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Saturday, 21 December, 2024
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कोरोनावायरस संकट अगर मोदी नहीं बल्कि मनमोहन सिंह के राज में आता तब क्या होता

मनमोहन सिंह संस्थाओं और व्यवस्था का दामन पकड़कर बिना शोरशराबा किए शासन चलाने वाले नेता रहे हैं जबकि नरेंद्र मोदी अपनी शख्सियत के बल पर अपनी कथनी और करनी में मुखर रहने वाले नेता रहे हैं. कोरोना संकट से निपटने में दोनों को अपनी-अपनी खास ताकत से बल मिलता.

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यह एक दिलचस्प विचार है. यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करिश्मे और वाकपटुता का ही असर था कि कोरोना संकट के दौरान लोग लॉकडाउन के आदेशों का पालन करते रहे, ताली-थाली बजाने और दीया-मोमबत्ती जलाने की अपीलों पर अमल करते रहे. आज अगर मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री होते और कोरोनावायरस से लड़ाई का नेतृत्व कर रहे होते तो शायद यह सब मुमकिन न होता.

मनमोहन सिंह की मद्धिम आवाज़, विनम्र चाल-ढाल और भारत भर में अपनी राजनीतिक पूंजी या प्रशंसकों की जमात का अभाव इस महामारी से जंग में उनके लिए भारी अड़ंगे पैदा करता. जरा कल्पना कीजिए, रात आठ बजे वे देश के नाम अपने संदेश में लोगों से घरों के अंदर रहने की अपील कर रहे हैं, मगर उनके अपने मंत्री ही एक आवाज़ में नहीं बोल रहे हैं.

लेकिन मोदी के राज में भारत इससे अलग है. स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण सचिव प्रीति सूदन के करीबी लोग बताते हैं कि अगर वे रात 2 बजे भी कोरोना महामारी के बारे में सूचना पाने के लिए व्हाट्सअप पर निर्देश भेजती हैं तो मिनटों के भीतर जवाब आ जाता है. इसके बरक्स यूपीए-2 की मनमोहन सिंह सरकार के स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आज़ाद तो सामान्य कॉल के लिए भी मोबाइल फोन का प्रयोग करने से कतराते थे.

दोनों सरकारों के बीच केवल इसी तरह का फर्क नहीं है. दोनों सरकार, यानी एक तो 2004-14 के बीच चली मनमोहन सिंह सरकार जो उनके व्यक्तित्व की प्रतिबिंब थी और जिस सरकार में वे उन तमाम दूसरे लोगों में एक थे जिनकी चलती थी और दूसरी प्रधानमंत्री मोदी की सरकार जिसमें केवल उनकी आवाज़ वजन रखती है. मनमोहन सिंह मददगार की भूमिका में होते थे, जबकि मोदी आग्रही हैं. लेकिन नेतृत्व-गुण में केवल प्रभावशाली व्यक्तित्व और अपने लिए व्यक्तिपूजा की भावना जगाने जैसी विशेषताएं ही शामिल नहीं हैं. लोकतन्त्र संस्थाओं और उन्हें चलाने वाले लोगों का निर्माण करने की मांग करता है— वह भी कैमरों, सुर्खियों, और हैशटैग से दूर रहते हुए.

मनमोहन सिंह एक शांत सत्ता के प्रतीक थे— जो संस्थाओं और व्यवस्था से संचालित होती है. मोदी अपनी शख्सियत के बल पर अपनी कथनी और करनी में मुखर रहने वाले नेता हैं.

उदारता का इतिहास

2009 में एच-1एन-1 वायरस ने जब भारत में हमला किया था तब वह महामारी नहीं बनी थी, उसने 1,800 लोगों की जान ली थी और 20,000 लोगों को संक्रमित किया था. पूर्व स्वास्थ्य सचिव के. सुजाता राव ने उस दौर को याद करते हुए बताया कि तब गुलाम नबी आज़ाद सरकार के चेहरे के रूप में सामने थे और वे राजनीतिक ध्यान आकर्षित करने के लिए हरेक मुख्यमंत्री से बात कर रहे थे, राज्यों के स्वास्थ्य मंत्रियों के साथ बैठकें कर रहे थे. आज स्थिति काफी बदली हुई है, रोज की ब्रीफिंग स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन नहीं बल्कि स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के संयुक्त सचिव, प्रधानमंत्री कार्यालय के चहेते लव अग्रवाल करते हैं, जबकि मुख्यमंत्रियों के साथ सभी वीडियो मीटिंग खुद मोदी करते हैं.

