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Thursday, 10 October, 2024
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मुश्किल घड़ी में मोदी-शाह का नेतृत्व

मोदी-शाह नेतृत्व रामविलास पासवान के आगे नतमस्तक क्यों हो गया? सहयोगी दल बीजेपी की बांह मरोड़ रहे हैं और खुद बीजेपी नेताओं की भी जुबान खुल गई है.

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सोलहवीं लोकसभा की जीत भाजपा की जीत से कहीं ज्यादा, नरेंद्र मोदी के नेतृत्व और अमित शाह के रणनीति की जीत थी. बीते साढ़े चार साल में पार्टी फोरम के भीतर यही एक तथ्य स्थापित किया गया था. ऐसे में तीन राज्यों में हार के लिए क्या पार्टी जिम्मेवार है या फिर नरेंद्र मोदी और अमित शाह?

नितिन गडकरी ने क्या कहा, क्या नहीं कहा, यह खंडन मंडन अपनी जगह, लेकिन यह सवाल पार्टी फोरम पर कई स्तरों में तैर रहा है. संघ परिवार के भीतर भी मोदी शाह के नेतृत्व को लेकर बेचैनी उभरने लगी है. यह बेचैनी आखिर किस बात पर है?

क्या पार्टी और परिवार के भीतर ही मोदी का तिलिस्म टूट गया है?

हां. कुछ हद तक अब मोदी-शाह की जोड़ी बाहर ही नहीं, संगठन के अंदर भी कमजोर हुई है. इसका लक्षण सिर्फ नितिन गडकरी का बयान नहीं है. इसके लक्षण संघ नेताओं के बयान और पार्टी फोरम पर होने वाली आम चर्चाओं में भी नजर आने लगा है. नितिन गडकरी पार्टी के भीतर जिस ‘विनम्रता के भाव के अभाव’ की तरफ इशारा कर रहे हैं, वह मोदी-शाह की तरफ ही इशारा है. पार्टी के भीतर अघोषित तानाशाही से दम घुटते नेताओं को तीन राज्यों में बीजेपी की हार ने जैसे मौका दे दिया है कि वो विनम्रता का सवाल उठाकर सांस ले सकें.


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साढ़े चार साल में मोदी-शाह का व्यवहार पार्टी फोरम पर तानाशाह जैसा ही रहा है. किसी भी नीतिगत निर्णय में कभी पार्टी के संबंधित नेताओं से कोई सलाह नहीं ली गयी. मोदी-शाह की जोड़ी ने गुप्त बैठकों में फैसले लिये और फिर अमित शाह ने उन्हें पार्टी नेताओं को सुना दिये.

अटल-आडवाणी की ऐतिहासिक जोड़ी के साथ काम कर चुके नेताओं के लिए यह एक बिल्कुल नया अनुभव था. चाहे एससी/एसटी एक्ट में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने का निर्णय हो या फिर हाल-फिलहाल में राम विलास पासवान को 6 लोकसभा सीट देने और रामविलास पासवान को राज्यसभा में भेजने का निर्णय. पार्टी के भीतर किसी से चर्चा नहीं की गयी.

आप कह सकते हैं कि यह भाजपा और लोजपा से ज्यादा अमित शाह और राम विलास पासवान का समझौता था. सच्चाई ये है कि भाजपा की बिहार इकाई का शायद ही कोई नेता या कार्यकर्ता हो, जो पासवान के साथ मिलकर या उन्हें इतनी अधिक सीटें देकर चुनाव मैदान में जाना चाहता हो.

नेतृत्व और नेता के नीचे एक तीसरा वर्ग है सांसद और विधायकों का. मोदी-शाह के नेतृत्व में इन जन प्रतिनिधियों की भी घोर उपेक्षा हुई है. इन्हें जनप्रतिनिधि मानने की बजाय मोदी-शाह की जोड़ी ने सरकार का प्रतिनिधि बनाने की कोशिश की. सांसदों के साथ होने वाली बैठकों में उनकी समस्या सुनने की बजाय शुरुआत से ही उन्हें सरकार की उपलब्धियों का बखान करने के लिए कहा गया.

जनप्रतिनिधियों को पार्टी व्हिप जारी करके संसद में मौजूद रहने के लिए तो बार-बार कहा गया लेकिन इन्हीं जन प्रतिनिधियों से साफ कह दिया गया कि वे सरकार के काम-काज में कोई दखल नहीं देंगे. अधिकारियों को जनप्रतिनिधियों से ज्यादा ताकतवर बना दिया गया. इसका एक फायदा तो ये हुआ कि मोदी ने प्रधानमंत्री कार्यालय के जरिए समूचे तंत्र को अपने नियंत्रण में रख लिया, लेकिन नुकसान ये हुआ कि पार्टी के जनप्रतिनिधि अपनी ही जनता के बीच बेगाने हो गये. न सरकार ने उनकी सुनी और न सरकारी अधिकारियों ने.


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जाहिर है इसने पार्टी के भीतर एक असहज स्थिति निर्मित की है. नरेंद्र मोदी भी इस बात को जानते हैं और अमित शाह भी. 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद राज्यों में बीजेपी की एक के बाद एक होती लगातार जीत ने सबको चुप करा रखा था. लेकिन तीन राज्यों में पार्टी की हार और पार्टी के वैचारिक मुद्दों की साढ़े चार साल तक की गयी उपेक्षा ने पार्टी समर्थकों, कार्यकर्ताओं और नेताओं, सबको हतोत्साहित किया है. न तो नेता निजी स्तर पर कार्यकर्ताओं के लिए कुछ कर पाये हैं और न ही वैचारिक स्तर पर किसी काम का उनके पास संतोष है.

ऐसे में नितिन गडकरी का बयान उसी हताशा का छोटा सा लक्षण है. अकेला राम मंदिर ही ऐसा मुद्दा नहीं है जिस पर किसी प्रगति के इंतजार में साढ़े चार साल सोते हुए बीत गये. मानव संसाधन मंत्रालय में भी इस बार संघ वैचारिक स्तर पर कुछ भी ऐसा नहीं कर पाया जैसा वह वाजपेयी काल में कर सका था. तब शिक्षा संस्थानों और पाठ्यक्रमों को वामपंथियों के प्रभाव से मुक्त करने की गंभीर कोशिश मुरली मनोहर जोशी ने की थी और उसका असर भी हुआ था. इस बार ऐसी कोई उपलब्धि सरकार के खाते में नहीं है, जिसे वह अपने कार्यकर्ताओं और समर्थकों को दिखा सके.


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जाहिर है इन स्थितियों के लिए मोदी शाह का ‘कड़क’ नेतृत्व जिम्मेवार है जो शुरू से ही सर्वसहमति की बजाय पार्टी के भीतर सिर्फ अपनी राय के आधार पर कार्य कर रहा था. कार्यकर्ताओं की सहभागिता की बजाय उनके साथ कर्मचारी की तरह व्यवहार करना शुरू कर दिया था. ऐसे में मोदी शाह के सामने ये चुनौती तो प्रस्तुत होनी ही थी.

देखना ये है कि पार्टी के भीतर पनपा यह असंतोष विद्रोह के स्तर तक जाता है या नहीं? हो सकता है कि पार्टी यहां से सुधार के रास्ते पर चले. पार्टी में विद्रोह हो या न हो लेकिन तीन राज्यों में भाजपा की हार ने पार्टी के भीतर ही मोदी-शाह की साख पर सवाल जरूर खड़ा कर दिया है.

(लेखक विस्फोट डॉट कॉम के संपादक हैं और हिंदुत्व की विचारधारा के टिप्पणीकार हैं.)

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