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Sunday, 22 December, 2024
होममत-विमतस्वामी पागलदास और बेगम अख्तर की अयोध्या में लता मंगेशकर चौक के मायने क्या हैं

स्वामी पागलदास और बेगम अख्तर की अयोध्या में लता मंगेशकर चौक के मायने क्या हैं

समस्या दरअसल, सत्ताधीशों के उस ‘विवेक’ से है, जो यह समझना ही नहीं चाहते कि फिलहाल एक चौराहे के बहाने लता को स्वरकोकिला से ज्यादा रामभक्त बनाकर एक बड़े समुदाय के सामने पेश किया.

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बीसवीं शताब्दी के आखिरी दशक की बात है. तब की, जब उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव और कांशीराम द्वारा किया गया समाजवादी पार्टी (सपा) और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) का महत्वाकांक्षी गठबंधन, अभूतपूर्व कटुता का इतिहास रचते हुए टूटा और बसपा ने अपने द्वारा प्रवर्तित पलटीमार राजनीति के तहत भाजपा से समर्थन लेकर मायावती को राज्य का पहला दलित महिला मुख्यमंत्री बनाया.

मायावती ने तीन जून, 1995 को शपथ लेने के चौथे ही महीने सपा को सबक सिखाने के लिए उसके राजनीतिक आराध्य समाजवादी चिंतक डॉ. राममनोहर लोहिया की फैजाबाद (अब अयोध्या) जिले के पूर्वांचल में स्थित जन्मस्थली (अकबरपुर) को अलग जिला बनाने की दशकों पुरानी मांग को गुपचुप आंबेडकरनगर नाम से जिला बनाकर निस्तारित कर दिया.

‘गुपचुप’ इस अर्थ में कि 29 सितंबर, 1995 को अकबरपुर के निकट शिवबाबा स्थित मैदान में विशाल रैली में इस आशय की घोषणा से पहले उन्होंने अपनी पार्टी व सरकार के ‘नंबर दो’ रामलखन वर्मा तक को इसकी भनक नहीं लगने दी थी.

तब उत्तर प्रदेश विधान परिषद के मनोनीत सदस्य रहे वरिष्ठ पत्रकार श्यामाप्रसाद प्रदीप ने, जो अब हमारे बीच नहीं हैं, यह कहकर उनकी तीखी आलोचना की थी कि उनका यह कृत्य बाबासाहब के बहाने डॉ. राममनोहर लोहिया के घर में डकैती जैसा है और इसके लिए उन्हें क्षमा नहीं किया जा सकता, क्योंकि प्रदेश में नये या पुराने जिलों की ऐसी कोई कमी नहीं है, जिन्हें बाबासाहब का नाम दिया जा सके.

यह प्रसंग बीते बुधवार को तब बहुत याद आया जब जीते जी सुरसाम्राज्ञी बन चुकी स्वरकोकिला भारत रत्न लता मंगेशकर की जयंती पर सुर व संगीत की मृदंगाचार्य स्वामी पागलदास जैसी अप्रतिम हस्ती की कर्मभूमि अयोध्या में उनकी स्मृतियों के संहार की कीमत पर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और श्रीरामजन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट के अध्यक्ष महंत नृत्यगोपाल दास द्वारा भारी सरकारी तामझाम के बीच ‘भव्य’ (भारी भरकम भी, क्योंकि वहां लगाई गई वीणा की लागत, लंबाई और वजन कुछ इस तरह बताये जा रहे हैं, जैसे वही उनकी गुणवत्ता निर्धारित करते हों) लता मंगेशकर चौक का लोकार्पण किया गया.


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लता मंगेशकर, लोहिया और स्वामी पागलदास

यों, अयोध्या स्वामी पागलदास की ही नहीं, पद्मश्री व पद्मभूषण से सम्मानित मलिका-ए-गजल बेगम अख्तर (जिन्होंने दादरा व ठुमरी को नई ऊंचाई व पहचान दी) और मर्सियों के मीर कहे जाने वाले मीर अनीस की भी धरती है और इनकी स्मृतियों को बचाना भी फिलहाल किसी के एजेंडे पर नहीं है.

जिस अनीस-चकबस्त लाइब्रेरी को अवध की गंगा-जमुनी तहजीब से जोड़कर देखा जाता रहा है, उसका हाल भी बुरा ही है. लेकिन बेगम अख्तर व मीर अनीस के जिक्र को इस कारण असंगत मान लें कि योगी आदित्यनाथ सरकार ने जिन कारणों से अयोध्या जिले के पुराने नाम फैजाबाद से असुविधा महसूस कर उसे बदलकर दम लिया, वे सारे कारण बेगम अख्तर और मीर अनीस से उसकी असुविधा के लिए भी हो सकते हैं, तो भी कौन कह सकता है कि लता चौक का यह लोकार्पण सुर-साम्राज्ञी को आगे करके स्वामी पागलदास के घर से वैसा ही सलूक नहीं है, जैसा मायावती ने 1995 में लोहिया के घर से किया था?

खासकर जब दोनों प्रकरणों में समानताओं की कोई कमी नहीं है. जैसे मायावती के समक्ष किसी एक व्यक्ति ने भी मांग नहीं कर रखी थी कि डॉ. लोहिया की जन्मभूमि को जिला बनाया जाए तो उसे आंबेडकर का नाम दिया जाए, उसी तरह शायद ही किसी ने मांग की हो कि स्वामी पागलदास की अयोध्या में उन्हें छोड़कर लता मंगेशकर के नाम पर कोई चौक बनाया जाए.

