पुलवामा हमले के बाद देश में तेजी से बदले राजनीतिक घटनाक्रम के बीच उत्तर प्रदेश की चुनावी रणनीति में काफी उथल-पुथल की खबरें आ रही है. इसमें सबसे बड़ी खबर कांग्रेस के सपा-बसपा-आरएलडी गठबंधन में शामिल होने को लेकर है. हालांकि इन पार्टियों के शीर्ष नेतृत्व ने अभी तक इस खबर की पुष्टि नहीं की है, फिर भी चूंकि चुनाव के समय पिछले दरवाजे से राजनीतिक पार्टियां बातचीत करती रहती हैं, इसलिए ऐसी खबर को एकदम से नकारना भी सही नहीं है.
इस खबर से सवाल उठता है कि ऐसा क्या कारण है जिससे कांग्रेस को नए सिरे से महागठबंधन में शामिल करने की संभावना पर बात हो रही है? कांग्रेस के महागठबंधन में शामिल होने से किसे कितना फायदा, और किसको कितना नुकसान हो सकता है?
यदि हम कांग्रेस को महागठबंधन में शामिल किए जाने के कारणों की बात करें तो इसके पीछे ये कारण हो सकते हैं-
वोट शेयर में महागठबंधन से आगे है एनडीए
महागठबंधन में कांग्रेस में शामिल करने की बातचीत का एक बड़ा कारण पिछले आम चुनाव में बीजेपी और उसकी सहयोगी पार्टी अपना दल का संयुक्त वोट प्रतिशत हो सकता है. 2014 के आम चुनाव में बीजेपी ने अपनी सहयोगी पार्टी अपना दल के साथ मिलकर, संयुक्त रूप से 43.2 प्रतिशत वोट प्राप्त किया था, जबकि सपा ने 22.18 और बसपा ने 19.62 प्रतिशत वोट प्राप्त किया था. यदि सपा और बसपा के वोट प्रतिशत को जोड़ दिया जाये तो यह 41.8 प्रतिशत ही होता है, जोकि एनडीए के वोट प्रतिशत से कम है.
पिछले आम चुनाव में आरएलडी ने कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था, और उसका वोट प्रतिशत 0.85 था. इस बार वह महागठबंधन के साथ चुनाव लड़ रहा है, इसलिए यदि उसके भी वोट प्रतिशत को सपा-बसपा के वोट प्रतिशत के साथ जोड़ दिया जाये, तो भी यह 42.65 प्रतिशत ही होता है, जो कि एनडीए के वोट प्रतिशत से कम रह जाता है.
इस बार महागठबंधन में निषाद पार्टी भी शामिल है, लेकिन उनका वोट प्रतिशत उपलब्ध नहीं है. इसी तरह से एनडीए की सहयोगी सुहेलदेव राजभर भारतीय समाज पार्टी का भी लोकसभा चुनाव के मामले में वोट प्रतिशत उपलब्ध नहीं है, इसलिए इनके प्रभाव का फिलहाल अनुमान नहीं लगाया जा सकता.
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चूंकि वोट प्रतिशत के हिसाब से एनडीए अभी भी उत्तर प्रदेश में महागठबंधन पर बढ़त बनाए हुए है, और अपना दल के एनडीए में ही रह कर चुनाव लड़ने के संकेत के बाद यह साफ हो गया है कि इसको वो नैतिक बढ़त के रूप में प्रचारित करेगा.
अभी तक महागठबंधन को आशा थी कि शायद अपना दल कांग्रेस के साथ चला जाएगा, जिससे एनडीए की बढ़त कम हो जाएगी, लेकिन नयी खबर से लगता है कि कांग्रेस और अपना दल की बातचीत बेनतीजा रही. अभी तक खबर यह थी कि अनुप्रिया पटेल बीजेपी से नाराज चल रही हैं, लेकिन अब खबर है कि अनुप्रिया पटेल के पति आशीष पटेल को उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री बनाया जा सकता है.
