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Wednesday, 24 April, 2024
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जवाहरलाल नेहरू से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी क्या सीखना चाह सकते हैं

राष्ट्र निर्माण को ध्यान में रखते हुए नेहरू ने सभी मतभेदों को अलग रख तीन राजनीतिक विरोधियों को पहली कैबिनेट में शामिल किया था. क्या मोदी ऐसा कोई संदेश देंगे?

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प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी के सत्ता में छह वर्षों को कांग्रेस महात्मा गांधी, सरदार पटेल, लालबहादुर शास्त्री और नरसिम्हा राव से लेकर प्रणब मुखर्जी तक के अपने प्रतीकों और दिग्गजों को हड़पे जाने के प्रयासों से जोड़कर देखती है. हालांकि इसमें कितनी भूमिका खुद कांग्रेस द्वारा नेहरू-गांधी परिवार से बाहर के नेताओं को बढ़ावा देने से इनकार की है, ये एक अलग कहानी है. ऐसे समय जबकि भारत के आर्थिक विकास की कहानी पर कोरोनावायरस का साया पड़ने का खतरा है, मोदी शायद कांग्रेस की एक और शख्सियत, मनमोहन सिंह को अपनाना चाहें.

प्रधानमंत्री और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के उनके सहयोगी भारत की तमाम मौजूदा समस्याओं के लिए जवाहरलाल नेहरू को ज़िम्मेदार ठहराते हैं. लेकिन मोदी एक बार के लिए राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के नेहरू मॉडल की एक विशेषता को अपनाने की सोच सकते हैं.

नेहरू के प्रथम मंत्रिमंडल में उनके तीन राजनीतिक विरोधी शामिल थे— वित्त मंत्री आरके षणमुखम शेट्टी, उद्योग मंत्री श्यामा प्रसाद मुखर्जी और कानून मंत्री बीआर आंबेडकर. इसके पीछे वृहद राष्ट्रीय उद्देश्य के लिए राजनीतिक मतभेदों को अलग रखने का विचार था. क्या मोदी में भी राष्ट्र को राजनीति से ऊपर रखने का ऐसा संदेश देने का माद्दा है?

गायब सहयोगी

रविवार को पीएम मोदी की मन की बात में सारे परिचित तत्व थे— मनोबल बढ़ाने वाली प्रेरणा और आशा भरी कहानियां, अपनी सरकार की उपलब्धियों की सूची, जनता को राजनीतिक नेतृत्व की सफलताओं और असफलताओं का संरक्षक बनाकर सहभागिता वाले शासन का आह्वान और व्यक्तिगत तकलीफों को (वर्तमान में प्रवासी श्रमिकों की) बड़े राष्ट्रीय हितों के लिए दिया गया बलिदान करार देने की कोशिश.

यदि कोई ये सोचकर कार्यक्रम सुनने बैठा हो कि मोदी आसन्न आर्थिक संकट की गंभीरता और उससे निपटने की अपनी योजना की चर्चा करेंगे, तो उसे आत्मनिर्भरता  के दार्शनिक नारे के अलावा कुछ नहीं मिला होगा, वो भी दरअसल 2014 के मेक इन इंडिया के नारे का 2020 संस्करण है.

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अर्थव्यवस्था के लिए 20 लाख करोड़ की प्रोत्साहन ‘पैकेजिंग’ को लेकर अर्थशास्त्रियों से ज़्यादा भाजपा के नेता उत्साहित हैं. लेकिन उनके आशावाद से आसानी से सहमत नहीं हुआ जा सकता है, खासकर इसलिए भी क्योंकि एनडीए के यही नीति निर्माता कोविड से पहले के दिनों में आर्थिक मंदी की बात करने वाले किसी भी व्यक्ति को ‘क़यामत का दूत’ करार देते हुए खारिज कर रहे थे. इसलिए मोदी यदि मनमोहन सिंह की मदद लेते हैं तो इससे करोड़ों आम भारतीय और इस लेखक जैसे अर्थव्यवस्था के अज्ञानी आश्वस्त हो सकेंगे क्योंकि पूर्व प्रधानमंत्री का भारत को कई आर्थिक संकटों से सुरक्षित निकालने का प्रमाणित रिकॉर्ड रहा है— पहले 1990 के दशक के शुरुआती वर्षों में नरसिम्हा राव के वित्त मंत्री के रूप में और फिर 2007-08 के वैश्विक वित्तीय संकट के दौरान भारत के प्रधानमंत्री के रूप में.

किसी पर मोदी का पूरा भरोसा नहीं

वैसे भी, मोदी के वित्त मंत्रियों को उनका विश्वास हासिल रहा हो ऐसा दिखा नहीं है. कम-से-कम फैसला हो चुकने के बाद नीति निर्माण में उनकी भागीदारी को देखकर तो ऐसा ही लगता है. इसीलिए जनवरी में अर्थशास्त्रियों के साथ बजट-पूर्व परामर्श की प्रक्रिया में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण की अनुपस्थिति पर बहुतों को आश्चर्य नहीं हुआ था. हमें नहीं पता कि 24 मार्च को राष्ट्रीय लॉकडाउन की घोषणा करने से पहले प्रधानमंत्री ने फैसले के आर्थिक नतीजों पर उनसे चर्चा की भी थी या नहीं. लेकिन हमें वित्त मंत्री के अधीन आर्थिक रिकवरी के लिए टास्क फोर्स का गठन करने के बारे में प्रधानमंत्री की घोषणा का पता है, सरकार ने अभी उसकी रूपरेखा नहीं घोषित की है.

