दक्षिण एशिया में जाति, धर्म, लिंग आदि की असमानता दूर करने के लिए किए गए संघर्षों की वजह से बाबासाहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर का जन्मदिवस अब दुनिया के विभिन्न देशों में मनाया जाने लगा है.
यह एक अति महत्वपूर्ण बात है कि जिस दौर में थामस पिकेटी, जोसेफ स्टेग्लीज समेत दुनियाभर के तमाम अर्थशास्त्री विभिन्न देशों में बढ़ रही असमानता की बात कर रहे हैं, और उसका समाधान खोजने की कोशिश कर रहे हैं, उसी दौर में डॉ आंबेडकर के जन्मदिवस को समानता दिवस के रूप में मनाने की शुरुआत हो रही है.
ऐसे में यह देखना दिलचस्प हो जाता है कि आंबेडकर ने तत्कालीन भारत, जिसे दक्षिण एशिया कहा जाए तो ज़्यादा बेहतर होता है, क्योंकि तब के भारत में पाकिस्तान और बांग्लादेश भी शामिल था, में असमानता को कैसे देखा था, और उसको दूर करने के लिए क्या सुझाव दिए थे. साथ ही, क्या आज के परिप्रेक्ष्य में उन सुझावों की कोई महत्ता बची है?
असमानता की आंबेडकरवादी परिभाषा
बाबासाहेब आंबेडकर दक्षिण एशिया में फैली असमानता को श्रेणीगत असमानता मानते थे. उनके अनुसार इस प्रकार की असमानता में समाज के ऊपर के पायदान के लोगों के प्रति सम्मान बढ़ता जाता है और निचले पायदान के लोगों के प्रति अवमानना या अवहेलना बढ़ती जाती है. भारतीय समाज में व्याप्त असमानता की इस भावना की वजह से आज भी हम देखते हैं कि जब किसी उच्च श्रेणी के व्यक्ति की हत्या हो जाती है, तो हाहाकार मच जाता है, वहीं दूसरी तरफ़ तथाकथित निचली जाति के व्यक्ति की हत्या होने पर वैसी तीखी प्रतिक्रिया नहीं आती.
असमानता की इस समझ को भारत की जाति प्रथा पर शोध करने वाले फ़्रांसीसी समाजशास्त्रियों ने ‘स्टेटस और पावर’ के सिद्धांत से समझाने की कोशिश की है, जिसमें ‘स्टेटस और पावर’ साथ-साथ नहीं चलते. जैसे दलित समाज के किसी व्यक्ति के डीएम या एसपी के पद पर बैठने के बावजूद उसे उस सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा जाता, जिस दृष्टि से किसी सवर्ण समाज के डीएम या एसपी को देखा जाता है. पावर समान होते हुए भी दोनों के स्टेटस यानी रुतबे में अंतर रह जाता है.
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इसके अलावा आंबेडकर की असमानता की समझ मार्क्सवाद में व्याख्यायित असमानता की समझ से भी अलग थी. मार्क्सवादी ‘श्रम के विभाजन’ को असमानता का श्रोत मानते थे, जबकि आंबेडकर श्रमिकों के विभाजन (डिविजन ऑफ लेबरर्स) को भी असमानता का श्रोत मानते हैं. मार्क्सवाद के अनुसार श्रम का विभाजन उत्पादन के संसाधनों पर किसी समुदाय द्वारा क़ब्ज़ा कर लेने से होता है, जिसके परिणामस्वरूप बाक़ी के पास मज़दूरी करने के सिवाय कोई रास्ता नहीं बचता. इससे असमानता का जन्म होता है. श्रम का विभाजन मानसिक कार्य, और शारीरिक कार्य के तौर पर हो सकता है, नारीवादी इसमें लैंगिक कार्य को भी जोड़ते है. आंबेडकर शारीरिक श्रम में भी साफ़ सुथरे काम और गंदे काम में विभाजन को देखते हैं.
