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Thursday, 14 November, 2024
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पाकिस्तान की राजनीति और इस्लाम के बारे में खादिम हुसैन रिज़वी की लोकप्रियता और अचानक हुई मौत से क्या संकेत मिलता है

पाकिस्तान की कट्टरपंथी इस्लामी सियासत का चेहरा माने जाने वाले मौलाना खादिम हुसैन रिज़वी की अचानक मौत के बावजूद मजहबी कट्टरपंथ के प्रति लोगों का व्यापक आकर्षण खत्म नहीं होने वाला है. 

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पाकिस्तान के मौलाना खादिम हुसैन रिज़वी इस बृहस्पतिवार को लाहौर में अचानक चल बसे. भारतीय मीडिया ने इस खबर को हल्के में निपटा दिया.

रिजवी अभी 54 साल के ही थे और पूरी तरह स्वस्थ थे जो कि उनके प्रभावशाली, दाढ़ी वाले दमकते चेहरे से साफ झलकता था. अभी दो दिन पहले इस्लामाबाद में धरने के दौरान उन्होंने जो आग उगलती तकरीर की थी उसके वीडियो देखकर आप शायद ही विश्वास करते कि वे अचानक इस तरह गुजर जाएंगे.

आम धारणा यही है कि उनकी मौत कोविड के कारण हुई, हालांकि अस्पताल से जारी सर्टिफिकेट में साफ लिखा है कि यह उनकी मौत की वजह नहीं है. अस्पताल ने सिर्फ इतना बताया है कि वे अस्पताल में ‘आते ही चल बसे’. कोई पोस्ट मोर्टेम? विसरा जांच? गाज़ियों यानी पवित्र योद्धाओं के साथ ऐसे कोई बदसलूकी नहीं की जाती. तब तो निश्चित ही नहीं की जाती जब वे हुक्मरानों के चहेते हों, जो कि रिजवी थे.

बहरहाल, उनकी अचानक मौत ने सोशल मीडिया पर साजिश के पहलू का ढोल बजाने वालों में जान फूंक दी है. जाहिर तौर पर उनका किसी बीमारी के लिए इलाज नहीं चल रहा था, हालांकि अफवाहें हैं कि पिछले कुछ दिनों से वे बुखार और सांस लेने में तकलीफ से जूझ रहे थे लेकिन उनके भाषणों को, खासकर उनके आखिरी भाषण को देखिए जिसमें वे सरकार पर तंज़ कसते हुए कहते हैं कि ‘धरना देने के लिए मैं तेरी इजाजत लूंगा, यह मुगालता तूने कैसे पाल लिया? तेरे प्यो दा हैगा पाकिस्तान?’ इस भाषण में कहीं उनकी सांस टूटती नहीं नज़र आती.

मुझे अफसोस है कि मैं पंजाबी में दिए गए उनके भाषण को उसी अंदाज़ में नहीं रख पा रहा हूं, खासकर पाकिस्तानी पंजाब के पोटोहर क्षेत्र की पंजाबी को उनके खास लहजे में नहीं पेश कर पा रहा हूं. झेलम और सिंधु नदियों के बीच का यह निचला पठारी इलाका पाकिस्तानी फौज को खूब रंगरूट देता रहा है. यही वजह है कि बड़ी तादाद में फौजी उनके मुरीद हैं. और बताया जाता है कि रिज़वी खुद जनरलों और उनके महकमे के असर में थे.

लेकिन जैसा कि इस तरह के सभी पात्रों (ओसामा बिन लादेन समेत) के साथ होता है, उनके पांव उनकी जूती से बड़े हो गए थे. हाल में उन्होंने इस्लामाबाद में जो धरना दिया उसने इमरान खान और उनकी हुकूमत को भारी मुश्किल में डाल दिया. मौलाना की मांग थी कि वहां के फ्रांसीसी दूतावास को बंद किया जाए, पाकिस्तानी संसद फ्रांस के साथ तमाम राजनयिक संबंध खत्म करने का प्रस्ताव पास करे. मौलाना ने अपने समर्थकों तथा दुनिया भर के मुसलमानों का बार-बार आह्वान किया कि वे फ्रांसीसी राष्ट्रपति इमानुएल मैक्रों का सिर कलम कर दें.

मौलाना को खुदा ने भड़काऊ भाषण देने का वह बेबाक लहजा और वह साफ शब्दावली बख्शी है जो तमाम लफ़्फ़ाज़ नेताओं की खासियत हुआ करती है. इसलिए जब वे सेमुएल पैटी का सिर कलम करने वाले चेचेन्याई लड़के को गाज़ी कहकर बुलाते हैं, या इस तरह के हमले करने वाले मुसलमानों की तारीफ के पुल बांधते हैं तब उन्हें समझने के लिए पंजाबी का बहुत ज्ञान जरूरी नहीं है. एक भाषण में तो उन्होंने यह तक मांग की कि पाकिस्तान के सारे परमाणु बम फ्रांस पर गिरा दिए जाएं ताकि ऐसी ‘नापाक जमीन’ का वजूद ही न रहे. वैसे, यह कोई पहला मौका नहीं था जब उन्होंने किसी यूरोपीय देश के लिए ऐसी धमकी दी हो. 2018 में जब नीदरलैंड के नेता गीर्ट विल्डर्स ने कहा था कि वे पैगंबर पर कार्टून बनाने की प्रतियोगिता करवाना चाहते हैं, तब मौलाना ने नीदरलैंड पर भी परमाणु हमला करने का वादा किया था.