यह स्पष्ट करता है कि मोदी किस तरह सरकार चलाते हैं. 24 मार्च से जब पूरे देश में लॉकडाउन घोषित करने का फैसला हुआ तब मुख्यमंत्रियों को इसके बारे में पहले सूचित नहीं किया गया. छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने बाद में ट्वीट किया कि प्रधानमंत्री ने अगर राज्यों से पहले ही सलाह-मशविरा किया होता तो यह देशहित में ही होता. लेकिन मोदी तो सर्जिकल स्ट्राइक वाली मानसिकता से ग्रस्त हैं, चाहे वह 2016 में नोटबंदी की घोषणा हो या पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर पर सर्जिकल स्ट्राइक करने का फैसला हो. उन्हें तो लोगों को चौंकाना ज्यादा पसंद है.

मनमोहन सिंह ने जब कहा था कि उनका मूल्यांकन करने में इतिहास मीडिया के मुक़ाबले ज्यादा उदारता बरतेगा, तब उन्होंने सोचा भी नहीं होगा कि वह मौका इतनी जल्दी आ जाएगा. यूपीए की दोनों सरकारों के घोर आलोचक भी, जो यह मानते थे कि यूपीए की अध्यक्ष सोनिया गांधी के सामने मनमोहन सिंह भीगी बिल्ली बने रहते थे, आज यह कबूल कर रहे हैं कि वे निर्णय प्रक्रिया में ज्यादा लोगों को शामिल करते थे और आज वे अर्थव्यवस्था को ज्यादा बेहतर तरीके से संभालते.

File photo | PM Narendra Modi talks to chief ministers on plan to tackle coronavirus | Narendramodi.in
मुख्यमंत्रियों से बात करते नरेंद्र मोदी

आर्थिक विशेषज्ञ मिनहाज़ मर्चेंट कहते हैं, ‘मनमोहन सिंह दूसरे देशों की तरह शायद सीमित लॉकडाउन करते और तब आंकड़ों के मुताबिक धीरे-धीरे पूर्ण लॉकडाउन तक जाते. उन्होंने अर्थव्यवस्था पर पूर्ण लॉकडाउन के असर का पहले ही आकलन किया होता और दोनों के बीच एक संतुलन बनाकर चलते.’

खूबियां और कमजोरियां

मनमोहन सिंह और मोदी की खूबियां और कमजोरियों का फौरी विश्लेषण दिलचस्प विरोधाभासों को उजागर कर सकता है. प्रभावपूर्ण संवाद न कर पाना मनमोहन सिंह की सबसे बड़ी कमजोरी रही है, जबकि मोदी यह शानदार तरीके से कर लेते हैं.

संचार विशेषज्ञ दिलीप चेरियन कहते हैं, ‘हमें यह याद रखना चाहिए कि यूपीए की सबसे बड़ी विफलता अर्थव्यवस्था के मामले में नहीं बल्कि संवाद स्थापित करने के मामले में रही. मनमोहन सिंह के राज में और मोदी सरकार के दौर में भारत की आर्थिक वृद्धि के आंकड़ों की तुलना करते हुए आज जिन लोगों की आंखें भीग जाती हैं उन्हें यह भी याद रखना चाहिए कि उनके अधीन यूपीए की सरकारों को कमजोर और कड़े फैसले करने के मामले में डरपोक कहा जाता था. वास्तव में, यह मनमोहन सिंह सरकार का दूसरा दौर था जिसने मोदी को भारतीय जनता के सोच में जगह बनाने का मौका दिया. फिर भी, जैसा कि चेरियन का मानना है, 1991 में वित्त मंत्री के तौर पर मनमोहन सिंह ने आर्थिक संकट का तेजी और सख्ती से सामना किया था, ‘उस समय जो टॉप टीम थी वह विश्वस्तरीय थी और सक्रिय दिख रही थी. मनमोहन सिंह से लेकर मोंटेक सिंह अहलूवालिया तक सारे आला अधिकारी ताकतवर और विवेकशील थे. न केवल नाव को डूबने से बचाया गया बल्कि संकट को दीर्घकालिक बदलावों को लागू करने के अवसर में तब्दील किया गया ताकि वह फिर न सिर उठाए.’


