सेंटीनेलीस मज़बूत होते हैं- एक मध्य आयु का सेंटीनेलीस पुरुष पांच जवान मर्दों को पटखनी दे सकते हैं- और इन्होंने बाहरी लोगों को कई सदियों से दूर रखा है. मिशनरी जॉन एलन चाउ उत्तरी सेंटीनेलीस द्वीप पर अवैध रूप से घुसे थे और कथित रूप से इनकी हत्या हो गई थी. उन्होंने मछुआरों को घूस देने का अनैतिक काम किया ताकि वे उत्तरी सेंटीनेलीस द्वीर पर आ सकें और ये ऐसा करने वाले पहले ईसाई मिशनरी भी नहीं हैं.
कई विदेशी सेंटीनेलीस से मिलने की कोशिश कर चुके हैं – कुछ तो पड़ोसी म्यांमार और इंडोनीशिया से भी आए. स्थानीय मछुआरें पैसो से लिए इन बिना संपर्क वाले द्वीपों पर ले जाने के लिए हमेशा तैयार रहते है. पर ये यात्राएं अकसर या तो विफल हो जाती है या इनकी परिणीती मौत होती है.
वर्षों पहले मैं अंडमान के सेंटीनेलीस कबीले सें मिलने गई थी. तब मैं एंथ्रोपोलोजिकल सर्वे ऑफ इंडिया में शोधार्थी थी.
अब कई सालों से सेटीनेलीस टापू की आधिकारिक यात्राएं बंद कर दी गई है क्योंकि वहां की आबादी बहुत ही कम है और वे बाहरी लोगों के सख्त खिलाफ भी हैं.
जब हम पहली बार वहां गए थे तो हमने कच्चे केले( जिनको जरावा भून के खाना पसंद करते हैं) और नारियल (जो सेंटीनेलीस इस्तेमाल करते थे) जैसे फलों का आदान प्रदान किया था. पर हम घंटो इंतज़ार करते थे ताकि उनका विश्वास प्राप्त कर सकें. ये धेर्य की एक परीक्षा थी.
सेंटीनेलीस किसी में क्या फर्क जाने – चाहे वो पत्रकार हो, शोधार्थी हो, पुलिस या मिशनरी जो उनसे संपर्क साधने की कोशिश कर रहे है. असल में जब हमारे दल के साथ पुलिस कर्मी गए थे तो उन्हें भी सादे कपड़ों में आना पड़ा था. अब जॉन एलन चाउ के शव को वहां से निकालना अब पुलिस, भारत और अमरीका के प्रशासनों के हाथ में हैं. मुझे नहीं पता कि सेंटीनेलीस उनको द्वीप पर आने भी देंगे या नहीं- वे गुस्से में हैं.
पर ऐसा नहीं है कि वे देखते ही हमला बोल देते है – वे पहले चेतावनी देते है – अपने चेहरे के हाव भाव से , चाकू, धनुष बाण दिखा कर- और फिर कोई कदम उठाते है अगर उनकी बात न सुनी जाए. जॉन एलन चाउ को भी ऐसे ही व्यवहार का सामना करना पड़ा होगा. सेन्टीनेलीस समेत अंडमान की ज़्यादातर जनजातियां जीववादी हैं. वे प्रकृति की पूजा करते हैं. मैंने उनकी प्रथाओं को देखा है, जब मैं उनके साथ रही थी. जो लोग आकाश, जल और धरती को पूजते हों उनको हिन्दू धर्म या ईसाई धर्म से क्या मतलब? जब मैं ग्रेट निकोबार द्वीप पर गई, तो मैंने देखा की ज़्यादातर जनजातियों को जबरन ईसाई धर्म में धर्मान्तरित किया गया था. पर वे उस धर्म का पालन नहीं करते — जब प्रार्थना का समय आता है, उनमें से कुछ कुर्सी पर बैठते हैं और विरोध करते हैं. ईसाई धर्म के विपरीत, वे मृतकों की लकड़ी की प्रतिमा बनाते हैं और कुछ भोजन व जल उनके लिए छोड़ जाते हैं.
