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Monday, 23 December, 2024
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क्या था भारत-पाकिस्तान के बीच अल्पसंख्यकों से जुड़ा नेहरू-लियाकत समझौता, CAA क्यों है जरूरी

नेहरू-लियाकत समझौते के तहत यह सुनिश्चित करने की कोशिश की गई थी कि दोनों देशों में किसी भी हालत में अल्पसंख्यकों के साथ किसी तरह का भेदभाव न हो और उन्हें हर तरह से पूरी सुरक्षा सुनिश्चित कराई जाए.

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नागरिकता (संशोधन) अधिनियम-2019 संसद के दोनों सदनों में दिसंबर 2019 में पारित हुआ था. चार वर्ष की लंबी जद्दोजहद के बाद अंततः उसकी अर्हता और प्रक्रिया संबंधी 39 पृष्ठ की विस्तृत नियमावली कल 11 मार्च, 2024 को भारत के राजपत्र (गजट) में अधिसूचित कर दी गयी है. इससे इस अधिनियम के क्रियान्वयन का मार्ग प्रशस्त होगा. यह संविधान-निर्माताओं के वायदे को पूरा करने के लिए की गयी एक निर्णायक पहल है.

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 5 से 11 तक में नागरिकता के नियम निर्धारित किये गए हैं. 26 जनवरी, 1950 को भारत का संविधान लागू होते ही ब्रिटिश भारत में जन्म लेने वालों को उसी दिन से भारत की नागरिकता मिल गई थी. लेकिन जो लोग पूर्व-रियासतों के निवासी थे, उनमें से बहुत-से लोगों ने भारत की नागरिकता नहीं ली थी.

अंततः 1955 में नागरिकता कानून बनाकर उन सबको भारत की नागरिकता दी गई. इस कानून में समय-समय पर जैसे 1986, 1992, 2003 और 2005 में गोवा, दमन-दीव, और दादरा व नगर हवेली, पांडिचेरी, कराईकल, माहे, यनम के अलावा बांग्लादेश और पाकिस्तान से भूमि विवादों को सुलझाकर भारत में मिलाए गए क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को भारत की नागरिकता देने के लिए कानूनी संशोधन किए गए.

इसी क्रम में मुस्लिम बहुल पड़ोसी देशों-पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के धार्मिक आधार पर प्रताड़ित अल्पसंख्यकों- हिन्दू, सिख, ईसाई, बौद्ध,जैन और पारसी समुदायों को भारत की नागरिकता देने के लिए नागरिकता संशोधन अधिनियम-2019 पारित हुआ था.

क्या है प्रक्रिया

गजट में अधिसूचित नियमावली सरल, सुगम और संवेदनशील है. इसमें नागरिकता प्राप्त करने की तमाम अड़चनों को दूर करने के लिए जटिल प्रक्रिया का सरलीकरण किया गया है.

इसके अंतर्गत आवेदक को अपने या अपने पिता/पितामह/प्रपितामह के पाकिस्तान/बांग्लादेश/अफगानिस्तान सरकार द्वारा जारी वैध या समाप्त हो चुके पासपोर्ट या वहां की नागरिकता सम्बन्धी कोई भी दस्तावेज, भारत सरकार द्वारा जारी आवासीय परमिट या जन्म/विवाह प्रमाण-पत्र, आधार कार्ड, पैन कार्ड, ड्राइविंग लाइसेंस, राशन कार्ड, बैंक पासबुक, डाकघर खाता, जीवन बीमा पॉलिसी आदि) 20 दस्तवेज़ों में से कोई भी एक अपने आवेदन के साथ जमा करना होगा.

इनमें से कोई प्रमाण-पत्र न होने पर शपथपत्र देकर अपनी अर्हता सम्बन्धी घोषणा करनी होगी. भारत में शरण लेने की तिथि के सम्बंध में ग्राम पंचायत, नगर पालिका अथवा नगर निगम आदि स्थानीय शासी निकायों द्वारा जारी प्रमाण-पत्र को भी मान्यता प्रदान की गयी है. जिलाधिकारी कार्यालय की जगह अब यह आवेदन केंद्रीकृत ऑनलाइन पोर्टल पर किया जा सकेगा.

अधिनियम में अभ्यर्थी द्वारा जमा किये जाने वाले मान्य दस्तवेज़ों की सूची बहुत सीमित थी. अब उसे उसे काफी व्यापक बनाया गया है. इसके अलावा आठवीं अनुसूची में उल्लेखित 22 भाषाओं में से किसी एक के ज्ञान सम्बन्धी किसी शिक्षा संस्थान द्वारा जारी किया गया प्रमाण-पत्र भी अनिवार्य था.