कुल मिलाकर आंबेडकर असमानता के स्रोत को शारीरिक कम, मानसिक ज़्यादा मानते हैं. यदि व्यक्ति मानसिक तौर पर ग़ुलाम हो तो उसे ग़ुलाम बनाने के लिए बेड़ियों की ज़रूरत नहीं होती है.
असमानता दूर करने के लिए आंबेडकर के उपाय
आंबेडकर ने अपने जीवन काल में असमानता दूर करने के लिए काफ़ी संघर्ष किया और उसके लिए अनेकों उपाय बताए. उन उपायों में राजनीतिक प्रतिनिधित्व, कोऑपरेटिव फ़ार्मिंग, सेपरेट सेटलमेंट और पे-बैक टू सोसाइटी प्रमुख हैं.
राजनीतिक प्रतिनिधित्व- डॉ आंबेडकर मानते थे कि समाज के विभिन्न अल्पसंख्यक समुदायों का सरकार के विभिन्न अंगों में प्रतिनिधित्व होना चाहिए.
उनके अनुसार अल्पसंख्यक समुदायों को अपना प्रतिनिधित्व ख़ुद करना चाहिए, क्योंकि सिर्फ़ ‘मुद्दे का रखा जाना’ मायने नहीं रखता बल्कि उसका ख़ुद रखना मायने रखता है.
आंबेडकर की यह समझ ग्रीक दार्शनिक अरस्तू की असमानता की परिभाषा से आयी दिखती है, जिसके अनुसार असमानता इस वजह से होती है क्योंकि कुछ मनुष्य ‘आदेश देने का गुण’ लेकर पैदा होते हैं, तो कुछ ‘आदेश को पालन’ करने का. जो आदेश को पालन करने का गुण लेकर पैदा होते हैं, उनको नेता, सैनिक आदि बनने का अवसर नहीं मिलना चाहिए. बल्कि उनकी बातों को ‘आदेश देने का गुण’ लेकर पैदा हुए लोगों द्वारा उठाया जाना चाहिए.
प्राचीन ग्रीक की यह अवधारणा आधुनिक समय में भी असमानता के कारकों में एक है. आंबेडकर इस अवधारणा को चुनौती देने के लिए ही कहते थे कि अल्पसंख्यकों को उनका मुद्दा ख़ुद उठाते के लिए विभिन्न संस्थाओं में प्रतिनिधित्व दिया जाना चाहिए.
कोऑपरेटिव फ़ार्मिंग यानी सहकारी खेती- आज़ादी के पहले भारत की ज़्यादातर आबादी ग्रामीण थी, जहां आजीविका का मुख्य जरिया कृषि रही है. लेकिन कृषि की ज़मीनों पर ज़मींदारों और कुछ जातियों का क़ब्ज़ा था. ज़्यादातर जातियां भूमिहीन होती थीं, और मज़दूरी और बेगारी करती थीं. आज़ादी की लड़ाई के दौरान देश से जमींदारी प्रथा का उन्मूलन करके भूमि सुधार लागू किए जाने का वादा कांग्रेस पार्टी करती थी.
आंबेडकर ने भी आज़ादी के बाद भूमि सुधार लागू किए जाने का समर्थन किया था, लेकिन उनके अनुसार भूमि सुधार लागू करने के बाद जो ज़मीन बच जाए उस पर सरकार भूमिहीन जातियों से खेती कराए, और उसमें पैदा हुई उपज को उसमें कार्य करने वालों को ज़रूरत के हिसाब से बांट दे. आंबेडकर के ये विचार उनकी किताब स्टेट्स एंड माईनॉरिटी में मिलते हैं.
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आज़ादी के बाद भूमि सुधार क़ानून बड़ी दिक्कतों से टुकड़ों-टुकड़ों में लागू हुआ, लेकिन जब कोऑपरेटिव फ़ार्मिंग को लागू करने का प्रस्ताव प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू ने कांग्रेस पार्टी के 1959 की आमसभा में रखा तो चौधरी चरण सिंह ने कांग्रेस के तमाम क्षेत्रीय नेताओं की मदद से उस प्रस्ताव का ये कहकर विरोध किया कि यह किसानों के हित में नहीं है और इससे खेती का औद्योगीकरण हो जाएगा.
