लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी को एक बार फिर प्रधानमंत्री बनाने का जनादेश दिया गया है. ये जनादेश 2014 से भी ज्यादा प्रचंड है. विपक्ष के लिए ये परिणाम उम्मीद के बिल्कुल विपरीत हैं. उसे इस प्रकार की महापराजय की उम्मीद नहीं रही होगी. इसलिए प्रारंभिक प्रतिक्रिया में वे इस जनादेश को जनभावनाओं के विपरीत बताते हुए ईवीएम पर हार का दोष मढ़ सकते हैं, जिसकी छिटपुट शुरुआत हो भी चुकी है. बीएसपी अध्यक्ष मायावती का इस बारे में बयान आ चुका है. आरजेडी और तृणमूल कांग्रेस तथा सपा के कई नेता भी चुनावी गड़बड़ी का आरोप लगा रहे हैं.
क्या वाकई यह चुनाव बिना किसी पक्षपात के हुए? क्या यह बराबरी वाली दौड़ थी? क्या सम्पूर्ण सरकारी मशीनरी सत्ता प्रतिष्ठान के प्रति पक्षपाती नहीं थी? क्या चुनाव आयोग सत्तारुढ़ दल का समर्थन करता नजर नहीं आया?
आखिर क्यों ईवीएम को लेकर संदेह इतना घना होता गया और अंततः कई पार्टियां ये कहने लगीं कि ईवीएम के ज़रिए हो रहे चुनाव दरअसल जनादेश का अपहरण हैं. इस संदेह को दूर करने का कोई गंभीर व भरोसेमंद प्रयास केंद्रीय चुनाव आयोग ने नहीं किया. बल्कि उसका व्यवहार ऐसा था, जिससे संदेह मिटने के बजाय और घनीभूत ही हुये. खासकर वीवीपैट की पर्चियों के मिलान के बारे में विपक्षी दलों की मांग पर चुनाव आयोग ने जो रुख अख्तियार किया, उससे चुनाव प्रक्रिया की विश्वसनीयता खंडित ही हुई है. आज भी पराजित दल वही शाश्वत आरोप दोहरा रहे हैं कि हो न हो ईवीएम में ही कुछ गड़बड़ी की गई है.
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ईवीएम पर शक या हार को लेकर बहानेबाजी?
अकसर देखा जा रहा है कि जो चुनाव जीतते हैं, उनको ईवीएम से कोई शिकायत नहीं रहती है, मगर हारने वालों की ओर से इस बारे में सवाल उठते रहे हैं. ईवीएम पर सवाल करने वालों से भी अब जनता सवाल करना चाहती है कि जब वे जीतते हैं तो ईवीएम सही और हारते ही गलत कैसे हो जाता है? यह कैसा पाखंडी आचरण है? अगर ईवीएम पर भरोसा नहीं है तो वे इसके खिलाफ जनता का आंदोलन क्यों नहीं खड़ा करते? जिन दलों को ईवीएम पर संदेह है, वो चुनाव में हिस्सा ही क्यों लेते हैं? उन्हें अपने ही आरोपों को लेकर जितना गंभीर होना चाहिए, उतने गभीर वो दिखते नहीं हैं. ईवीएम लाने का फैसला भारतीय संसद ने 1989 में जनप्रतिनिधित्व कानून में संशोधन के जरिए किया था. देश में कैसे चुनाव हो, ये फैसला तो संसद को ही करना है. राजनीतिक दल इस बारे में पुनर्विचार के लिए संसद में माहौल बना सकते हैं. लेकिन पाखंड के जरिए ये संभव नहीं है.
बीजेपी की जीत और जनकल्याण के प्रश्न
क्या बीजेपी की इस ऐतिहासिक जीत से पिछली सरकार के तमाम कदमों पर जनता की मुहर लग गई हैं? क्या नोटबन्दी के दुष्प्रभाव, जीएसटी से बिजनेस पर पड़े असर, मॉब लिंचिंग से समाज में फैला द्वेष और भय, तथा दलितों और आदिवासियों के उत्पीड़न पर अब भी कोई बहस हो सकती है? या जब मतदाताओं ने इन सबके बावजूद बीजेपी को पहले से भी ज्यादा प्रचंड बहुमत से जिता ही दिया है, तो ये मान लेना चाहिए कि बीजेपी ने जो किया, सब ठीक किया? वैसे तो यह भी मुमकिन है कि मतदाताओं को लगा हो कि नोटबंदी से भ्रष्टाचार कम हुआ है, जीएसटी से बिजनेस करना आसान हुआ है और मॉब लिंचिंग और दलित उत्पीड़न तो होते रहते हैं. इस लिए इन मुद्दों पर क्या सोचना? अगर ऐसा है तो बीजेपी की जीत के बाद जनहित के ऐसे सवालों पर आंदोलन करने का कोई मतलब नहीं है.
