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Saturday, 2 November, 2024
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दुनिया में हिंदू राष्ट्र वाला पोस्टकार्ड भेजने से नरेंद्र मोदी को क्या रोक रहा है

भारत का ऐतिहासिक घाव पिज्जा बेस की तरह का है, टॉपिंग और दुश्मन समय के साथ बदलते रहते हैं.

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कांग्रेस नेता कमलनाथ जब वाणिज्य मंत्री थे, मुझे जुलाई 2008 में एक ऐसे गेट से मंत्रालय में प्रवेश करने की याद है, जिसमें दीवार पर लिखा था, ‘भारत, सबसे तेजी से बढ़ता, मुक्त-बाजार लोकतंत्र’. यह दुनिया के लिए तो एक साहसिक संदेश था. मेरे लिए, ऐसा लग रहा था कि दुनिया को यह भी बता रहा था, ‘हम चीन नहीं हैं.’

तब से आज हिंदू राष्ट्र तक हम वास्तव में एक लंबा सफर तय कर चुके हैं, जनाब. एकमात्र अंतर बस यही है कि हमने इसे अभी तक भवन की दीवारों पर चित्रित नहीं किया है या दुनिया को पहुंचाए संदेशों में हिंदू राष्ट्र को नहीं उकेरा है. अभी तो हम खुद ही इस शब्द को अपनी दिनचर्या का हिस्सा बनाने के अभ्यास में व्यस्त हैं.

जब दुनिया को संबोधन की बात आती है, हमें अब भी हिंदू राष्ट्र के बजाये ‘योगा पैंट के साथ विश्व गुरु’ बनना ही सुहाता है. इन दो टैग के बीच हम खुद को अटपटे ढंग से दुविधा और हमेशा अग्रदृष्टा या आशंका की स्थिति में रखते हैं. यही वह स्थिति है जिसमें अब कुख्यात ‘भारत का विचार’ रूपांतरित हो रहा है.

भारत के पास कई पोस्टकार्ड आइडिया हो सकते हैं और रहे हैं. लेकिन सबसे अहम क्या है–हम समय के साथ दोहराने के अभ्यास के साथ खुद को क्या विश्वास दिलाते हैं, या हम दुनिया के सामने क्या प्रस्तुत करते हैं?


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खुद के लिए पोस्टकार्ड

जैसा वाशिंगटन विश्वविद्यालय के विद्वान जेम्स वर्च लिखते हैं हर देश का एक भव्य, राष्ट्रीय योजनाबद्ध खाका होता है. यह स्थायी तौर पर स्थापित एक राष्ट्रीय मिथक का रूप ले सकता है, जिसे आत्मसात करके इतनी बार दोहराया जा चुका होता है कि वह लोककथाओं के समतुल्य हो जाता है. यह खाका देश के जनमानस की सामूहिकता को आकार देने का साधन भी है, और किसी भी जवाबी-तर्क को सिरे से नकारे जाने का निर्विवाद आधार भी बनता है.

19वीं शताब्दी के शुरुआती दौर में अमेरिकी विस्तारवादियों के लिए यह ‘प्रत्यक्ष नियति’ थी तो आधुनिक अमेरिकियों के पास ‘मुक्त भूमि’ है. रूसी अपने इतिहास में ‘विदेशी सेनाओं पर विजय’ का खाका संजोये हैं. चीन के लिए यह ‘शांतिपूर्ण उदय’ में निहित है.

भारत में भी कई टेम्पलेट हैं. इनमें से एक सबसे टिकाऊ है कि यह एक ‘अहिंसक’ राष्ट्र है, जिसे स्वाधीनता आंदोलन और मोहनदास करमचंद गांधी की विरासत के रूप में जाना जाता है. आजादी के बाद हमने इसे एक ऐसे भारत में बदला जो किसी दूसरे देश पर हमले की पहल नहीं करता. जिन अन्य खाकों पर हम भरोसा करते हैं, वे हैं ‘एक प्राचीन सभ्यता और आधुनिक राष्ट्र-राज्य’; ‘दीर्घकालिक अखंड संस्कृति’ भी इनमें से एक है. फिर आता है ‘दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र’ वाला वह खाका जिसमें बिना सोचे-समझे संख्या को महत्व दिया जाता है. इसमें सबसे ज्यादा जोर ‘सबसे बड़े’ पर है और ‘लोकतंत्र’ की सेहत पर कम.