हमेशा की तरह उन्होंने अपनी ही शर्तों पर इस्लामाबाद में धरना खत्म करके उस शहर को राहत दी थी. उन्होंने एक प्रेस विज्ञप्ति लहराते हुए दावा किया कि सरकार ने उनकी हरेक मांग मान ली है और नेशनल असेंबली फ्रांस से राजनयिक रिश्ते तोड़ने का प्रस्ताव जल्द ही पास करने वाली है. जाहिर है, वे हुकूमत की बर्दाश्त की हद से बाहर चले गए थे. और ऐसा लगता है कि कोरोनावायरस को भी यह बर्दाश्त नहीं हुआ!


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रिज़वी का जन्म 22 जून 1966 को एटॉक के पास पिंडी गेब नामक गांव में हुआ था. लेकिन उनका राजनीतिक और एक तरह से मजहबी या इजाजत हो तो कहा जा सकता है कि सियासी-मजहबी जन्म 4 जनवरी 2011 को हुआ. इस दिन, पाकिस्तानी पंजाब के गवर्नर सलमान तासीर (लेखक आतिश के अब्बाजान) की सुरक्षा में तैनात एक सिपाही मुमताज़ कादरी ने उनका कत्ल कर दिया था. सलमान ने अपनी मौत का वारंट तभी लिख दिया था जब वे ईशनिंदा के लिए फांसी की सज़ा पा चुकी ईसाई महिला आशिया बीबी से मिले थे और उससे हमदर्दी जाहिर करते हुए ईशनिंदा कानून को खत्म किए जाने का सुझाव दिया था. सिपाही कादरी इस्लाम के सुन्नी सूफी-बरेलवी पंथ का मुरीद था और रिज़वी इस पंथ के प्रमुख मौलवी हैं. उस दौरान वे लाहौर के मशहूर दाता दरबार में तकरीर कर रहे थे. रिज़वी ने पहला मुद्दा कादरी का ही उठाया और मशहूर हो गए. उन्होंने उसे गाज़ी कहकर सम्मानित किया और मांग की कि उसूल के पक्के कादरी को माफी दी जाए. उन्होंने सरकार को चुनौती दी कि वह उसे सज़ा देकर तो दिखाए. सरकार अपने फैसले पर कायम रही.

कादरी को रावलपिंडी की अडियाला जेल में 29 फरवरी 2016 को फांसी दे दी गई. रिज़वी ने उग्र विरोध प्रदर्शनों का नेतृत्व किया. उनके संगठन ‘टीएलवाईआरए’, ‘तहरीक-ए-लब्बैक या रसूल अल्लाह’ (लब्बैक शब्द एक मुस्लिम प्रार्थना से लिया गया है जिसका अर्थ है अल्लाह के पैगंबर की सेवा में किया गया आंदोलन) के सह-संस्थापक और उनके कॉमरेड मुहम्मद अफ़जल कादरी ने भी फांसी की सज़ा बरकरार रखने वाले सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों के कत्ल का फरमान जारी कर दिया और कहा कि उन्हें उनके सुरक्षा गार्ड या ड्राइवर या रसोइया तक कोई भी कत्ल कर सकता है. किस्मत से किसी ने उनकी सलाह पर अमल नहीं किया.

रिज़वी का सितारा बुलंद होने लगा था. खासकर पंजाब और सिंध के कुछ हिस्सों और इसके दक्षिण में नाराज, अनपढ़, बेरोजगार नौजवानों की बढ़ती आबादी में रिज़वी की लोकप्रियता बढ़ रही थी, उन्हें ‘अल्लामा’ की उपाधि से नवाजा गया, जो मौत तक उनके साथ जुड़ा रहा. इस मामले के अगले साल ही उनकी ताकत अपने शिखर पर पहुंच गई.

मियां नवाज़ शरीफ की हुकूमत आ गई थी. इमरान खान की तरह रिज़वी को भी अपना आदमी मानने वाली पाकिस्तानी फौज को बड़ी खुशी हुई होगी जब मौलाना ने इस्लामाबाद में धरना दे दिया था, जो कि वहां दिए जाने वाले उनके कई धरनों में पहला था. इसके लिए बहाना यह बना कि सरकार ने पाकिस्तान में चुनाव के लिए भरे जाने वाले पर्चे में मुस्लिम उम्मीदवारों के लिए एक ‘बदनीयत बदलाव’ कर दिया था. इसमें यह शर्त जोड़ दी गई थी कि मुस्लिम उम्मीदवार को ‘खत्म-ए-नबूवत’ में पूर्ण और बिना शर्त आस्था जाहिर करनी होगी, यानी उन्हें यह घोषणा करनी होगी वे मोहम्मद को आखिरी पैगंबर कबूल करते हैं कि पैगंबर का कोई वारिस नहीं हो सकता और कि आप किसी और के उपदेशों का पालन नहीं करते. इसमें मंशा यह थी कि अहमदियों को परे रखा जाए.

