अब जब राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में मतदान समाप्त हो चुका है, तो अब बड़ा सवाल उठ रहा है कि इन राज्यों में भारतीय जनता पार्टी के कद्दावर नेता वसुंधरा राजे, शिवराज सिंह चौहान और रमन सिंह का क्या होगा? क्योंकि भाजपा आलाकमान का संदेश बिलकुल साफ है कि, ‘इन राज्यों में उन्हें नया नेतृत्व चाहिए और इन बड़े नेताओं का समय खत्म हो चुका है. चुनाव के दौरान पार्टी ने जो ‘सामूहिक नेतृत्व’ पर जोर डाला है, इसका मतलब भी यही था.’
लेकिन क्या यह कद्दावर नेता ऐसा करने को तैयार हैं? क्या वह इस बात को मानने को तैयार होंगे की उनका राजनितिक वर्चस्व का समय ख़त्म हो गया है और अब उन्हें रिटायरमेंट की तैयारी करनी चाहिए? हालांकि, 64 वर्षीय चौहान इसके लिए बहुत छोटे हैं. 70 वर्षीय सिंधिया राजघराने की राजे को निर्देशित नहीं किया जा सकता. 71 वर्षीय सिंह इन संभावाओं के प्रति निर्विकार दिखतें हैं लेकिन उनका समभाव का प्रदर्शन भ्रामक हो सकता है. यदि भाजपा अपने राज्यों में शानदार जीत दर्ज करती है, तो उनके पास आलाकमान की इच्छा को मानने और उन्हें फिर से एक नई जिम्मेदारी और पोस्ट की उम्मीद करने के अलावा कोई विकल्प नहीं होगा.
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परिदृश्य और अनुमान
हालांकि, इसके दो अन्य परिदृश्य भी हैं. सबसे पहला, यदि भाजपा जीतती है वो भी मामूली अंतर से या फिर खंडित जनादेश आता है, तो इन दिग्गजों के लिए यह सबसे अच्छा परिदृश्य बनेगा. भाजपा को सरकार बनाने और चलाने के लिए उनका सहारा लेना होगा. ऐसे हालात में स्थिर सरकार प्रदान करने के लिए पार्टी के पास किसी भी राज्य में कोई दूसरा नेता नहीं है. यही कारण है कि राजे ने 200 में से कम से कम 60 सीटों पर अपने वफादारों के लिए प्रचार क्यों किया, जबकि केंद्रीय नेतृत्व ने उन्हें अभियान में शामिल करने में ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाई थी.
इस सन्दर्भ में , राजस्थान के सीएम अशोक गहलोत के लिए भी यह सबसे अच्छी स्थिति है. 2008 में 200 सदस्यीय विधानसभा में 96 विधायकों के साथ उन्होंने एक स्थिर सरकार चलाई. यही एक कारण है कि कांग्रेस आलाकमान को 2018 में सचिन पायलट के दावों को नजरअंदाज करना पड़ा और गहलोत पर वापस आना पड़ा. 2018 में पार्टी बहुमत के निशान से एक पीछे रह गई थी .
भाजपा के दिग्गजों के लिए दूसरा परिदृश्य देखें- वह है, इन चुनावों में पार्टी की हार. ऐसे नतीजे साबित करेंगे कि आलाकमान ने सामूहिक नेतृत्व के नारे को लेकर इन दिग्गजों को कमजोर करके बड़ी भूल की है. इसके बाद भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व उन्हें शांत करने और पुरस्कृत करने के लिए आगे आएगा.
याद है कर्नाटक में क्या हुआ? आलाकमान ने पहले बीएस येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री पद छोड़ने के लिए मजबूर किया और फिर विधानसभा चुनाव में भाजपा को झटका लगने तक उन्हें कमजोर करते रहे. विधानसभा चुनाव के नतीजों से चिंतित, भाजपा आलाकमान ने उनके बेटे विजयेंद्र को पार्टी की राज्य इकाई का प्रमुख और उनके वफादार,आर अशोक, को विधानसभा में विपक्ष के नेता नियुक्त करके बीएसवाई को खुश करने के कोशिश की है. कर्नाटक के घटनाक्रम को राजे, चौहान और सिंह ने काफी उत्सुकता से देखा होगा.
अब बीजेपी आलाकमान के विकल्पों पर नजर डालें. बेशक, इन राज्यों में शानदार जीत उन्हें नेतृत्व में पीढ़ीगत बदलाव के लिए सक्षम बनाएगी. लेकिन अगर पार्टी हार जाती है या त्रिशंकु सदन होता है तो क्या होगा? कर्नाटक की स्थिति अलग थी. दक्षिणी राज्य में भाजपा का मुख्य आधार बीएसवाई, या लिंगायत वोट बैंक रहा है जिस पर उसका नियंत्रण है. अगर पिछले रिकॉर्ड पर नजर डालें तो कई भाजपा नेता जो सोचते थे कि वे पार्टी से बड़े हो गए हैं, जैसे कल्याण सिंह और उमा भारती—को मुंह की खानी पड़ी.