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वैसे, इसमें कोई संदेह नहीं है कि मनमोहन सिंह या यूपीए के दूसरे किसी बड़े नेता के विपरीत मोदी ने अपने संवाद कौशल का बखूबी इस्तेमाल किया है— चाहे यह शाम 8 बजे देश के नाम संदेश हो या सुबह 9 बजे रेकॉर्डेड संदेश हो. और उन्होंने अपनी यह छवि मजबूत की है कि वे लोगों से सीधे बात करते हैं और लोग भी उनकी बात मानते हैं— चाहे यह स्वास्थ्यकर्मियों का हौसला बढ़ाने के लिए ताली-थाली बजाना हो या कथित अंधकार को भगाने के लिए दीया-मोमबत्ती जलाना हो. चेरियन कहते हैं कि लोगों से सीधे संवाद करने की अपनी क्षमता को औज़ार बनाकर ही तो मोदी ने एक सरकार का तख़्ता पलट किया था.

पुरानी संस्थाओं का सहारा

जवाहरलाल नेहरू और बर्बाद किए गए सत्तर साल के खिलाफ मोदी कई भाषण दे सकते हैं. लेकिन कहा जा सकता है कि मोदी ने मनमोहन सिंह सरकार से बहुत कुछ उधार लिया है.

उदाहरण के लिए, नेशनल सेंटर फॉर डिजीजेज़ कंट्रोल द्वारा 2004 में विकसित समेकित रोग निगरानी कार्यक्रम को लें. इसी का इस्तेमाल 2020 में कोरोनावायरस के फैलाव का पता लगाने के लिए किया जा रहा है. या फिर व्यापक विचार-विमर्श के लिए मंत्रियों के विशेष समूह (जीओएम) के गठन के आइडिया को लें. मोदी युग में मंत्री लोग जिस तरह अदृश्य नज़र आते हैं उसे देखते हुए जीओएम की जगह ‘एम्पावर्ड जीओएम’ (ईजीओएम) बनाए गए और इनका प्रभार खास-खास चुनिन्दा सचिवों को दिया गया. यह फैसला तब किया गया जब मानवीय त्रासदी बेकाबू होने लगी और यह साफ हो गया कि इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आइसीएमआर) द्वारा 18 मार्च को गठित टेक्निकल टास्क फोर्स तथा स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा 21 मार्च को गठित पब्लिक हेल्थ वर्किंग ग्रुप पर्याप्त नहीं हैं. यूपीए-2 में 30 जीओएम और ईजीओएम थे. मोदी ने गद्दी पर बैठते ही इन सबको खत्म कर दिया था.

Finance ministercManmohan Singh after presenting historic 1991 budget. | Photo: Praveen Jain | ThePrint
फोटो: प्रवीन जैन/दिप्रिंट

लेकिन 29 मार्च को मोदी सरकार ने आपदा प्रबंधन अधिनियम 2005 के तहत 11 ईजीओएम गठित किए, जिनका प्रभारी उन खास चुनिन्दा सचिवों को बनाया, जो संकट के दौरान काम कर दिखते रहे हैं. इनमें जल आपूर्ति सचिव परमेश्वरन अय्यर हैं जिन्हें खाद्य सामग्री तथा दवाओं जैसी जरूरी चीजों की उपलब्धता बनाए रखने के सप्लाई चेन एवं व्यवस्था को बनाए रखने का जिम्मा सौंपा गया है. नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कान्त को निजी क्षेत्र, एनजीओ और अंतरराष्ट्रीय संगठनों के साथ तालमेल रखने का जिम्मा सौंपा गया है. औषधि विभाग के सचिव पी.डी. वाघेला को पीपीई, मास्क, दस्ताने, वेंटिलेटर, सरीखे जरूरी साजोसामान की उपलब्धता और उनके उत्पादन, उगाही, निर्यात, वितरण आदि का जिम्मा सौंपा गया है.

यहां तक कि मोदी की प्रिय ‘आयुष्मान भारत’ योजना 2008 में शुरू की गई राष्ट्रीय बीमा योजना का ही परिवर्द्धित संस्करण है. भारी-भरकम के प्रति मोदी के झुकाव के कारण ‘आयुष्मान भारत’ योजना अब दुनिया में सरकारी स्वास्थ्य बीमा की सबसे बड़ी योजना बन गई है.