जब ब्रिटिश भारत आए, तब उन्होंने अंडमान की 10 जनजातियों से संपर्क करने की कोशिश की जिनकी आबादी उस समय 3000 से कुछ ज़्यादा थी. ब्रिटिशों के उपनिवेश करने के प्रयासों से नाराज़, उन जनजातियों ने 1859 में ब्रिटिशों पर हमला किया. अबरदीन या अंडमान की जंग दो गुटों में लड़ी गई — एक जिनके पास धनुष व तीर थे और दूसरे वो थे जिनके पास बंदूकें थीं. कई जनजातियों का सफाया हो गया. बाक़ी बची जनजातियों को ‘अंडमान होम्स’ में अलग कर दिया जहां खसरा जैसी बीमारियों ने और भी जानें ली. बाद में सिफलिस और अन्य यौन रोग फैलने लग गए, जब ब्रिटिशों ने जनजातियों की स्त्रियों का उत्पीड़न शुरू किया, जिससे उनकी आबादी और भी घटती चली गई.
उनकी सिकुड़ती आबादी और खतरों के मद्देनज़र, यह फैसला लिया गया कि भारत सरकार अब इनकी ज़िन्दगी में हस्तक्षेप नहीं करेगी. यह जनजातियां वैसे भी मर ही जाएंगी क्योंकि इनकी आबादी और जीन सीमित हैं. लेकिन यदि हम हस्तक्षेप करें, तो वे जल्द ख़त्म हो जाएंगी. इन जनजातियों को एकांत में रखने के लिए सरकार ने कई नियम और कायदे बनाए.
यदि आप जन्म से भारतीय हैं, आपको फिर भी शायद इन जनजातियों पर अध्ययन करने को मिल जाए, लेकिन यदि आपका बच्चा बाहर पैदा हुआ है, तो उसको अनुमति कतई न मिलेगी. वैसे ही अगर आप ऐंथ्रोपोलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया के साथ भी काम कर रहे हों, आपको सिर्फ उसी क्षेत्र में कार्य करने को मिलेगा जहां आप तैनात हैं, चाहे आप अंडमान जाकर अध्ययन करने के लिए कितने भी उत्सुक क्यों न हों.
प्राकृतिक आपदाओं के अलावा, हमें उनसे संपर्क में नहीं रहना चाहिए. और यदि हम करें भी, जैसे 2004 में आई सुनामी के हमने किया था, तो वो सिर्फ सरकार के माध्यम से ही किया जाना चाहिए — ऐसा करने से वे एक छोटे ग्रुप पर भरोसा करने लगेंगे जो मुसीबत में उनको बचाएगा.
सेंटीनेलीस की तरह अन्य जनजातियों के ऊपर धर्म नहीं थोपना चाहिए, ऐसा करने से वे और भी ज़्यादा दुश्मनी कर सकते हैं. वे प्रकृति को समझते हैं, और यही सब उनको चाहिए. उदाहरण के तौर पर, जब मैं जरावा समुदाय के साथ रह रही थी, और मुझे एक गांव से दूसरे गांव तक जाना था, तब उन्होंने मुझे कहा कि मैं न जाऊं, क्योंकि उस दिन बारिश होने वाली थी. उस दिन चमकती धुप निकली हुई थी! पर आधे घंटे में ही बारिश हो गयी, ऐसी है उनकी प्रकृति की समझ.
यदि आज भी मुझे अंडमान जाने की अनुमति मिले, तो मैं जाउंगी. मैं आखिरी बार 1999 में वहां गई थी जब केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी ने मुझे वहां जाने का आग्रह किया. जरावाओं ने वहां मुझे पहचाना और ‘मिलाले मिलाले’ चिल्लाने लगे जो उनकी बोली में ‘मित्र’ होता है. वे हमेशा याद रखते हैं.
नीरा मजूमदार से बातचीत के आधार पर
मधुमाला चट्टोपाध्याय ऐंथ्रोपोलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया के साथ एक शोधकर्ता थीं और अभी वे सामाजिक न्याय और आधिकारिता मंत्रालय में कार्य करती हैं. ये उनके निजी विचार हैं
इस लेख का अंग्रेजी से अनुवाद किया गया है. मूल लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें