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Thursday, 25 April, 2024
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नरेंद्र मोदी 2019 में प्रधानमंत्री नहीं बने तो क्या करेंगे?

हारने पर क्या मोदी विपक्ष में बैठेंगे या संन्यास की घोषणा करेंगे? अगले 100 दिन वास्तव में महत्वपूर्ण हैं तथा चिंता का, शायद उम्मीद का भी, सबब हैं.

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इस बात की संभावना नहीं है कि तेज़तर्रार मंत्री नितिन गडकरी ने 2019 के आम चुनाव के लिए विद्रोह का झंडा बुलंद कर दिया है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की शाखाओं के कड़े अनुशासन में प्रशिक्षित लोग कभी भी पांत नहीं तोड़ते. वे जानते हैं कि इस तरह के विश्वासघात का अंज़ाम क्या होगा.

ऐसी हिमाकत करने वाला या तो अवांछित व्यक्ति बन जाता है, जैसा कि लालकृष्ण आडवाणी जैसे बड़े कद वाले नेता तक का हाल हुआ, या फिर उसे गुमनामी नसीब होती है, जैसा गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री केशुभाई पटेल के साथ हुआ, जिनका 2001 में नरेंद्र मोदी उत्तराधिकारी बने थे.

पर, ये भी जाना-माना तथ्य है कि गडकरी लगातार पार्टी नेतृत्व की बुद्धिमता पर सवाल उठाते रहे हैं. यह ज़रूर है कि हर बार शीघ्रता से वह सफाई भी देते हैं कि उन्हें संदर्भ से हटकर उद्धृत किया गया. लेकिन उनके इस बयान से हलचल मच गई कि पार्टी नेतृत्व यदि विजय का श्रेय लिया करता है, तो उसे पराजय की ज़िम्मेदारी भी उठानी चाहिए.


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उनका बयान राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में हाल के विधानसभा चुनावों में मिली हार के बारे में था. ज़ाहिर है, उनके निशाने पर पार्टी अध्यक्ष, स्वयंभू मैकियावेली, अमित शाह थे, जिन्हें आप चाहें तो स्वदेशी कूटनीतिज्ञ चतुर चाणक्य मान सकते हैं.

अचानक से, गडकरी भगवा खेमे में दावेदार के रूप में सामने आ गए हैं. मीडिया में पहले ही इस तरह की चर्चा चलती रही है कि यदि आगामी चुनावों में भाजपा को 200 से कम सीटें आईं तो गडकरी प्रधानमंत्री पद के वैकल्पिक उम्मीदवार हो सकते हैं.

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चूंकि इस तरह की तमाम संख्याएं अभी महज अटकलें हैं, राजनीतिक अफवाहों की गंगोत्री माने जाने वाले संसद के सेंट्रल हॉल में मई 2019 की संभावित स्थिति की परिकल्पना करने का खेल शुरू हो गया है.

प्रसिद्धि और बदनामी से जुड़े इस ऐतिहासिक हॉल में पत्रकार और पूर्व-सांसद इतने भरोसे के साथ दलीलें देते हैं मानो चुनाव परिणाम पहले से ज़ाहिर हैं! संसद के मौजूदा सदस्य हॉल में शांत मुद्रा में रहते हुए इन तर्कशील भारतीयों को भय और बेपरवाही के मिले-जुले भाव से सुनते हैं. वे चुनाव में पार्टी टिकट मिलने को लेकर भी आश्वस्त नहीं हैं! पर निश्चित रूप से, भाजपा सांसदों और नेताओं ने अपने मसीहा – या फिर से स्वदेशी उपमा दूं तो भगवान श्रीकृष्ण – मोदी पर भी सवाल उठाने लगे हैं!

आखिरकार, एक मोदीभक्त ने उन्हें श्रीकृष्ण करार दिया है, जिसने मोदी अवतार में भारत को हिंदू धर्म की बुलंदियों तक पहुंचाया है.