भ्रष्टाचार के सवाल पर जनता की बेरुखी
इस चुनाव नतीजे के बाद भ्रष्टाचार के प्रश्न पर भी नए तरीके से सोचने की जरूरत है. तथाकथित अपरादर्शी तरीके से किए गए राफेल विमान समझौते को मुद्दा बनाने की कांग्रेस की कोशिशों का कोई परिणाम नहीं निकला. बल्कि ये कहा गया कि कांग्रेस को भ्रष्टाचार पर बात करने का क्या अधिकार है. दरअसल लोग अब भ्रष्टाचार के आरोपों को लेकर बहुत गंभीर नहीं हैं, क्योंकि वे निजी अनुभव से जानते हैं कि नेताओं के पास अकूत पैसा और चुनाव में खर्च करने के लिए बेशुमार धन पेड़ पर नहीं उगता. चूंकि इसमें सभी दल शरीक हैं. इसलिए ये मुद्दा नहीं बनता. ऐसा लगता है कि जनता शुचिता को लेकर बहुत आग्रही नहीं है.
ध्रुवीकरण का जनादेश और वंचितों के सवाल
इस जनादेश का सबसे प्रमुख स्वर यह है कि यह सामाजिक और सांप्रदायिक बंटवारे का जनादेश है. यह चुनाव सामाजिक-सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करते हुए लड़ा गया है. इस चुनाव में दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यक मुसलमानों को उनकी औकात में रखने के लिए कुछ सामाजिक समूहों की ओर से एकतरफा वोटिंग की गई है. इसमें बेशक जातिवादी सवर्ण तबके सबसे आगे रहे हों, लेकिन इसमें ओबीसी का एक हिस्सा भी शामिल रहा. वैसे भी सिर्फ सवर्ण वोट से भारत में कोई सरकार नहीं बन सकती.
ऐसा लगता है कि रोहित वेमुला को आत्महत्या के लिए मजबूर करने से लेकर, एससी-एसटी एट्रोसिटी एक्ट को बदलने की कोशिश, 13 प्वायंट रोस्टर लगाकर विश्वविद्यालयों की नियुक्तियों में आरक्षण को निष्प्रभावी बनाने तथा 10 प्रतिशत सवर्ण गरीब आरक्षण लागू करने का इनाम नरेंद्र मोदी को मिला है.
इस जनादेश के बाद क्या है लोकतंत्र का भविष्य
यह जनादेश अल्पसंख्यक समुदाय के पशुपालकों व व्यापारियों को मॉब लिंचिंग के नाम पर, उनके युवाओं को लव जिहाद के नाम पर आदिवासियों को नक्सलवाद के नाम पर और दलित बुद्धिजीवियों व मानव अधिकार कार्यकर्ताओं को अर्बन नक्सल के नाम पर ठिकाने लगा देने का अद्भुत पराक्रम करने के पुरस्कार स्वरूप दिया गया प्रतीत होता है.
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इसकी ध्वनि बहुत स्पष्ट है. यह सीधे-सीधे दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों को दोयम दर्जे पर टिका देने के लिए दिया गया जनादेश है. इसके बाद सत्ता काफी निरंकुश व अराजक हो जा सकती है. नफरत का नगाड़ा और जोर से बजेगा और संविधान बदलने तथा संवैधानिक संस्थाओं व प्रक्रियाओं को क्षत विक्षत करने का निर्बाध अभियान चलेगा. तब लोकतंत्र महज एक आवरण मात्र रह जायेगा और विपक्ष भी सत्तासीन दल का प्रकोष्ठ बनकर रह जायेगा.
यह जनादेश बहुत सारे संभावित खतरों की तरफ इशारा कर रहा है. इसका मुकाबला कैसे और कौन करेंगे, यह अभी तय होना है.
(लेखक मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं और ‘शून्यकाल’ के संपादक हैं. आरएसएस के एक दलित स्वयंसेवक की आत्मकथा इनकी चर्चित किताब है जिसका अंग्रेजी अनुवाद आने वाला है.)