हालांकि, इन सबके बीच एक ऐसा घाव भी है जो हमारे जनमानस में एकदम अंकित हो चुका है. ‘वुंडेड सिविलाइजेशन’ की यह धारणा किसी पिज्जा बेस की तरह है जो नीचे से वैसा ही रहता है. टॉपिंग बदल जाती है. यह कोड इस धारणा को आगे बढ़ाता है कि कभी हम महान हुआ करते थे, फिर हमारी महानता को ठेस पहुंची. और अब फिर से हम महान बनने की ओर अग्रसर हैं.

‘महानता को ठेस’ वाले इस पिज्जा बेस ने राष्ट्र-निर्माण के हर चरण में भूमिका निभाई. इसने खुद को आहत गौरव या जायज आवेश के तौर पर सामने रखा. यह ‘हमें कुछ बड़ा हासिल होना बाकी’ होने जैसी भावना है.

यह जवाहर लाल नेहरू के भारत के अपनी नियति के प्रति जागृत होने संबंधी भाषण में भी रची-बसी है. एक वाक्यांश को तमाम भारतीय नेताओं और सरकारी प्रेस विज्ञप्तियों में अलग-अगल ढंग से इस्तेमाल किया जाता रहा है–भारत एक दिन विश्व समुदाय के बीच अपना सही स्थान फिर हासिल कर लेगा. यह एक दृढ़ विश्वास दिलाता है कि भारत महानता का हकदार है, जिसे कभी छीन लिया गया था.

इस महानता को किसने छीना? भारत को अपनी नियत महानता से किसने दूर कर रखा है? इसके कई जवाब हैं.


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सबके लिए अलग-अलग दुश्मन

मैं इस पर दांव लगाऊंगी कि गांधी ने ‘आधुनिकता’ (हिंद स्वराज पढ़ें) को दोषी ठहराया होगा. उनके लिए हमारी महानता विशुद्ध रूप से गांवों में संरक्षित थी. नेहरू ने निश्चित तौर पर अंग्रेजों को दोषी ठहराया होगा.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस), प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उनसे पहले लालकृष्ण आडवाणी वैदिक और गुप्त काल की महानता छीनने के लिए मुस्लिम आक्रांताओं और शासकों को निशाना बनाते रहे हैं. विभाजन के रूप में बड़े विश्वासघात ने भी महानता को ठेस पहुंचाने में कसर नहीं छोड़ी. अमेरिका का पाकिस्तान को निर्विवाद रूप से गले लगाना, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद से बाहर रखा जाना, 1974 के परमाणु परीक्षण के बाद के पश्चिमी प्रतिबंध, ‘विदेशी हाथ’ और सीआईए…

हम महान क्यों नहीं है यह समझाने के लिए हमेशा एक दुश्मन सामने रहता है. यह कोई नई बात नहीं है.

उभरा और भुला दिया गया

फिर 1990 के दशक में कहानी बदल गई. दुनिया ने अचानक भारत को एक बाजार के रूप में खोज लिया. राजीव गांधी द्वारा बांबे के अपने प्रसिद्ध एआईसीसी भाषण में हमें ‘अशिष्ट, विशिष्ट खपत’ छोड़ने के लिए कहे जाने के एक दशक बाद हमने खुद के उपभोक्ता होने का जश्न मनाना शुरू कर दिया. हमने ‘विशिष्ट उपभोग’ और ‘मध्यम वर्ग’ और ‘उभरती अर्थव्यवस्था’ जैसे शब्दों को अपनी पहचान बनाना शुरू कर दिया.

उभरती अर्थव्यवस्था का टैग हमें ग्लोबल कॉरपोरेशन, पश्चिमी राजनेताओं, निवेश बैंकरों और हेज फंड विश्लेषकों की तरफ से ही दिया गया था जो नए आर्थिक मोर्चे पर अपना दांव लगाते हैं. गोल्डमैन सैक्स ने हमें ब्रिक्स में डाल दिया.

