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Thursday, 19 December, 2024
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जब मुम्बई में दीये से लड़कर हार गया था तूफान!

जार्ज फर्नांडिस ने 48.5 प्रतिशत वोट के साथ मुंबई में एस. के. पाटिल को 40 हजार से ज्यादा वोटों से हराया था. जार्ज की इस जीत ने सिद्ध किया था कि प्रतिद्वंद्वी कितना भी मजबूत क्यों न हो, बिना साधन वाला व्यक्ति भी युक्ति से हरा सकता है.

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गत 17 फरवरी को इन्हीं स्तम्भों में आप देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के सबसे पिछड़े मगर ऐतिहासिकता से भरपूर बस्ती जिले के गांवों में प्रचलित और हमारे ‘दुनिया के महानतम’ लोकतंत्र की भरपूर खबर लेने और साथ ही निराश करने वाले दो चुनावी किस्से पढ़ चुके हैं. आज उनके उलट देश की औद्योगिक राजधानी मुम्बई का उम्मीदें जगाने वाला यह सच्चा चुनावी वाकया पढ़िये, जो हमारी लोकतांत्रिक परम्परा में अरसे से चले आते इस विश्वास को मजबूत करता है कि तूफान कितने भी शक्तिशाली क्यों न हों, हमेशा अजेयता का परचम ही नहीं फहराते रह सकते. कभी न कभी उन्हें दीये की चुनौती के आगे भी सिर झुकाना पउ़ता है.

प्रसंगवश, 1967 में सम्पन्न हुए चौथे लोकसभा के चुनाव का यह अपनी तरह का अनूठा वाकया गत 29 जनवरी को देश की राजधानी के मैक्स अस्पताल में हमें अलविदा कह गये स्वतंत्रचेता मजदूर नेता जार्ज मैथ्यू फर्नांडिस के पराक्रम के साथ शुरुआती संघर्षों का भी पता देता है.


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महाराष्ट्र की दक्षिण मुम्बई लोकसभा सीट से पहली से लेकर तीसरी लोकसभा के चुनावों तक भारी बहुमत से जीतते आ रहे सदाशिव कान्होजी पाटिल चौथी लोकसभा के चुनाव में भी इसी सीट से चुनाव मैदान में उतरे तो वहां के बेताज बादशाह माने जाते थे. वे पं. जवाहरलाल नेहरू से लेकर श्रीमती इंदिरा गांधी तक के मंत्रिमंडलों में वरिष्ठ मंत्री रहे थे और कहा जाता था कि वे श्रीमती गांधी के भी उतने ही नजदीक हैं, जितने कभी उनके पिता पं. नेहरू के रहे थे. आम लोगों में उन्हें सदोबा पाटिल या एसके पाटिल के नाम से भी जाना जाता था.

मुम्बई के 37 वर्षीय नगर पार्षद और युवा श्रमिक नेता जार्ज फर्नांडिस उनकी राह रोकने को आगे आये तो इसे हर तरह से एक विषम चुनावी युद्ध ही माना गया. किसी ने इसे जार्ज की हिमाकत कहा तो किसी ने चुनावी आत्मघात. यह कहने वालों की भी कमी नहीं थी कि जार्ज जैसे कमजोर प्रतिद्वंद्वी के कारण पाटिल को एक तरह से वाकओवर-सा मिल गया है. चुनाव के नतीजे का आकलन करने वालों में कई को गोस्वामी तुलसीदास की ‘रावण रथी, विरथ रघुबीरा’ वाली पंक्ति याद आती थी तो कई अन्य कहते थे कि यह दीये और तूफान की लड़ाई है.

कारण साफ था: पाटिल के सामने जार्ज की कोई हैसियत नहीं थी. न राजनीतिक और न ही सामाजिक. पद व प्रभाव की दृष्टि से भी वे उनके समकक्ष नहीं थे. कहां पाटिल का शानदार राजनीतिक कैरियर और कहां कर्नाटक के मेंगलोर सागरतटीय क्षेत्र के कोंकणीभाषी जार्ज, जिन्होंने मुम्बई के फुटपाथ से एक मजदूर के रूप में जिन्दगी शुरू की और धाराप्रवाह मराठी बोलना सीखा. ऐसे में पाटिल की अजेयता में शायद ही किसी को संदेह था. दर्प से भरे पाटिल का खुद का भी दावा था कि दक्षिण मुम्बई से तो उन्हें भगवान भी चुनाव नहीं हरा करते.