हालांकि सीतारमण के पूर्ववर्ती स्वर्गीय अरुण जेटली को सबकुछ पता होता था, ऐसा भी नहीं है. उदाहरण के लिए वित्त मंत्री के रूप में 2016 के नोटबंदी के फैसले में उनकी भागीदारी रहस्य ही बनी हुई है. देश में प्रचलित बड़े मूल्य के 86 प्रतिशत करेंसी नोटों को अवैध घोषित करने के लिए प्रधानमंत्री द्वारा राष्ट्र के नाम संबोधन के कुछ सप्ताह बाद एक दिन मुझे जेटली संसद के सेंट्रल हॉल में अकेले दिख गए. मैंने अपनी किस्मत को धन्यवाद दिया. उन्हें अकेले पाना, जब पत्रकारों ने उन्हें घेर ना रखा हो, बहुत ही दुर्लभ था. मैंने फुसफुसाते हुए पूछा, ‘सर, पूरी तरह से ऑफ-द-रिकॉर्ड, प्रधानमंत्री ने वास्तव में नोटबंदी पर आपके साथ कब चर्चा की थी?’ जवाब में उन्होंने वशीभूत करने वाली चिर-परिचित मुस्कान के साथ सवाल किया: ‘शोभना कैसी है?’ (एचटी मीडिया, जिसके लिए उन दिनों मैं काम कर रहा था, की अध्यक्ष और संपादकीय निदेशक शोभना भरतिया के बारे में सवाल.) मैं हैरान था. मुझे कुछ अस्पष्ट सा बुदबुदाना याद है, जब वह मुस्कुराते हुए मुझे देख रहे थे. उसी समय कुछ पत्रकारों को हमारी ओर बढ़ता देख मुझे राहत मिली. मुझे मेरा जवाब मिल चुका था.

वित्त और अर्थव्यवस्था के मामलों में प्रधानमंत्री मोदी का सलाहकार होने को लेकर समय-समय पर अनेक लोगों का नाम चला है लेकिन उनमें से किसी पर उनका पूर्ण भरोसा रहा हो, ऐसा ज़ाहिर नहीं हुआ.

ऐसा हुआ तो मोदी को मिलने वाले लाभ

एक क्षण के लिए ये कल्पना करें कि आसन्न आर्थिक संकट से देश को बचाने में सरकार की मदद के लिए मोदी अपने पूर्ववर्ती को एक सलाहकारी भूमिका निभाने के लिए आमंत्रित करते हैं. इससे क्या संदेश जाएगा! जब राष्ट्र को उनके ज्ञान और विशेषज्ञता की ज़रूरत हो तो क्या मनमोहन सिंह इनकार कर सकते हैं? वैसे भी, इस लेख के आरंभ में उल्लखित कांग्रेस के अनेक दिग्गजों की तरह मनमोहन सिंह को भी कांग्रेस कार्यालय की दीवारों पर टंगी और कभी-कभार संवाददाता सम्मेलनों में प्रदर्शित किसी सजावटी वस्तु जैसा बना दिया गया है.


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आपने पूर्व-और-संभावित कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को कितनी बार सिंह की उपलब्धियों की चर्चा करते सुना है? गांधी न्याय योजना का मसौदा तैयार करने में उनकी बजाय थॉमस पिकेटी या अभिजीत बनर्जी से मार्गदर्शन लेते हैं. अर्थव्यवस्था पर कोरोनावायरस के असर के बारे में गांधी को विदेश में बैठे अर्थशास्त्रियों बनर्जी और रघुराम राजन का वीडियो इंटरव्यू करता देख पूर्व प्रधानमंत्री को निश्चय ही हैरानी हुई होगी.

जहां तक मोदी की बात है, तो वह भारत के आर्थिक रोडमैप के निर्माण में मनमोहन सिंह को शामिल कर एक तीर से कम-से-कम तीन शिकार कर रहे होंगे.

सर्वप्रथम, ऐसे दौर के लिए विशेषज्ञता और अनुभव के मामले में कोई भी सिंह की बराबरी नहीं कर सकता. दूसरे, इससे मोदी सरकार के आर्थिक कुप्रबंधन के बारे में कांग्रेस के अभियान की हमेशा के लिए हवा निकल जाएगी. अधिक-से-अधिक मुख्य विपक्षी पार्टी सरकार की सहायता करने का श्रेय लेना चाहेगी, लेकिन इससे भाजपा की नींद नहीं उड़ेगी क्योंकि मोदी स्वयं इस खेल के सबसे बड़े उस्ताद हैं.

तीसरे, इससे मोदी एक राजनेता बनकर उभरेंगे, ऐसा व्यक्ति जो व्यापक राष्ट्रीय हित में अपने राजनीतिक मतभेदों को भुला सकता है और अपने विरोधी तक से मदद ले सकता है. इससे एक शक्तिशाली और निर्णायक नेता के रूप में उनकी छवि कमज़ोर नहीं होगी बल्कि उलटे इससे उनकी सार्वजनिक छवि में विनम्रता का अत्यावश्यक तत्व जुड़ सकेगा.

लेकिन यह सब कहने के बावजूद, यदि मनमोहन सिंह ने सलाहकारी क्षमता में भी मोदी सरकार के साथ काम करने से मना कर दिया तो? ऐसा हुआ तो मोदी हमेशा कांग्रेस पर सिर्फ आलोचना करने और राष्ट्रीय पुनर्निर्माण में भूमिका अदा करने का अवसर आने पर भाग खड़ा होने का आरोप लगा सकेंगे. दोनों ही हालत में मोदी एक राजनेता के रूप में उभरकर सामने आएंगे.

(व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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