लेकिन सभी नकल सकारात्मक नहीं कहे जा सकते. स्वास्थ्य सेवाओं पर जीडीपी के 2.5 प्रतिशत के बराबर राशि खर्च करने का फैसला किया गया है मगर यह मंजिल अभी बहुत दूर है. स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए गठित एक उच्चस्तरीय दल ने 2017 में गठित 15वें वित्त आयोग को सौंपी अपनी रिपोर्ट में अनुमान लगाया है कि 2017 में घोषित राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति के मुताबिक जीडीपी के 2.5 प्रतिशत की बराबरी पर पहुँचने के लिए 2020-21 में स्वास्थ्य क्षेत्र को केंद्र से 145,000 करोड़ रुपये मिलने चाहिए. लेकिन इस साल केंद्र से उसे मात्र 70,000 करोड़ रुपये मिले.

सार्वजनिक स्वास्थ्य ढांचे का गठन

अगर कोई सबक सीखना है तो वह यूपीए-1 सरकार से सीखा जा सकता है, कि उसने एड्स से किस तरह मुक़ाबला किया और मातृ एवं शिशु मृत्युदर को कम करने के लिए राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एनआरएचएम) के बजट को किस तरह तीन गुना बढ़ा दिया था. लेकिन यूपीए-2 में कई घोटालों के कारण स्वास्थ्य का मसला नेपथ्य में चला गया. इसमें आगे की सरकारों के लिए कई सबक हैं बशर्ते पर्याप्त राजनीतिक समर्थन हो, पर्याप्त बजट हो और सिविल सोसाइटी तथा राज्यों के साथ निरंतर संवाद हो. लेकिन सिविल सोसाइटी के प्रति सरकार की उपेक्षा जगजाहिर है और असहमति जाहिर करने वाले एनजीओ को राष्ट्र विरोधी माना जाता है, यूपीए-1 और 2 के दौरान गठित राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की निरंतर निंदा की जाती रही और भाजपा इसकी अध्यक्ष सोनिया गांधी पर तंज़ कसते हुए उन्हें ‘सुपर पीएम‘ कहती रही.

लेकिन चाहे मनमोहन सिंह का दौर रहा हो या मोदी का राज हो, भारत की सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं का हाल बुरा ही रहा है. यूपीए सरकार में एक सार्वजनिक स्वास्थ्य काडर बनाने कोशिश की गई थी, जिस पर 2016-17 की राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति में ज़ोर दिया गया था. पूर्व केंद्रीय स्वास्थ्य सचिव (1999-2002) शैलजा चंद्रा कहती हैं, ‘राज्य अहमियत नहीं देते, जो कि रोगों के हॉटस्पॉट की पहचान, मामलों का पता लगाने, और निगरानी रखने के लिए जरूरी है. इसके लिए पोस्ट-ग्रेजुएट की नहीं बल्कि ज़िला स्तर पर सार्वजनिक स्वास्थ्य के बारे में प्रशिक्षित लोगों की जरूरत है. मेडिकल और पब्लिक हेल्थ दो अलग-अलग क्षेत्र हैं और दोनों आवश्यक हैं.’

मनमोहन सिंह ने पब्लिक-प्राइवेट पहल के तौर पर 2006 में जिस पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया का गठन किया था वह सार्वजनिक स्वास्थ्य के बारे में मास्टर्स डिग्री देता है. लेकिन, सुजाता राव कहती हैं कि इन वर्षों में गैर-संचारी रोगों में वृद्धि के कारण सार्वजनिक स्वास्थ्य पर ध्यान कम दिया जाने लगा है. राव 2006-09 में नेशनल एड्स कंट्रोल ऑर्गनाइज़ेशन (नाको) की महानिदेशक और 2009-10 में स्वास्थ्य सचिव थीं. वे कहती हैं, ‘सार्वजनिक स्वास्थ्य ने एक विषय के तौर पर अपनी अहमियत खो दी है, जो कि भारत के लिए अच्छी बात नहीं है क्योंकि यहां 36 प्रतिशत बीमारी संचारी और संक्रामक रोगों के कारण होती है. भारत इतना कमजोर है कि वह संक्रामक रोगों से सुरक्षा में ढील नहीं दे सकता. यह तभी संभव है जब सार्वजनिक स्वास्थ्य का अपना ही अलग विभाग हो.’

