जब आप ये पंक्तियां पढ़ रहे हैं, कौन जाने, शायर शेख जहूरुद्दीन हातिम की तरह आपका मन भी यह कहने का हो रहा हो: ‘मुहैया सब है अब असबाब-ए-होली. उठो यारो! भरो रंगों से झोली!’ लेकिन क्या आपको मालूम है कि जब हम अंग्रेजों के गुलाम थे और सारे असबाब-ए-होली पर गुलामी की दुश्वारियों का कब्जा था, तो हमारी होली की सूरत कैसी थी? कोई पूछे तो आप फौरन जवाब देंगे-हां, 1920 में महात्मा गांधी ने असहयोग आन्दोलन का आह्वान किया तो वह जल्दी ही जन आंदोलन में बदल गया था.
फिर तो विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार और स्वदेशी के इस्तेमाल की उनकी अपील ने ऐसा रंग दिखाया था कि देशवासियों ने और तो और विदेशी कपड़ों तक की होली जला डाली थी….
लेकिन गुलामी के दौर की होली का यह पूरा परिचय नहीं है. क्योंकि उस दौर में होली आती तो आजादी के दीवानों और उनकी राह में कांटे बिछाते रहने वाले अंग्रेजों के बीच नये सिरे से ठन जाती थी. कारण यह कि आजादी के दीवाने प्रायः होली पर देशवासियों को राग-द्वेष भुलाकर एक करने, जगाने और लड़ने को प्रेरित करने की नई कवायदें शुरू करते थे, जो अंग्रेजों को कतई गवारा नहीं होती थीं.
झांसी में कुछ लोग आज भी होली नहीं मनाते
कई बार उनसे खफा अंग्रेज क्रूर दमन पर उतरते तो होली का सारा उल्लास जाता रहता था और उससे कई दुःखदाई यादें जुड़ जाती थीं. 1853 में झांसी की होली के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था, क्योंकि 21 नवम्बर, 1853 को झांसी के राजा गंगाधर राव नेवालकर का बिनी किसी संतान के निधन हो गया उसके बाद पूरे भारत पर राज करने का ईस्ट इंडिया कम्पनी का मंसूबा पूरा करने में लगे अंग्रेज गवर्नर जनरल लार्ड डलहौजी ने झांसी पर ‘डाक्ट्रिन ऑफ लैप्स’ का कहर बरपाने के लिए होली का ही दिन चुना था.
कवयित्री सुभद्रा कुमार चौहान के शब्दों में कहें तो इसी दिन ‘लावारिस का वारिस बनकर ब्रिटिश राज्य झांसी आया’ था.
इतिहासकारों के अनुसार गंगाधर राव अपने रहते अपने दत्तक पुत्र दामोदर राव को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर गये थे. लेकिन उनके निधन के बाद डलहौजी ने उनकी घोषणा को ‘डाक्ट्रिन ऑफ लैप्स’ के विरुद्ध मानते हुए स्वीकार करने से इनकार कर दिया था.
प्रसंगवश, ‘डाक्ट्रिन ऑफ लैप्स’ ईस्ट इंडिया कम्पनी के अधीनस्थ भारतीय राज्यों/रियासतों को उसके साम्राज्य में मिलाने की ऐसी ‘हड़प नीति’ थी, जिसके तहत कोई राजा का यदि बिना किसी संतान के निधन हो जाता है तो उसकी दत्तक संतान को उसका उत्तराधिकारी न मानकर उसके राज्य को कम्पनी के साम्राज्य में मिला लिया जाता था.
झांसी को हड़पने के लिए डलहौजी ने इसी नीति के तहत 7 मार्च, 1854 को एक फरमान निकाला और इरादतन होली के दिन ही झांसी पहुंचाया.
फरमान के साथ एक इश्तिहार भी था, जिसमें लिखा था कि अब कम्पनी की ओर से झांसी का शासन मेजर एलिस चलायेंगे. प्रजा का फर्ज होगा कि वह अपने को ब्रिटिश सरकार के अधीन समझे और उसकी आज्ञाओं का अनुपालन कर सुख-शांति और संतोष के साथ जीवन-यापन करे.