साथ ही, स्वयं के अलावा दो भारतीय नागरिकों से अर्हता सम्बन्धी शपथपत्र देना भी अनिवार्य था. अब इन तमाम सख्त नियमों और जटिल प्रक्रियाओं को सरलीकृत किया गया है, ताकि लक्षित समुदाय को इस अधिनियम का अपेक्षित और त्वरित लाभ मिल सके.

2019 से लेकर आजतक पश्चिम बंगाल, केरल, तमिलनाडु, दिल्ली और पंजाब आदि विपक्ष शासित राज्यों द्वारा इसका खुलकर विरोध किया जा रहा है. यह विरोध मुस्लिम तुष्टीकरण की परम्परागत राजनीति का परिणाम है.

इसप्रकार साम्प्रदायिक राजनीति करने वाले इन दलों और इनके द्वारा शासित सरकारों के असहयोग के मद्देनजर आवेदन-प्रक्रिया को केंद्रीकृत करते हुए नागरिकता प्रदान करने के लिए अब एक ‘केंद्रीय सक्षम समिति’ का गठन किया जाएगा. उसमें संबंधित राज्य सरकारों का भी प्रतिनिधित्व रहेगा.

इस समिति के सहयोग के लिए जिला स्तरीय समितियों का भी गठन किया जाएगा जोकि प्रारंभिक कार्रवाई करेंगी. इस बदलाव से राज्य सरकारों के अनावश्यक विरोध और हस्तक्षेप को नियंत्रित किया जा सकेगा. उल्लेखनीय है कि संविधान में नागरिकता केन्द्रवर्ती सूची का विषय है.

यह चिंताजनक तथ्य है कि सीमावर्ती मुस्लिम देशों में आजतक भी गैर-मुस्लिमों अर्थात् हिन्दू, सिख, ईसाई, जैन, बौद्ध और पारसी आदि अल्पसंख्यक समुदायों के साथ अमानवीय व्यवहार और उत्पीड़न होता रहता है. 1947 से ही मुस्लिम बहुल पड़ोसी देशों में जारी इस धार्मिक प्रताड़ना के कारण भारत में विस्थापित लोगों की संख्या लगातार बढ़ी है.

अल्पसंख्यकों के संरक्षण के लिए हुआ था नेहरू-लियाकत समझौता

अल्पसंख्यकों के संरक्षण के लिए हुए “नेहरू-लियाकत” समझौते के अनुपालन में पाकिस्तान के असफल हो जाने पर प्रताड़ित धार्मिक अल्पसंख्यकों को स्वीकारना हमारा संवैधानिक और मानवीय दायित्व है.

नेहरू-लियाकत समझौते के तहत यह सुनिश्चित करने की कोशिश की गई थी कि दोनों देशों में किसी भी हालत में अल्पसंख्यकों के साथ किसी तरह का भेदभाव न हो और उन्हें हर तरह से पूरी सुरक्षा सुनिश्चित कराई जाए.

जो लोग सालों से धार्मिक कारणों से प्रताड़ित हैं, जिनका घर-बार, संपत्ति, आश्रय सब छूट चुका है, क्या उनको सामान्य जीवन जीने के अधिकार से भी वंचित कर दिया जाए? और क्या एक ऐसे देश को उनकी उपेक्षा करनी चाहिए वे जिसके विभाजन-पूर्व नागरिक थे. उनको उनकी सुरक्षा, सम्मान और अधिकारों के लिए आश्वस्त भी किया गया था.

जिस धार्मिक विश्वास के साथ वे पले-बढ़े हैं, जिस आस्था को वे अपने जीवन से अधिक मूल्यवान मानते हैं, उसी आस्था और विश्वास के कारण उनको अपमान, उपेक्षा और उत्पीड़न सहना पड़ता है.

पचहत्तर साल पहले वे इसी देश के निवासी /नागरिक थे तो स्वाभाविक है कि वे अपनी मातृभूमि भारत से ही शरण और सहायता की आशा करेंगे. एक सार्वभौम राष्ट्र के लिए इस समस्या का और अपने पूर्व-आश्वासन को पूरा करने का संवैधानिक समाधान आवश्यक था.