आइसीएमआर के पूर्व महानिदेशक निर्मल के. गांगुली भी यही कहते हैं. भारत में सार्वजनिक स्वास्थ्य को लेकर उन्होंने जो चार फैसले किए थे उनमें सबसे अहम था सार्वजनिक स्वास्थ्यकर्मियों और सामाजिक व व्यवहारजनित रोगों के वैज्ञानिकों का एक काडर बनाने का फैसला. अंग्रेजों के राज में यहां इंडियन मेडिकल सर्विस थी जिसके सैन्य काडर को असैनिक अस्पतालों में भी तैनात किया जाता था. उसे 1947 में खत्म कर दिया गया. दूसरा फैसला आसान पहुंच वाली और कम खर्चीली सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रयोगशालाओं का जाल बिछाने से संबंधित था. तीसरा फैसला संक्रामक रोगों का एक पोस्टडॉक्टरल विशेष कोर्स शुरू करने का था. चौथा फैसला सरकार और दूसरे संगठनों की मदद से रिसर्च एनजीओ का नेटवर्क बनाने का था.


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आइसीएमआर के टास्क फोर्स के सदस्य गांगुली अपनी निजी हैसियत से कहते हैं, ‘ये सारे विचार कोई नये नहीं हैं लेकिन इन्हें ऊंचे स्तर पर प्रतिबद्धता, वास्तविक फंड, और एकल व्यवस्था की जरूरत है ताकि संगठनों के बीच भौगोलिक आधार पर विभाजन न हो. दुनिया में जिस सरकार ने भी स्वास्थ्य को गंभीरता से नहीं लिया हो वह, बेहतर है कि अब इसे गंभीरता से लेना शुरू कर दे. ये वायरस देशों की सीमाएं नहीं देखतीं और उन्हें किसी वीसा, पासपोर्ट की जरूरत नहीं पड़ती. कोई भी संक्रमण अब स्थानीय नहीं रहता.’

एनआरएचएम के बारे में राव बताती हैं कि योजना आयोग के साथ लंबे तकरार के बाद इसे यूपीए-2 में रद्द कर दिया गया, जो स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण और सर्वोच्च स्तर पर राजनीतिक दिशाहीनता का मॉडल बनता दिख रहा था.

आर्थिक और विदेश नीति का मोर्चा

विशेषज्ञों का मानना है कि आर्थिक मोर्चे पर मोदी सरकार ने इस संकट का आगे बढ़कर सामना करने की कोशिश की है लेकिन वह तीन अहम मोर्चों पर गलती कर बैठी है. मर्चेंट कहते हैं कि साहसी और तेज होना ही काफी नहीं है, समझदारी भी चाहिए. वे इन गलतियों का विस्तार से जिक्र करते हैं—

क) केवल तीन घंटे पहले 21 दिन के देशव्यापी लॉकडाउन की घोषणा के कारण मेडिकल और किराना की दुकानों पर भीड़ और धक्कामुक्की के हालात पैदा हो गए, जिससे सोशल डिस्टेन्सिंग की धज्जी उड़ गई. बल्कि इसके लिए मोदी को चार दिन का समय देना चाहिए था ताकि लोग अपने दफ्तर वगैरह जा पाते और जरूरी काम निबटा पाते, बिलों के भुगतान कर पाते, घर से काम करने के लिए व्यवस्था कर पाते, जरूरी चीजें खरीद पाते.

ख) सार्वजनिक परिवहन को चार दिन के बाद बंद करना चाहिए था ताकि प्रवासी कामगार अपने गांव/घर सुरक्षित पहुंच जाते, बेशक वाहनों में भीड़भाड़ से बचने के एहतियात बरते जाते.

ग) उद्योगों और कामगारों की सहायता के लिए मोदी सरकार ने 1.7 लाख करोड़ के जिस पैकेज की घोषणा की है उसे 10 लाख करोड़ का उधार लेकर बढ़ाया जाना चाहिए. ब्याज दरें जबकि न्यूनतम स्तर पर हैं, 10 लाख करोड़ पर 4 फीसदी की दर से सालाना 40,000 करोड़ का ब्याज देना पड़ेगा. इससे वित्तीय घाटे में महज 0.2 प्रतिशत की वृद्धि होगी. इसे बर्दाश्त किया जा सकता है, जबकि जीडीपी की 5 प्रतिशत के बराबर की राशि से उद्योगों और कामगारों को इस संकट से तेजी से उबरने में मदद मिलेगी.