इस रंग में भंग के बाद झांसीवासी भला होली कैसे मनाते? रानी लक्ष्मीबाई ने भी होली के सारे समारोह रद्द कर दिये और महल में जाकर भविष्य पर छाये काले बादलों से निपटने की योजनाएं बनाने में व्यस्त हो गईं.
तब से डेढ़ से ज्यादा शताब्दियां बीत गईं, लेकिन झांसी के कुछ लोग उस फरमान के आने, रानी द्वारा उसे अंगूठा दिखाने और इससे क्रुद्ध अंग्रेजों के विकट हमले के दौरान झांसी को बचाते हुए वीरगति प्राप्त करने की याद में होली के दिन होली नहीं मनाते. जब पूरा देश होली मनाता है, 1854 में उनकी होली के रंग में पड़ा वह भंग उन्हें सताता रहता है.
लाहौर में भी हुई थी कुछ ऐसी ही घटना
काश, लाहौरवासी भी झांसी वालों की तरह उन छः बब्बर अकाली आन्दोलनकारियों की शहादत को याद रखते और उनका शोक मनाते, 1926 में जिन्हें अंग्रेजों ने लाहौर सेंट्रल जेल में होली के दिन ही फांसी दे दी थी.
उस साल होली 27 फरवरी को थी और उस दिन फांसी पर लटकाये गये इन आन्दालनकारियों के नाम थे: किशन सिंह गड़गज्ज, संता सिंह, दिलीप सिंह, नन्द सिंह, करम सिंह और धरम सिंह.
तब भगत सिंह ‘क्रांतिकारियों का शहर’ कहलाने वाले कानपुर में रहकर आजादी की लड़ाई में ऐतिहासिक भूमिका निभाने वाले गणेश शंकर विद्यार्थी के लोकप्रिय पत्र ‘प्रताप’ में काम कर रहे थे.
उन्होंने ‘एक पंजाबी युवक’ के नाम से 15 मार्च, 1926 के ‘प्रताप’ में लेख लिखकर इस बात पर रोष व क्षोभ जताया था कि इस छः वीरों के बलिदानों को लेकर लाहौर शोक में नहीं डूबा और होली मनाता रहा. उनके शब्द थे: सुनोगे तो कांप उठोगे.
लाहौर सेंट्रल जेल में होली के दिन ही छः बब्बर अकाली वीरों को फांसी पर लटका दिया गया….मगर नगर में वही धूम थी. आने-जाने वालों पर रंग डाला जा रहा था और इन शहीदों के बलिदान की भीषण उपेक्षा की जा रही थी! हालांकि स्वदेश में जिस साहस और तत्परता से उन्होंने अपने प्राण त्यागे, उसे देखते हुए उनकी पूजा की जानी चाहिए थी.’
उन्होंने इन वीरों के संघर्ष, अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ जंग और पकडे़ जाने की कहानी भी बयान की थी.
इसी ‘प्रताप’ के शहर कानपुर में 1942 में होली के दिन हटिया बाजार के रज्जन बाबू पार्क में जमा क्रांतिकारी तिरंगे झंडे को खूब ऊंचा फहराकर होली खेल रहे थे तो अंग्रेजों के दर्जन भर घुड़सवार सिपाही सरपट घोड़े दौड़ाते आये और तिरंगा उतारने लगे.
क्रांतिकारियों को भला उन्हें ऐसा करने देना क्यों कर गवारा होता? उन्होंने उनको तिरंगा उतारने से रोका और उनका मुकाबला शुरू किया तो दोनों पक्षों में भीषण संघर्ष छिड़ गया.
लेकिन निहत्थे क्रांतिकारी कब तक उनका मुकाबला कर पाते? अंततः सिपाही भारी पड़े और अंग्रेज अफसरों ने और पुलिस बल बुलाकर 45 क्रांतिकारियों को क्रूरतापूर्वक गिरफ्तार कर लिया.