नामजदगी के नये पर्चे में इस शर्त को पहले की तरह ‘शपथ’ न बताकर ‘घोषणा’ के रूप में दर्ज किया गया था. रिज़वी का कहना था कि यह इस्लाम और इसके पाक पैगंबर के खिलाफ साजिश है. सरकार ने कहा कि क्लर्कों की भूल से ऐसा हुआ. रिज़वी ने पुरानी भाषा को बहाल करने और कानून मंत्री, पूर्व जज ज़ाहिद हामिद को बर्खास्त करने की मांग की. उनकी दोनों मांगे मान ली गईं और उन्होंने अपनी फतह का ऐलान कर दिया. इस तरह अल्लामा खादिम रिज़वी नामक हस्ती का जन्म हुआ.


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उन्होंने अपना परचम फिर 2018 में लहराया, जब सुप्रीम कोर्ट ने आशिया बीबी को आरोप से बरी कर दिया. रिज़वी ने इसे मजहब की तौहीन बताया और फिर धरना शुरू कर दिया.

तब तक हुकूमत मुश्किल में फंस गई थी. बेचारी ईसाई महिला को जब बरी कर दिया गया था और उसके मामले की चर्चा पश्चिमी दुनिया में काफी फैल चुकी थी, तब उसे कैद में रखना आसान नहीं था. एक समय तो उसे चुपके से रावलपिंडी में एअर मार्शल नूर खान (1965 के युद्ध में पाकिस्तानी वायुसेना के प्रमुख) के नाम पर बने वायुसैनिक अड्डे ले जाया गया और वहां से चार्टर्ड विमान में नीदरलैंड ले जाया गया, जहां उसे शरण दी गई.

लेकिन रिज़वी सुर्खियों में आते रहे. उन्होंने ‘ज़िंदगी तमाशा ’ फिल्म पर ईशनिंदा का आरोप लगाकर रोक लगवा दी. बेशक उसमें उलेमा की कुछ आलोचना की गई थी और यह भी कहा गया था की उलेमाओं के हलके में ‘बच्चाबाजी’ (बच्चों का यौन शोषण) खूब चलती है. रिज़वी के संगठन के नाम पर कुछ युवा छात्रों ने कुछ कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के शिक्षकों की हत्या कर डाली और कुछ को घायल कर दिया. लेकिन रिज़वी ने इन सब में अपना हाथ होने से इनकार कर दिया था.
अब तक उन्होंने अपने संगठन को बाकायदा एक सियासी पार्टी ‘तहरीक-ए-लब्बैक पाकिस्तान’ (टीएलपी) में तब्दील कर दिया था. उनके वोटों का प्रतिशत बढ़ रहा था मगर इतना नहीं हुआ कि वे ज्यादा सीटें जीत सकें. यह भी पाकिस्तान की एक खासियत है कि यहां मजहबी पार्टियां सड़कों पर तो काफी मजबूत हैं लेकिन वोटरों को ज्यादा प्रभावित नहीं कर पाई हैं.

वैसे, रिज़वी के लिए चुनौतियां ज्यादा जटिल थीं. इसकी वजह यह है कि इमरान खान भी अपनी पार्टी और सियासत ज़्यादातर रूढ़िवादी इस्लाम के नाम पर चला रहे थे. संयुक्त राष्ट्र महासभा में 2019 में उन्होंने जो भाषण दिया था उसे ही देख लीजिए. कितनी शिद्दत से उन्होंने पश्चिमी देशों को याद दिलाया था कि वे वह सब करने से परहेज करें जिससे मुसलमानों को यह लगता हो कि ‘हमारे पवित्र पैगंबर की तौहीन हो रही है… यह हमें चोट पहुंचाती है.’ इमरान ने दुनिया को ईशनिंदा कानून अंग्रेजी में पढ़कर सुनाया. रिज़वी यही बात पंजाबी भाषा में कह रहे थे. मतदाताओं को दोनों में खास फर्क नहीं नज़र आया.

रिज़वी अब नहीं रहे. लेकिन अनपढ़, बेरोजगार और नाराज युवाओं की बढ़ती व्यापक आबादी में कट्टरपंथ के प्रति आकर्षण कायम है. और हुकूमत के लिए इस तरह के सुविधाजनक हथकंडों की जरूरत भी अभी खत्म नहीं होने वाली है. इस बीच, पाकिस्तान में साज़िशों की तरह-तरह की कहानियों की तरह रिज़वी की अचानक मौत को लेकर भी ऐसी कहानियां चलती रहेंगी.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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1 टिप्पणी

  1. Shekhar ji kuch aisa likhiye Jo apko lekhni ko shidh Kare ..chuti pakisatnio PR apni Kalam ki syahi barbad na kare

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