विदेश नीति का, जो कि मनमोहन सिंह का मजबूत सिक्का था, आज यही हाल है कि हरेक देश अपने लिए सोच रहा है. मोदी ने हर भारतीय दूतावास को मेजबान देश को भारत सरकार द्वारा उठाए गए कदमों—21 दिन के लॉकडाउन, कोरोना के फैलाव को रोकने के लिए तमाम देशों से सहयोग और तालमेल की पेशकश आदि—के बारे में अवगत कराने का निर्देश दिया है लेकिन विशेषज्ञ भरत कारनाड कहते हैं कि तमाम देशों ने जिस तरह अंतर्मुखी रुख अपना लिया है उसके कारण ऐसे निर्देशों से कोई लाभ नहीं हासिल होने वाला है.

From left to right Vice President M. Venkaiah Naidu, Sonia Gandhi, Narendra Modi and former PM Manmohan Singh | Photo: Praveen Jain | ThePrint
फोटो: प्रवीन जैन/दिप्रिंट

वे कहते हैं, ‘मोदी ने शुरू में जो पहल की थी उसके चलते दक्षिण एशिया के देशों ने महामारी और उसके आर्थिक नतीजों से निबटने के लिए सामूहिक प्रयास करने के वास्ते एकजुट होने का हौसला दिखाया था. यह भारत को इस उपमहादेश के लिए एक नीति तय करने और वास्तविक, दीर्घकालिक रणनीतिक लाभ दिलाने में मदद कर सकता था लेकिन अफसोस कि यह दो कारणों से गड़बड़ा गया. पहला कारण यह कि दिल्ली ने सार्क देशों की जो वीडियो शिखर बैठक की उसमें भारत इमरान खान के नुमाइंदे जफर मिर्ज़ा के बिछाए कश्मीर जाल में खुली आंखों के साथ फंस गया. दूसरा कारण यह कि संकट से लड़ने के लिए मोदी ने भारत की ओर से जो 1 करोड़ डॉलर के योगदान की पेशकश की वह बहुत छोटी थी, जबकि चीन तुरंत मेडिकल सहायता और आसान शर्तों पर उधार देने को तैयार था.’

उथल-पुथल

विशेषज्ञों ने जिस तरह वायरस के नियमित प्रकोप की आशंकाएं जताई हैं उसके मद्देनजर साफ है कि स्वास्थ्य को एजेंडा पर भारी अहमियत देनी होगी. पिछली गलतियों को दोहराना बर्दाश्त नहीं किया जाएगा.

मोदी 2001 में गुजरात में भूकंप के झटके को झेल चुके हैं, इसी तरह मनमोहन सिंह 2004 में सूनामी से निबट चुके हैं. एक अच्छा नेता संकट को बेकार नहीं जाने देता. बुकर प्राइज़ विजेता अरुंधति राय ने हाल में ‘फाइनांसियल टाइम्स’ में लिखा भी है, कि ‘महामारियां मनुष्य को अतीत से पीछा छुड़ाकर अपनी दुनिया की नयी कल्पना करने को मजबूर करती रही हैं. यह महामारी भी कोई अपवाद नहीं है. यह एक दुनिया से दूसरी दुनिया में कदम रखने की एक और दहलीज, एक पोर्टल है.’


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मोदी इस कोरोना महामारी का उपयोग एक ऐसी नयी जवाबदेह, और सर्वसमावेशी स्वास्थ्य व्यवस्था तैयार करने के लिए एक पोर्टल के तौर पर कर सकते हैं, जो देशवासियों को तब भी अच्छी सेवा दे जब कोई इमरजेंसी न हो.
इसकी छोटी शुरुआत हर्षवर्धन से हो सकती है.

चूंकि भारत को किस्मत से एक डॉक्टर के रूप में एक मंत्री मिला है जिसने दिल्ली से पोलियो के उन्मूलन और धूम्रपान के खिलाफ सख्त कदम उठाने के मामलों में अपनी क्षमता साबित की है, इसलिए उम्मीद की जानी चाहिए कि प्रधानमंत्री मोदी उन्हें केवल महकमे की ज़िम्मेदारी ग्रहण करने की नहीं बल्कि उसे संभालते हुए दिखने की भी अनुमति देंगे.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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2 टिप्पणी

  1. मौनम् सर्वार्थसाधनं व सत्यम्प्रियं विमुक्तं वाक्यं भवति केवलं
    स्वार्थसाधनं।

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