जब गप्पबाज़ भाजपा के भीतर प्रधानमंत्री पद के लिए मोदी के संभावित उत्तराधिकारी पर चर्चा कर रहे होते हैं, तो उनका आत्मविश्वास से भरी अपनी चर्चा में खलल डालने वालों से भी सामना होता है. अनुमान यही लगाया जाता है कि आम चुनाव में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरकर सामने आएगी. और तब, राष्ट्रपति उसे सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करने को बाध्य होंगे.


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लेकिन बहस करने वाले इस वर्ग में ऐसे भी लोग हैं जिनका अनुमान है कि ‘गठबंधन’ के रूप में या उसके बिना भी, विपक्ष के पास कहीं ज़्यादा सीटें होंगी. और ऐसे में ममता बनर्जी से लेकर चंद्रबाबू नायडू या शरद पवार तक प्रधानमंत्री कोई भी हो सकता है, यहां तक कि राहुल गांधी भी! किसने 1996 में देवगौड़ा के बारे में सोचा था?

परंतु इन बहसबाज़ों में ऐसे भविष्यविदों की संख्या बहुत कम है जो इस बात की अटकल लगाना चाहें कि प्रधानमंत्री नहीं रह जाने पर मोदी क्या करेंगे. इस सवाल का उनके पास कोई जवाब नहीं है. कुछ लोगों का अनुमान है कि मोदी नेता प्रतिपक्ष बनेंगे, जबकि कइयों का मानना है कि मोदी किसी और को नेता प्रतिपक्ष बनाएंगे और खुद रिमोट कंट्रोल का काम करेंगे! वह किसी मोर्चे के साथ साझा सरकार नहीं चला सकते. उनकी ‘दबंगई’ और तानाशाही शैली सहयोगी दलों को स्वीकार्य नहीं होगी और वह नाकाम साबित होंगे.

कुछ लोगों का यह भी मानना है कि मोदी और शाह कांग्रेस-विरोधी और भाजपा-विरोधी मोर्चों से कोई लचीला प्रधानमंत्री चुनने की कोशिश करेंगे जिसे कि वे नियंत्रित कर सकें, उदाहरण के लिए तेलंगाना राष्ट्र समिति के के चंद्रशेखर राव या ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक. भाजपा उन्हें बाहर से समर्थन देगी और आगे चलकर सरकार गिरा देगी, जैसा कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष सीताराम केसरी ने 1997 में देवगौड़ा सरकार के साथ या इंदिरा गांधी ने 1979 में चरण सिंह के साथ किया था.

मोदी-शाह-डोभाल की टीम मध्यावधि चुनाव की स्थिति बना देगी और इस दावे के साथ सत्ता में वापसी कर लेगी (जैसा इंदिरा गांधी ने 1980 में किया था) कि विपक्ष सरकार तक नहीं बना सकती, शासन की तो बात ही छोड़िए. वे और उनके समर्थक मोदी के ‘निर्णायक नेतृत्व’ को लेकर इतने संतुष्ट हैं कि मध्यावधि चुनाव में उन्हें पराजय की चिंता करने की ज़रूरत नहीं है! (हालांकि ऐसे में एक-राष्ट्र-एक-चुनाव का नारा कूड़े में चला जाएगा.)

निकट भविष्य को लेकर कुछ भयावह अटकलें भी हैं. जम्मू कश्मीर में बड़ा उपद्रव होगा और शायद कारगिल जैसा सीमित युद्ध भी, जो राष्ट्रवाद का जुनून पैदा कर सकेगा और मोदी दोबारा जीत जाएंगे. या द्वितीय अयोध्या आंदोलन के कारण भारी स्तर पर सांप्रदायिक मारकाट मचेगी, जिसके बाद, उनके आग्रह पर, देश संभालने के लिए सेना हस्तक्षेप करेगी.


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मोदी के समर्थक और विरोधी, दोनों ही पक्षों में लगभग सभी इस बात पर सहमत हैं कि मोदी मतदाताओं के ध्रुवीकरण में कामयाब रहे हैं और आगे इसे और बढ़ा सकते हैं. अटकलबाज़ों के अनुसार, इससे अराजकता फैलेगी, और उस स्थिति को सेना से बेहतर कौन संभाल सकता है?