लेकिन उनको पता नहीं था कि इन क्रांतिकारियों पर हाथ डालकर वे कितनी बड़ी मुसीबत मोल ले रहे हैं. जैसे ही इन गिरफ्तारियों की खबर फैली, समूचा कानपुर क्रांतिकारियों के समर्थन में सड़कों पर उतर आया.
क्या महिलाएं-क्या बच्चे, क्या मजदूर-क्या साहित्यकार, क्या व्यापारी और क्या आम लोग! इन सबने मिलकर धरने और प्रदर्शनों से हुकूमत की नाक में दम कर दिया.
उनकी एक ही मांग थी कि बन्दी क्रांतिकारियों को ससम्मान रिहा किया जाये. छः दिन बीत गये, फिर भी जनाक्रोश नहीं थमा तो अफसरों को विवश होकर क्रांतिकारियों की रिहाई का आदेश देना पड़ा.
सातवें दिन क्रांतिकारी जेल से छूटे तो कानपुरवासियों ने उनके स्वागत में पलक पांवड़े बिछा दिये. जेल से एक बडे़ जुलूस के साथ कानपुरवासी उन्हें हटिया के उसी रज्जन बाबू पार्क में ले आये, जहां तिरंगा फहराने के जुर्म में सिपाहियों ने उन्हें पकड़ा था. फिर वहां जश्नपूर्वक होली मनाई.
कानपुर में मनाई जाती है सात दिन की होली
तभी से कानपुर में सात दिन होली मनाई जाती है और उसका गंगा मेले के साथ समापन किया जाता है. मेले की सुबह ध्वजारोहण और राष्ट्रगान के बाद जुलूस की शक्ल में ‘रंगों का ठेला’ निकाला जाता है, जो पूरे शहर की परिक्रमा के बाद उसी रज्जनबाबू पार्क में लाया जाता है.
कई बार ट्रैक्टरों पर रंगों से भरे ड्रम और ऊंट व घोड़े वगैरह भी उसके साथ होते हैं. रास्ते भर जुलूस पर पुष्पों की वर्षा की जाती रहती है और शाम को सरसैया घाट पर मेला लगाया जाता है.
गौरतलब है कि गुलामी के उस दौर में होली के रंग-बदरंग करने वाली ये घटनाएं बटलोई के चावल जैसी हैं. क्योंकि पूरी आजादी की लड़ाई के दौरान देश के अलग-अलग हिस्सों में इस तरह की घटनाओं की पुनरावृत्ति पर पुनरावृत्ति होती रही थी और स्वतंत्रता सेनानी होली को कुंठाएं निकालने, गालियां बकने, फब्तियां कसने या एक दूजे पर कीचड़ फेंकने जैसी बदतमीजियां के पाले से निकालकर सामाजिक सुधार व शिक्षा का त्यौहार बनाने की अपनी कोशिशों को लेकर अंग्रेजों से टकराते रहे थे.
ये सेनानी होली के महीनों पूर्व ही गाजे-बाजे के साथ देशवासियों में स्वतंत्रता की चेतना जगाने वाले फगुए गाना व गुलाल और फूलों से होली खेलना शुरू कर देते थे.
धुलेंडी के दिन महिलाएं और बच्चे खादी के वस्त्र पहनकर अपने मोहल्लों में और कई बार मुहल्ले के बाहर भी निकलते और सुराजी गाने, कई बार गालियां भी, गाते थे. उन सारे गानों में कुरीतियां व रूढ़ियां मिटाकर समाज को बेहतर बनाने पर जोर होता था. कई प्रदेशों में होली पर चंग व नगाड़ों के साथ डांडिया नृत्य भी हुआ करते थे.
जेलों में बन्द स्वतंत्रता सेनानी भी कभी जेल के अफसरों से इजाजत लेकर और कभी इजाजत न मिलने पर उसकी अवज्ञा कर होली खेलते थे. उनकी होली में भी सर्वाधिक जोर सद्भाव पर ही होता था.
(कृष्ण प्रताप सिंह फैज़ाबाद स्थित जनमोर्चा अखबार के पूर्व संपादक और वरिष्ठ पत्रकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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