वरिष्ठ पत्रकार के. विक्रमराव उन दिनों मुम्बई में रहकर पत्रकारिता कर रहे थे. वे बताते हैं कि दिसम्बर, 1966 में यानी 1967 के लोकसभा चुनावों के एेलान से बस थोड़ा-सा पहले कुछ साथी पत्रकारों के साथ खबरें सूंघते हुए वे वहां के प्रदेश कांग्रेस कार्यालय जा पहुंचे. पाटिल से पूछा कि क्या वे इस बार भी दक्षिण मुम्बई सीट से ही लड़ेंगे? उन्होंने इसका सीधा उत्तर न देकर पूछ लिया कि वहां से नहीं तो आप ही बताइये कि और कहां से लड़ूं? उन्हें बताया गया कि इस बार दक्षिण मुम्बई में जार्ज फर्नांडिस उन्हें टक्कर देने वाले हैं तो उन्होंने उपहासपूर्वक कहा-कौन फर्नांडीज? वही म्युनिसिपल पार्षद? वह मुझे टक्कर देगा? कहकर वे हंसने लगे तो उनके दफ्तर के सारे के सारे लोगों ने उनका साथ दिया.

एक पत्रकार ने भी उनकी हां में हां मिलाते हुए कह दिया कि वाकई आप जैसे महाबली को तो कोई महाबली ही हरा सकता है! जार्ज की आपके सामने क्या औकात? इससे फूलकर कुप्पा हो उठे पाटिल ने मुदित मुद्रा में दावा कर डाला कि महाबली तो क्या भगवान भी चाहें तो चुनाव लड़कर देख लें. वे भी नहीं हरा सकते उन्हें.

अगले दिन मुम्बई के लगभग सभी अखबारों में उनका यह कथन अहमियत से छपा और शायद उसी दिन दक्षिण मुम्बई की जनता ने उनका अहंकार तोड़ने का फैसला कर डाला! इससे भी बड़ी बात यह कि यह अहंकार उसने जिन जार्ज फर्नांडिस के हाथों तोड़वाया, वे न भगवान थे और न ही बलवान या धनवान. हां, उनकी कुछ विशेषताएं थीं: अल्पसंख्यक ईसाई समुदाय से होने के बावजूद वे वहां के हिन्दू बहुल समाज के चहेते थे. श्रमिक पुरोधा तो खैर थे ही. इसलिए उन्होंने चुनाव लड़ने का निश्चय किया तो मुम्बई लेबर यूनियन के हजारों सदस्य तन मन धन से उन्हें जिताने के लिए सक्रिय हो गये. कुछ श्रमिक संस्थाओं ने उनकी संसाधनों की कमी को भी दूर कर दिया.

गौरतलब है कि यह वह चुनाव था, जिसमें अनेक अल्पसंख्यक डाॅ. राममनोहर लोहिया के इस बयान की वजह से समाजवादियों से नाराज थे कि वे देश में समान नागरिक संहिता के पक्ष में हैं और एक पत्नी व्यवस्था को कानूनन सभी भारतीयों पर लागू कराना चाहते हैं. पाटिल आश्वस्त थे कि लोहिया के इस नजरिये से नाखुश दक्षिण मुम्बई के मुस्लिम समुदाय के लोग उनकी पार्टी के प्रत्याशी के रूप में जार्ज को अपने वोट कतई नहीं देंगे, लेकिन जार्ज ने ऐसी युक्ति से काम लिया कि मुस्लिम महिलाएं उनकी फैन हो गईं. वे उनके बीच जाकर सवाल करते कि अगर निकाह के नियम मुस्लिम पुरुषों की तरफदारी करते हैं तो उन्हें परिमार्जित करना चाहिये या नहीं? अगर हां तो लोहिया ने एक पत्नी के कानून की बात करके क्या गुनाह किया है?


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अंततः जार्ज का तर्क काम आ गया. के. विक्रमराव के शब्दों में कहें तो वे वामनावतार लेकर विरोचनपुत्र दैत्यराज महाबली बलि यानी एस. के. पाटिल से भिड़े और मुकाबले को महाबलवान अहंकारी अजेय एस. के. पाटिल बनाम आमजन बनाकर जीत लिया. प्रचार अभियान के आखिरी दौर में जीत को हाथ से फिसलती देख पाटिल के कुछ समर्थकों ने स्थानीय बनाम बाहरी का मुद्दा भी उठाया, लेकिन वह कुछ काम नहीं आया.

इस चुनाव में जार्ज को 48.5 प्रतिशत वोट देकर मतदाताओं ने एस. के. पाटिल को 40 हजार से ज्यादा वोटों से हरा दिया. उनकी इस जीत में उस जनसंवेदना ने भी बड़ी भूमिका निभाई, जो पाटिल की सम्पन्नता व शक्तिमानता के मुकाबले जार्ज की साधनहीनता व विपन्नता के पक्ष में उमड़ पड़ी थी. जार्ज की इस जीत ने सिद्ध किया था कि प्रतिद्वंद्वी कितना भी मजबूत क्यों न हो, बिना साधन वाला व्यक्ति भी युक्ति के साथ उससे भिड़ जाये तो जीतकर दिखा सकता है.

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