ऐसे टिप्पणीकार रायशुमारी करने वाले अंतरराष्ट्रीय संगठन प्यू की रिपोर्ट का हवाला देते हुए बताते हैं कि भारत के 53 प्रतिशत लोग सैनिक शासन को तरज़ीह देते हैं. और, उन्हें लगता कि देश को मज़बूत नेतृत्व की ज़रूरत है. ऐसे लोग संसद के प्रति मोदी की उदासीनता का भी यह कहते हुए बचाव करते हैं कि लोकतंत्र नाकाम साबित हुआ है. संसद ज़्यादातर समय स्थगित रहती है, और वहां वैसे भी कोई कामकाज़ नहीं होता.

भारत का शिक्षित मध्यवर्ग भी इस बात से सहमत है कि ‘देश के नेता गिरे हुए हैं और पार्टियां अवरोधकारी.’ इसलिए ‘मज़बूत और निर्णायक नेतृत्व’ वक़्त की ज़रूरत है. यह राजनीति-विरोधी भावना आम है – और घरों में वे इस बारे में नियमित चर्चा करते हैं. वे कहते हैं, ‘मोदी अलग तरह का है’, ‘उसे पांच साल और मिलने चाहिए’.

इसके बाद बातचीत मनोविश्लेषण पर आ जाती है! व्यक्तित्व, उनकी खासियतें और काम करने की शैली आदि राजनीतिक विचारधाराओं, कार्यक्रमों और पार्टी प्रणाली से ज़्यादा महत्वपूर्ण हो गए हैं. मोदी कड़क है, कोई और नहीं. मोदी फैसले करता है और उनके गलत साबित होने पर भी, बिना खेद जताए, उसकी ज़िम्मेदारी लेता है. मोदी ईमानदार है, उसे खरीदा नहीं जा सकता और अगली पीढ़ी के लिए उसे पैसे बनाने की ज़रूरत नहीं है! उसका कोई परिवार, कोई बाल-बच्चा, कोई रिश्तेदार नहीं जो कि उसका फायदा उठा सके. ये हैं मोदीभक्तों के तर्क. (वे इस बात को नज़रअंदाज़ कर देते हैं कि मोदी वास्तव में शादीशुदा हैं और उन्होंने अपनी पत्नी को छोड़ रखा है.)


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बौद्धिक रूप से निठल्ले इस वर्ग को रफाल सौदे, नीरव मोदी के रहस्यमय तरीके से गायब होने तथा अंबानियों, अदानियों और रामदेव बाबा के उदय पर जवाब नहीं चाहिए. उन्हें लगाता है कि लिंचिंग के मामले और मौजूदा सांप्रदायिक माहौल भारत के स्थाई चरित्र का हिस्सा है, या ये हताश विपक्ष के झूठे आरोप भर हैं. उन्हें लगता है कि भारतीय रिज़र्व बैंक पर बहस और रघुराम राजन, अरविंद सुब्रह्मण्यम या उर्जित पटेल द्वारा की आलोचनाओं के पीछे या तो निहित स्वार्थ है, या ये सब वाम-उदारवादी ऋणात्मकता मात्र है जिसे गंभीरता से लेने की ज़रूरत नहीं.

इसलिए हम अपने सवाल पर वापस आते हैं: मोदी क्या करेंगे जब उनकी पार्टी को पराजय मिलती है और उसकी सीटों की संख्या 200 से कम, बल्कि 150 से कम रह जाती है?

क्या वह विपक्ष में बैठेंगे या संन्यास की घोषणा करेंगे या फिर गडकरी या राजनाथ सिंह को पार्टी का नेतृत्व करने देंगे? क्या वह पार्टी का पुनर्निर्माण करेंगे? नेताओं को बदलेंगे? या फिर विभिन्न आरोपों से और अदालती पचड़ों से उनका सामना होगा, और वे विभिन्न मामलों का मुक़ाबला करेंगे? क्या चुनाव पहले की तरह होंगे और सामान्य लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत परिणाम स्वीकार किए जाएंगे या व्यवस्था को धत्ता बताने की कोशिशें की जाएंगी?

अगले 100 दिन वास्तव में महत्वपूर्ण हैं तथा चिंता का, शायद उम्मीद का भी, सबब हैं.

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