उभरती शब्द में कुछ जादू-सा था. इसनें हमें ‘महानता’ के करीब पहुंचाया. हमने हमेशा इसका इस्तेमाल किया. पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश जूनियर के साथ परमाणु करार करना इसी नए अहसास का हिस्सा था. और फिर बराक ओबामा दौरे पर आए और उन्होंने हमें बताया कि भारत ‘उभर नहीं रहा’ बल्कि पहले ही ‘उभर चुका’ है.

अनदेखे रूप में, मध्य वर्ग उपभोक्ता विस्फोट से वास्तव में जो उभरा, वह है हिंदू कट्टरवाद और अति-राष्ट्रवाद. यह इतिहास कई बार समाज में ऐसे उभार का साक्षी बना है.

जैसे उभरने के उत्साह वाले दिनों के एक दशक बाद आम बोलचाल में उभरती अर्थव्यवस्था का जिक्र पूरी तरह से गायब हो गया है.

हिंदू राष्ट्र

हमारे भव्य, राष्ट्रीय कथानक का खाका अब बदल रहा है.

हम एक बार फिर महानता को ठेस वाले घाव सहला रहे हैं. और भूत और वर्तमान दोनों को दोषी बताते हैं– मध्य युग जब इस्लामी आक्रमणकारियों ने आकर हमारे सभी मंदिर तोड़ दिए और हमें गरीबी में धकेल दिया. तथ्य यह है कि ‘सोने की चिड़िया’ की ब्रिटिश औपनिवेशिक लूट के बारे में हम शायद ही कुछ बोलते हैं.

इसके साथ जुड़ा है आंतरिक दुश्मन जो भारत की समस्याओं को सामने लाना चाहता है. अरुण जेटली उन्हें ‘घोर निराशावादी’ और ‘सर्वकालिक आलोचक’ मानते थे और बॉलीवुड के विवेक अग्निहोत्री उन्हें ‘अर्बन नक्सल’ कहते हैं.

हिंदू राष्ट्र का नया टैग ही अब वैदिक युग की महानता हासिल करने का एकमात्र जरिया बचा है. ‘क्या भारत हिंदू राष्ट्र की ओर बढ़ रहा है’, यह अक्सर पूछा जाने वाला एक दुर्भाग्यपूर्ण सवाल है. आरएसएस के एक वरिष्ठ नेता ने हाल ही में संपादकों से ऑफ-द-रिकॉर्ड मुलाकात के दौरान तो कहा भी कि हम पहले से ही एक हिंदू राष्ट्र हैं.

लेकिन हमारे पोस्टकार्ड पर नहीं. अब हम जो खुद को बताते हैं और दुनिया के बीच अपने बारे में जो संदेश पहुंचाते हैं, उसमें एक स्पष्ट विभाजन है. यह उन युवा भारतीयों की तरह है जो खुलकर धूम्रपान करते हैं लेकिन अपने माता-पिता के सामने नहीं. इसे ‘आंखों की शर्म’ कहा जाता है. मोदी के सीएए नियमों को अभी तक लागू नहीं किया गया है, ये ठंडे बस्ते में हैं, शायद दिसंबर तक खत्म भी हो जाएं. भाजपा के एक नेता ने कहा, ‘अंतरराष्ट्रीय आलोचना ने प्रधानमंत्री को डरा दिया.’ इसी झिझक में एक उम्मीद छिपी है. शायद इस हिंदू कट्टरपंथी रूपांतरण का जीवन सिर्फ क्षणभंगुर है.


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(व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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2 टिप्पणी

  1. ,as always a hondufobik lady….who think she knows everything ..so she comment everything….u read her article and think she miss something ..ohh she didn’t write any word about Muslim thinkrs…..why….becas she know if she have sell her article so she have to written anti Hindu….article then she love by all elite class…

    • Aap wahi hoo na jo paid comments karta hai jise sarkar se har sawal karne wala or protest karne wale Anti Hindu, tukde tukde gang lagte hai chahe woh hindu hi kyoon na hoo?

      Accha ek baat batao gobar ganesh.

      USA main white House 248 years old hai phir bhi woh kabhi change nahi hua only renovated & hamara parlamaint only 93 years old then why need new?

      Don’t forget agar aap ko hindu bitha sakta hai kursi pe to wahi kursi khali bhi karwa sakta hai… Mat gumaan kar apni sarkar or feku company.

      Nothing is permanent.

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