एनडीए के वोट प्रतिशत में बढ़त वाले तथ्य से सपा-बसपा के रणनीतिकार अनभिज्ञ होंगे, ऐसा मनाने का कोई कारण हैं. ऐसे में इस गठबंधन को खुद के वोट प्रतिशत को एनडीए से आगे दिखाने के लिए कांग्रेस से बातचीत का दरवाजा खोलना पड़ा होगा. पिछले आम चुनाव में कांग्रेस का वोट प्रतिशत 7.47 था, यदि इसको महागठबंधन के वोट प्रतिशत से जोड़ दिया जाये तो विपक्ष एनडीए पर बड़ी बढ़त हासिल करते हुए दिखाता है, जिसका उसे मनोवैज्ञानिक फायदा मिल सकता है.
जहां तक एनडीए की बात है, तो पाकिस्तान पर अपनी सैन्य कार्यवाई को चुनावी मुद्दा बनाकर वह विपक्ष पर मनोवैज्ञानिक बढ़त बनाने की कोशिश में है, ऐसे में अगर उसे चुनावी आकड़ों में बढ़त दिखाई दी, तो उसका हौसला बढ़ जाएगा.
अल्पसंख्यक मतो में विभाजन की आशंका
उत्तर प्रदेश की राजनीति में अल्पसंख्यक कई सीटों पर निर्णायक भूमिका में है. आजकल इनकी भूमिका आरक्षित सीटों पर अति महत्वपूर्ण हो गयी है. यह एक आम धारणा थी कि उत्तर प्रदेश का अल्पसंख्यक अपने धर्म के उम्मीदवार को वोट देता है, लेकिन राजनीति विज्ञानी प्रो ओलिवर हीथ, गिल वरनीज़ और संजय कुमार के शोध से यह बात साबित हुई है कि मुसलमान मतदाता ऐसे उम्मीदवार को वोट देता है, जो उसकी नजर में बीजेपी के उम्मीदवार को हराते हुए दिखाता है. राजनीति विज्ञान में इस तरह की वोटिंग को स्ट्रेटेजिक वोटिंग कहा जाता है.
मुसलमानों की स्ट्रेटेजिक वोटिंग का ही परिणाम है कि पिछले कई चुनावों में बड़ी संख्या में मुस्लिम उम्मीदवार देने के बावजूद बीएसपी इस समुदाय का अपेक्षाकृत ज्यादा वोट पाने में असफल रही है. हालांकि यह बात अभी साबित की जानी बाकी है, लेकिन ऐसा लगता है कि मुसलमानों की स्ट्रेटेजिक वोटिंग का शिकार ना केवल बीजेपी हो रही है, बल्कि बीएसपी भी हो रही है, क्योंकि एक धारणा बन गयी है कि चुनाव बाद बीएसपी बीजेपी से गठबंधन कर सकती है, जो कि बीएसपी ने अतीत में किया भी है. जबकि सपा ने कभी भी प्रत्यक्ष रूप से बीजेपी से गठबंधन नहीं किया है, इसलिए मुसलमान मतदाताओं में इसके बारे में ऐसी धारणा नहीं दिखती.
चूंकि पहले बीएसपी से मुक़ाबले में सपा रहती थी, इसलिए स्ट्रेटेजिक वोटिंग की सूरत में सपा पहला विकल्प बनती थी. इस बार सपा-बसपा से एक कामन प्रत्याशी होगा, इसलिए इस बात की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है कि बीएसपी के कोटे के कुछ उम्मीदवारों को मुसलमान मतदाताओं की स्ट्रेटजिक वोटिंग का शिकार होना पड़ जाये. ऐसा तभी होगा जब कांग्रेस हर सीट पर अपना अलग से उम्मीदवार उतरेगी. ऐसे में अगर कांग्रेस भी गठबंधन में शामिल हो जाती है, तो स्ट्रेटेजिक वोटिंग का खतरा कम से कम हो जाएगा.
