलाहकार रह चुके, उनके तीखे आलोचक डॉमिनिक कमिंग्स ने तो उन्हें ‘इधर से उधर भागती बेकाबू शॉपिंग ट्रॉली’ कहा है. लेकिन अपनी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी को ऐसी शॉपिंग ट्रॉली कहा जा सकता है जिसके पहियों में जंग लग गई है और वह हिल भी नहीं सकती. मैं यह समानता इसलिए देख रही हूं कांग्रेस ब्रिटेन की कंजरवेटिव पार्टी से बहुत कुछ सीख सकती है, जिसने उस शख्स को गद्दी से उतार दिया जिसने उसे ब्रिटेन की सत्ता दिलाई थी. कांग्रेस पार्टी महाराष्ट्र और तमिलनाडु से भी सबक सीख सकती है.

साधारण बुद्धि तो यही कहती है कि लोकतंत्र में पार्टियों के अंदर मंथन चलता रहे तो यह अच्छी बात है. लेकिन कांग्रेस के कार्यकर्ताओं में वह क्षमता और इच्छाशक्ति है कि वे नेतृत्व के लिए गांधी परिवार के सिवा किसी और की ओर देख सकें?

पहले से काफी कमजोर हो चुकी पार्टी के लिए शायद अब तक यह कहने का वक़्त नहीं आया है कि ‘अब बहुत हो चुका!’ ऐसा क्यों है, इसकी कल्पना करना मुश्किल है. कांग्रेस की जड़ता ने पार्टी का अहित ही किया है. सोनिया गांधी सबसे लंबे समय, 24 साल से इसकी अध्यक्ष हैं और अभी यह गिनती जारी है. गांधी परिवार के लिहाज से भी यह काफी लंबा खिंच गया है, क्योंकि इंदिरा गांधी ने आठ साल तक, राजीव गांधी ने सात साल और जवाहरलाल नेहरू ने चार साल अध्यक्षता की थी.

ऐसा लगता है कि कांग्रेस नरेंद्र मोदी को जितना नापसंद करती है उससे ज्यादा नापसंद है उसे अपने में बदलाव करना. सोनिया का उत्तराधिकारी चुनने की प्रक्रिया के बारे में पार्टी के अंदर कोई विचार तक करने को तैयार नहीं है. ‘जी-23’ गुट ने कोशिश कर ली मगर नाकाम रहा क्योंकि गांधी परिवार के बाकी सहायकों-सेवकों को नेतृत्व परिवर्तन का विचार ही अपमानजनक लगता है, हालांकि राजनीतिक विचारक, रणनीतिकर और यहां तक कि पार्टी के भीतर के लोग भी कहते रहे हैं कि इससे कांग्रेस को बहुत लाभ हो सकता है.

मैं गारंटी के साथ कह सकती हूं कि मोदी भी अगर अपनी पार्टी का 24 साल तक नेतृत्व करते रहे तो उसमें भी आंतरिक विस्फोट हो जाएगा. वास्तव में, भाजपा ने इसे पहले ही समझ लिया, तभी अमित शाह ने पार्टी की छह साल तक अध्यक्षता करने के बाद उसके कामकाज जे.पी. नड्डा को सौंप दिया. इस बीच काफी चर्चा है कि योगी आदित्यनाथ को अगला प्रधानमंत्री बनाने की तैयारी चल रही है. यही वजह है कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ को हर विधानसभा चुनाव के लिए स्टार प्रचारक बनाया जा रहा है, चाहे वह दक्षिण के राज्यों का चुनाव हो या उत्तर-पूर्वी राज्यों का, ताकि मतदाता उन्हें केवल हिंदी पट्टी के संत से नेता बने लिए राजनीतिक के रूप में नहीं बल्कि अखिल भारतीय नेता के रूप में देखें.


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बदलाव की कुछ मिसाल

क्षेत्रीय दलों में भी नेतृत्व की अब गारंटी नहीं रही है. बदलाव की बयार एआइडीएमके और शिवसेना में भी बह रही है. जे. जयललिता के निधन के बाद एआइडीएमके में उत्तराधिकार की तीखी जंग चली, जिसके कारण यह पार्टी दो खेमों में बंट गई. एक खेमे का नेतृत्व ओ. पन्नीरसेल्वम (ओपीएस) के हाथों में था तो दूसरे का ई. पलानीस्वामी (ईपीएस) के हाथों में. हालांकि कहा जा सकता है कि इस खेमेबंदी के कारण तमिलनाडु में एआइडीएमके की स्थिति कमजोर हुई और डीएमके एक दशक बाद 2021 में सत्ता में वापस लौट आई. लेकिन इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि ईपीएस की सरकार ने कोविड महामारी के दौरान जो उत्कृष्ट काम किया उसके कारण वे अभी भी द्रविड़ मतदाताओं में लोकप्रिय हैं.

सरकार विरोधी हवा, और ऐसी पार्टी (जो दक्षिण भारतीयों पर जबरन हिंदी थोप रही हो) से गठबंधन के बावजूद 80 सीटें जीतना कोई छोटी उपलब्धि नहीं है. लेकिन, जो पार्टी जयललिता के निधन के बाद पंगु हो जा सकती थी उसने आंतरिक मंथन के बाद अपनी एक नया अध्याय शुरू किया. पार्टी में फूट उसके बेहतर भविष्य के लिए शायद छोटी कीमत ही थी. सोमवार को एआइडीएमके ने ओपीएस की पार्टी की प्राथमिक सदस्यता भी रद्द कर दी और कोशाध्यक्ष के पद से भी हटा दिया.

महाराष्ट्र में शिवसेना में भी इसी तरह की उथलपुथल हुई है. एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में 55 में से 50 शिवसैनिक महा विकास आघाडी (एमवीए) से अलग हो गए और उन्होंने भाजपा के साथ मिलकर एनडीए की सरकार बना डाली. उद्धव ठाकरे को ठाणे नगर निगम में भी निराशा हाथ लगी है, जहां उनके 67 में से 66 पार्षद शिंदे गुट में शामिल हो गए. यह सब उनकी अपनी विचारधारा के नाम पर हुआ. ठाकरे के नेतृत्व में जो मंथन असंभव था वह आज एक हकीकत बन है.

कांग्रेस अब मोदी की एकमात्र स्वयंभू ‘राष्ट्रीय’ विरोधी बनकर रह गई है. हकीकत यह है कि लोकसभा के पिछले दो चुनावों में वह भाजपा के वोट आधार में कोई सेंध नहीं लगा पाई. बल्कि उसने अपने जीते हुए राज्य भी गंवा दिए. और अब तो भाजपा ने कांग्रेस पर अपना हमला भी धीमा कर दिया है, चाहे यह ‘पप्पू’ वाले चुटकुले हों या ‘वाड्रा के भ्रष्टाचार’ के आरोप. इसकी जगह, भाजपा अब उन प्रादेशिक नेताओं पर सीधे हमले कर रही है जिनसे उन्हें कांग्रेस के मुक़ाबले ज्यादा खतरा है, चाहे वे अरविंद केजरीवाल हों या ममता बनर्जी या उद्धव ठाकरे या अब के. चंद्रशेखर राव.

सवाल यह है कि कांग्रेस पार्टी को कब यह समझ में आएगा कि पानी अब सिर के ऊपर से बह रहा है? मित्रो! इस सवाल का जवाब हवा में तैर रहा है.

लेखक एक राजनीतिक पर्यवेक्षक हैं जो @zainabsikander से ट्वीट करते हैं. विचार व्यक्तिगत हैं.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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