येदियुरप्पा एकमात्र ऐसे नेता थे जिन्होंने बगावत के बाद विधानसभा चुनाव में बीजेपी की हार सुनिश्चित त की थी. यही कारण था कि पार्टी के पीएम उम्मीदवार बनने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तुरंत उन तक पहुंचे और उन्हें पार्टी में वापस लाए.
मोदी-शाह का दृष्टिकोण क्या होगा?
यहां सवाल यह है कि अगर इन विधानसभा चुनावों के नतीजे उनकी उम्मीदों के मुताबिक नहीं रहे तो क्या मोदी और गृह मंत्री अमित शाह भी चौहान, राजे और सिंह को उसी तरह मनाने की पूरी कोशिश करेंगे? मेरे सहयोगी अमोघ रोहमेत्रा ने राजस्थान के ग्राउंड रिपोर्ट में बताया कि भले ही राजे एक लोकप्रिय जननेता रहीं, लेकिन उनके समर्थक बीजेपी और पीएम मोदी के प्रति समान रूप से प्रतिभाव हैं. राज्य सीएम का चेहरा न भी हों, लेकिन इससे उनकी वोटिंग प्राथमिकताएं नहीं बदलेंगी.
जिस तरह से भाजपा ने 2018 के विधानसभा चुनावों में हारने के बाद 2019 के लोकसभा चुनाव में इन राज्यों में अपना वर्चस्व बनाए रखा, उससे पता चलता है कि दक्षिणी राज्यों के विपरीत, उत्तरी राज्यों में मोदी फैक्टर बहुत काम करता हैं. इसके अलावा, भले ही उत्तरी राज्यों में बड़े जन नेता उभरे, लेकिन वे पार्टी से आगे नहीं बढ़ पाए. भारती ने भले ही 2003 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को जीत दिलाई थी, लेकिन एक बार जब उन्हें सीएम पद छोड़ना पड़ा और उनकी जगह पर पहले बाबूलाल गौर और फिर चौहान को लाया गया तो लोगों ने पार्टी के फैसले को स्वीकार कर लिया.
राजस्थान में भैरों सिंह शेखावत दशकों तक जनसंघ और बीजेपी का चेहरा रहे. तब राजस्थान में बीजेपी का मतलब शेखावत था. 2002 में, नेतृत्व में पीढ़ीगत परिवर्तन करने की रणनीति के तहत, शेखावत को भारत के उपराष्ट्रपति के रूप में दिल्ली स्थानांतरित कर दिया गया, और राजे को राज्य भाजपा प्रमुख के रूप में लाया गया.2003 में, उन्होंने भाजपा को पहली बार विधानसभा में अपने दम पर बहुमत हासिल करने में मदद की.
यह और बात है कि उन दिनों इस तरह के बदलाव उन नेताओं के परामर्श से किए जाते थे. राजे को शेखावत की सहमति से लाया गया था. बाद में जब उन्होंने उसकी छाया से बाहर निकलने की कोशिश की तो दोनों में मतभेद हो गया. उनके दामाद नरपत सिंह राजवी उनकी सरकार में मंत्री बने, लेकिन वह कभी भी उनके पसंदीदा नहीं रहे. संयोग से, दो दशक बाद, 2023 के विधानसभा चुनाव में, कथित तौर पर राजे के प्रति उनकी वफादारी के कारण, राजवी को उनके विद्याधर नगर निर्वाचन क्षेत्र से टिकट नहीं दिया गया. बाद में बगावत को भांपते हुए आलाकमान ने उन्हें दूसरी सीट से उम्मीदवार बना दिया.
खैर मुख्य बिंदु पर वापस आएं. यह देखते हुए कि मोदी लहर राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में लोकसभा चुनावों में जीत हासिल करने के लिए जानी जाती है, क्या भाजपा आलाकमान 3 दिसंबर के नतीजों की परवाह किए बिना राजे, चौहान और सिंह को हाशिये पर धकेलने की अपनी योजना पर आगे बढ़ेगा ? उत्तर है: हां, यदि भाजपा ठोस जीत हासिल करती है तो. यदि परिणाम मिश्रित या प्रतिकूल हों तो यही जबाब न में बदल जाएगा क्योंकि मोदी और शाह 2024 से पहले जोखिम लेने से बच रहे हैं.
(अनुवाद: पूजा मेहरोत्रा)
डीके सिंह दिप्रिंट में राजनीतिक संपादक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.
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