इसके उलट उसे बनाने की घोषणा की गई तो अयोध्या के संत-महंतों का एक धड़ा विरोध में उतर आया था. वह चाहता था कि प्रस्तावित चौक को लता के बजाय जगदगुरु रामानंदाचार्य का नाम देकर वहां उनकी मूर्ति लगाई जाए (क्योंकि अयोध्या उनके अनुयायी वैष्णवों की नगरी रही है) और लता चौक कहीं अन्यत्र बनाया जाए. बाद में यह धड़ा मुख्यमंत्री के इस पक्के आश्वासन पर अपना विरोध त्यागने को राजी हुआ था कि जगदगुरु के नाम पर भी चौक व द्वार बनाया जाएगा.

अब मुख्यमंत्री ने घोषणा कर दी है कि अयोध्या के सारे चौराहों पर ‘महापुरुषों’ की मूर्तियां लगाई जायेंगी. लेकिन उनकी सूची में स्वामी पागलदास कहीं नहीं हैं.


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किसी धर्म या चौराहे तक सीमित नहीं है लता दीदी

यह बात भी दोनों प्रकरणों में एकसमान है कि जैसे लोहिया से मायावती की ‘दुश्मनी’ यह थी कि वे उनकी सहयोगी से शत्रु बन गई सपा के राजनीतिक आराध्य थे, वैसे ही स्वामी पागलदास जब तक संसार में रहे, कभी मुखर तो कभी मौन प्रतिरोध से बार-बार जताते रहे कि वर्तमान सत्ताधीशों के मंसूबों के विपरीत अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए सत्य, मर्यादा व न्याय की बलि उनको कतई स्वीकार नहीं है और इस बलि के किसी भी प्रयत्न में वे अपनी संगीत साधना को भागीदार नहीं बनाने वाले क्योंकि संगीतज्ञ होने के नाते मनुष्यमात्र में जाति, धर्म और संप्रदाय वगैरह के आधार पर कोई भेदभाव न करना उनका प्राथमिक कर्तव्य है. बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद की ‘बदली हुई’ अयोध्या में पागलदास बहुत बेचैन रहने लगे थे. बेहद विचलित, साथ ही असमंजसों व अन्तर्द्वंदों से पीड़ित.

कवि बोधिसत्व की ‘पागलदास’ शीर्षक बहुचर्चित कविता के शब्द उधार लेकर कहें तो उस कातर असहायता के दौर में वे अयोध्या में वैसे ही उदास रहते थे जैसे कबीर बनारस में, बुद्ध कपिलवस्तु में, कालिदास उज्जयिनी में, फसलें खेतों में, पत्तियां वृक्षों पर और लोग दिल्ली व पटना में उदासी ओढ़ने को अभिशप्त हों.

बात को गलत न समझ लिया जाए, इसलिए कहना जरूरी है कि यहां स्वामी पागलदास और लता मंगेशकर की तुलना करने या उन्हें आमने-सामने खड़ा करने का कोई मंतव्य नहीं है क्योंकि उसका कोई मतलब ही नहीं है. आज लता हमारे बीच होतीं तो निस्संदेह अयोध्या में पागलदास की स्मृतियों के संहार के विरुद्ध खड़ी होतीं. प्रसिद्धि के सारे प्रयासों से परहेज रखने वाले स्वामी पागलदास को भी इस बाबत स्वरकोकिला से कोई प्रतिद्वंद्विता या ईर्ष्या गवारा नहीं ही होती.

समस्या दरअसल, सत्ताधीशों के उस ‘विवेक’ से है, जो यह समझना ही नहीं चाहते कि फिलहाल एक चौराहे के बहाने लता को स्वरकोकिला से ज्यादा रामभक्त बनाकर एक बड़े समुदाय के सामने पेश किया.

ठीक है कि लता विनायक दामोदर सावरकर को ‘पिता समान’ मानती थीं, साथ ही उनके हिंदुत्व की समर्थक थीं, अपनी कथित जातिवादी मानसिकता के तहत उन्होंने बाबासाहब आंबेडकर पर गीत गाने का ऑफर ठुकरा दिया था और बाबासाहब के अनुयायियों के बहुत मनाने पर भी नहीं मानी थीं. फिर भी देश में कोई उनके जीवन-संघर्ष और संगीत-साधना की ऊंचाई से इनकार नहीं करता. शायद ही कोई हो जिसने उनके कंठ से निकले कवि प्रदीप के ‘ऐ मेरे वतन के लोगों’ को सुनकर आंखें न भिगोई हों.

ऐसे में उन्हें किसी धर्म या चौराहे तक सीमित करके नहीं देखा जा सकता. सच पूछिये तो वे उससे बहुत बड़ी हैं, इसलिए देश ने उन्हें अपने सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से विभूषित किया. लेकिन अयोध्या नगर निगम की उस मति की बलिहारी कि उसने इससे पहले उनके नाम वाले चौक के लिए इससे भी छोटा चौराहा प्रस्तावित किया था.

ऐसी मति वालों को भला कौन समझाये कि लता को सम्मान देने का उन्हें ऐसा ही शौक था तो कम से कम इतना तो समझना चाहिए था कि लता सम्मान की ऐसी किसी कवायद की मोहताज नहीं हैं, न ही ऐसी कवायदों से उन्हें करने वालों का ही सम्मान बढ़ता है. वह तो तब बढ़ता, जब बात को चौक से आगे बढ़ाकर किसी राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय संगीत संस्थान या विश्वविद्यालय की स्थापना तक ले जाया जाता. तब उनके नाम पर स्वामी पागलदास के घर में ऐसे बेलज्जत गुनाह की जरूरत ही नहीं रह जाती.

(कृष्ण प्रताप सिंह फैज़ाबाद स्थित जनमोर्चा अखबार के संपादक और वरिष्ठ पत्रकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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