परिणामस्वरूप कोऑपरेटिव फ़ार्मिंग कभी लागू नहीं हो पायी, और उसके लिए जो ज़मीन निकली थी, वह भी उच्च जातियों के ही क़ब्ज़े में बनी रही. अस्सी के दशक मे कांशीराम ने उसी जमीन को भूमिहीन दलितों को देने के लिए ‘जो ज़मीन सरकारी है, वो ज़मीन हमारी है’ का नारा दिया था.
सेपरेट सेटलमेंट (बेगमपुरा)- भारत को अंग्रेजों ने जाति, धर्म और गांव के देश के तौर पर समझा था. गांव की व्यवस्था जजमानी प्रथा से चलती थी, जिसमें एक जाति दूसरी जाति पर निर्भर होती थी. इस निर्भरता की वजह से दलित जातियों का सवर्ण जातियां विभिन्न प्रकार से शोषण करती रही हैं. इस तरह के शोषण से निकलने के लिए आंबेडकर ने सेपरेट सेटलमेंट की मांग की था. दरअसल आंबेडकर गांव को संकीर्णता, सांप्रदायिकता और अज्ञानता का गढ़ मानते थे. उनके यह विचार महात्मा गांधी के गांव संबंधी विचार से बिल्कुल उलट थे, जो कि गांव को भारत की आत्मा मानते थे. गांधीजी सोचते थे कि भारत में गांव प्राचीन काल से ही ज़िंदा हैं, और उसकी आत्मा को बचाए हुए हैं.
आज़ादी के बाद गांव में दलितों की सामाजिक स्थिति के परिप्रेक्ष्य में आंबेडकर की इस योजना पर विचार किया जाए, तो वह काफ़ी क्रांतिकारी लगती है. गांव आधुनिक समाज की ज़रूरतों के हिसाब से बने ही नहीं थे, जिस वजह से उसमें रास्ते, पानी की निकासी आदि की व्यवस्था नहीं रही. ऐसे में वहां गंदगी आदि बनी रही, जो कि तमाम तरह की बीमारियों का कारक बनी.
अगर इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए आंबेडकर के सेपरेट सेटलमेंट के आइडिया को देखा जाए तो यह कहा जा सकता है कि वह आधुनिक सुविधाओं से लैस नया कुछ बसाना चाहते रहे होंगे, जिसे गुरु रविदास के शब्दों में ‘बेगमपुरा’ कहा जा सके.
पे-बैक टू सोसायटी- आंबेडकर के बारे में अक्सर यह आलोचना होती है कि असमानता मिटाने के लिए उनके विचार सरकार पर ज़्यादा, समाज पर कम निर्भर थे. जबकि ऐसा नहीं था. आंबेडकर सरकार की सीमाओं से काफ़ी परिचित दिखते हैं, जिसकी वजह से ही उन्होंने अपने समाज के नौकरीपेशा लोगों से कहा था कि बाकियों को उठने के लिए वे आर्थिक रूप से मदद करें, जिसे पे-बैक टू सोसाइटी कहा जाता है. यह विचार आज भी प्रासंगिक है.
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आज के समय में भी असमानता मिटाने के लिए प्रतिनिधित्व का सिद्धांत और पे बैक टू सोसाइटी की उपयोगिता पर कोई संदेह नहीं है. पिछले कुछ साल से पर्यावरण संरक्षण की वैश्विक बहस में इस समाधान पर भी बात की जाने लगी है कि तमाम छोटी-छोटी जगहों से उठाकर लोगों को आधुनिक सुविधाओं से लैस बड़ी-बड़ी जगहों पर बसाया जाय और ख़ाली जगहों पर पेड़ वग़ैरह लगाए जाएं. इस आइडिया को भी देखा जाए तो यह आंबेडकर के सेपरेट सेटेलमेंट जैसा ही काफ़ी कुछ दिखता है.
(लेखक रॉयल हालवे, लंदन विश्वविद्यालय से पीएचडी स्क़ॉलर हैं .ये लेखक के निजी विचार हैं.)
बहुत सुंदर लेख
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