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प्रियंका गांधी के सक्रिय राजनीति में उतरने से मुसलमान मतदातों का रुझान कांग्रेस की तरफ झुका हुआ दिखता है. ऐसे में इनके मतों में बिखराव को रोकना रणनीति का अहम हिस्सा हो सकता है.
स्थिर सरकार देने का भरोसा
यदि उत्तर प्रदेश के महागठबंधन में कांग्रेस शामिल हो पाती है, तो चुनाव बाद जोड़तोड़ की सरकार बनने की आशंका भी समाप्त हो जाएगी, जिसको बीजेपी अपना चुनावी मुद्दा बना रही है. चूंकि भारत में ऐसी गठबंधन सरकारें अस्थिरिता का शिकार रहीं, जिनका नेतृत्व कांग्रेस या फिर बीजेपी ने नहीं किया, इसलिए क्षेत्रीय पार्टियों द्वारा बनाए जाने वाले किसी भी वैकल्पिक गठबंधन के पक्ष में सकारात्मक हवा नहीं बन पा रही है. इस वजह से पिछले दो दशक से कांग्रेस-भाजपा से इतर किसी अन्य दल का नेता प्रधानमंत्री भी नहीं बन सका.
कांग्रेस इस बात को जानती है, इसलिए वो विभिन्न विपक्षी पार्टियों को बहुत ज्यादा तवज्जो देने से कतराती है. लेकिन यदि वह उत्तर प्रदेश में गठबंधन में शामिल होना चाहती है, तो उसे मायावती से मुश्किल सौदेबाजी करनी पड़ सकती है, जिसमें बीएसपी को अन्य राज्यों में कुछ सीटें देने के साथ ही, कम से कम उपप्रधानमंत्री का पद देने के लिए राजी होना पड़ सकता है.
ऐसा करके कांग्रेस जहां पूरे भारत में फैले दलित वोट को अपनी तरफ खींच सकती है, वहीं मायावती कम से कम चुनावी खर्चा किए हुए दूसरे राज्यों में अपनी पार्टी को जिताते हुए उसके राष्ट्रीय दर्जा पर आए खतरे को भी लंबे समय तक टाल सकती हैं. एक स्थिर सरकार आने की आहाट से कारपोरेट लॉबी लाबी भी विपक्षी पार्टियों के पक्ष में सकारात्मक मीडिया कवरेज का दबाव बढ़ा सकती है.
गठबंधन में कांग्रेस को शामिल करने के नुकसान
विपक्षी महागठबंधन में कांग्रेस को शामिल किए जाने के नुकसान भी हैं. दरअसल आजादी के बाद 50 साल से भी ज्यादा समय तक देश की सत्ता कांग्रेस के पास ही रही. ऐसे में अमूमन सभी पार्टियों का उदय कांग्रेस का विरोध करके ही हुआ है. सपा-बसपा लंबे समय तक अपने समर्थक मतदाताओं को यह समझती रही हैं कि कांग्रेस की नीतियों की वजह से ही उनका विकास नहीं हुआ है? अब अगर वो कांग्रेस के साथ गठबंधन करती हैं, तो उनके सामने विचारधारा और नैतिकता का बड़ा सवाल खड़ा होगा. इसके साथ ही इनको कांग्रेस की पिछली सरकारों में हुए घोटालो का भी जवाब देना पड़ सकता है, जिसमें वो शामिल ही नहीं थीं.
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जहां तक बसपा की बात है तो उसका मतदाता पूर्व में कांग्रेस का ही मतदाता था. एक लंबे संघर्ष के बाद वह मतदाता कांग्रेस से टूट कर बसपा के पास आया है. ऐसे में गठबंधन होने की सूरत में इस बात का खतरा बना रहेगा कि कहीं यह मतदाता पुनः कांग्रेस के पास न चला जाये.
(लेखक पॉलिटिकल साइंस, रॉयल होलवे, लंदन विश्वविद्यालय में पीएचडी स्कॉलर हैं.)