इसलिए पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के उत्पीड़ित अल्पसंख्यकों (जोकि दशकों से अवैध प्रवासियों के रूप में रह रहे हैं) के मानवाधिकारों की रक्षा-हेतु नागरिकता प्रदान करने वाला यह विधेयक आवश्यक था. ये देश अपने अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा करने में सर्वथा असमर्थ रहे हैं.

अत: भारत ने मानवता के आधार पर अविभाजित भारत के अपने नागरिकों की सुरक्षा के लिए अपना कर्तव्य समझ कर यह संशोधन किया है. इस संशोधन का उद्देश्य धर्म के कारण प्रताड़ित उन अल्पसंख्यकों को सम्मान का जीवन देना है जो इन देशों में अपने धर्म का अनुसरण नहीं कर पा रहे हैं. नागरिकता अधिनियम 1955, के अनुसार अवैध प्रवासी भारत के नागरिक नहीं हो सकते थे.

वे नागरिकता अधिनियम 1955, की धारा 5 के अधीन नागरिकता के लिए आवेदन करते थे, किंतु यदि वे अपने भारतीय मूल का सबूत देने में असमर्थ थे, तो उन्हें उक्त अधिनियम की धारा 6 के तहत ”प्राकृतिकरण” (Naturalization) द्वारा नागरिकता के लिये आवेदन करने को कहा जाता था. यह उनको बहुत से अवसरों एवं लाभों से वंचित करता था.

नागरिकता संशोधन अधिनियम में यह प्रावधान था कि प्राकृतिक रूप से नागरिकता प्राप्त करने के लिए इन व्यक्तियों (अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान के हिंदुओं, सिखों, बौद्धों, जैनियों, पारसियों और ईसाइयों को) को कम से कम 11 वर्ष भारत में रहना चाहिए लेकिन इस नवीन अधिनियम में इस अवधि को घटाकर 5 वर्ष कर दिया गया अर्थात् वे भारत में रहने के 5 सालों के बाद ही भारत के नागरिक बन जायेंगे.

धर्म के आधार पर हुए विभाजन से ही इन इस्लामिक देशों का गठन हो हुआ था. इसीलिए वहां के मुस्लिम समुदाय के लिए यह संशोधन कोई प्रावधान नहीं करता है क्योंकि इन देशों में मुस्लिम न तो अल्पसंख्यक हैं और न ही धार्मिक आधार पर उन्हें वहां किसी उत्पीड़न/प्रताड़ना का सामना करना पड़ रहा है.

भारत के अल्पसंख्यकों की नागरिकता नहीं होगी प्रभावित

इससे किसी भी भारतीय अल्पसंख्यक विशेष कर मुस्लिम समुदाय की नागरिकता भी किसी प्रकार से प्रभावित नहीं हो रही है. यह संशोधन किसी की नागरिकता का हनन नहीं कर रहा, बल्कि वंचितों को कानूनन अधिकार दे रहा है.

यह अधिनियम किसी को बुलाकर भी नागरिकता नहीं दे रहा, बल्कि जिन्होंने 31 दिसंबर, 2014 की निर्णायक तारीख तक भारत में प्रवेश कर लिया है, वे ही भारतीय नागरिकता के लिए केंद्र सरकार के पास आवेदन कर सकेंगे.

इन इस्लामिक देशों के इस्लाम मतावलंबी (मुसलमान) नागरिक भी भारतीय नागरिकता के लिए “आवेदन द्वारा नागरिकता” प्रावधान के अंतर्गत आवेदन कर सकते हैं. यह नियम सभी विदेशी व्यक्तियों के लिए लागू है. भारत सरकार ऐसे आवेदनों के ऊपर विचार करने के बाद उन्हें नागरिकता प्रदान करती है.

उदाहरणस्वरूप, पाकिस्तानी गायक/कलाकार अदनान सामी को 1 जनवरी, 2016 को भारतीय नागरिकता प्रदान की गयी है. यह संशोधन केवल तीन देशों से घोर धार्मिक प्रताड़ना के कारण विस्थापित छह अल्पसंख्यक समुदायों को निर्धारित मानदंडों को पूर्ण करने पर ही प्राथमिकता प्रदान करता है.

इसलिए राजनीतिक कारणों से इसका विरोध करना अतार्किक, अमानवीय और असंवैधानिक है. आम चुनाव की दहलीज पर खड़े विपक्ष को संवेदनशीलता, समझदारी और संयम का परिचय देते हुए शाहीन बाग के धरने और दिल्ली दंगों की पुनरावृति से बचना चाहिए.

(लेखक किरोड़ीमल कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)


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