राजनीतिक पार्टियों के घोषणा-पत्र क्या चुनाव के पहले, उसके दौरान और उसके बाद कोई सार्थक भूमिका निभाते हैं? क्या वे लोगों को पेश किए जाने वाले पार्टी के विचारों, नजरिए और कार्यक्रमों का शक्तिशाली प्रतीक होते हैं या सिर्फ प्रतीकात्मक भर होते हैं? ज्यादातर वोटर वोट देने के पहले घोषणा-पत्र पढ़ने की जहमत नहीं उठाते, इसलिए क्यों न घोषणा-पत्रों को कूड़ेदान में फेंक दिया जाए?
जब तब दिल जले लोग सनक में ऐसे सवाल करते हैं, फिर भी घोषणा-पत्र पार्टियों की भावी योजना, मुख्य मुद्दों पर कार्यक्रमों और वैचारिक नजरिए को उजागर करने के लिए अहम बने हुए हैं.
हालांकि, यूरोपीय और उत्तरी अमेरिकी देशों के मुकाबले भारत में चुनावी घोषणा-पत्रों को काफी कम तवज्जो दिया गया. मसलन, कम्पेरिटिव मैनिफेस्टो प्रोजेक्ट (सीएमपी) या घोषणा-पत्रों का तुलनात्मक अध्ययन परियोजना एक वैश्विक साझा कार्यक्रम है. इसके तहत दुनिया के विभिन्न देशों के विरोधी पार्टियों द्वारा किए गए वादों को गणना लायक संख्या और तुलनात्मक मापदंडों में बदला जाता है. दुर्भाग्य से, इस अध्ययन से एशियाई और अफ्रीकी देश मोटे तौर पर नदारद हैं. इसके अलावा, सीएमपी की पद्धति भारत जैसे विविधता वाले देश में शायद कारगर न हो, जहां काफी संख्या में राजनीतिक पार्टियां हैं, जिनका विचारधारात्मक नजरिया हमेशा स्पष्ट नहीं होता.
इस संदर्भ में सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च (सीपीआर) ने अध्ययन का एक तरीका निकाला है, जिसमें कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी-मार्क्सवादी (सीपीआई-एम) के 1952 से लोकसभा चुनावों के घोषणा पत्रों का जायजा लिया जाए. यहां यह गौर करना जरूरी है कि अध्ययन में 1980 के पहले बीजेपी के बदले भारतीय जनसंघ (बीजेएस) और 1971 के पहले सीपीआई-एम के बदले भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) के घोषणा-पत्रों पर गौर किया गया है. ये तीन पार्टियां भारतीय राजनीति की वैचारिक दायरे का प्रतिनिधित्व करती हैं और अध्ययन में उन मुद्दों के उभरने पर गौर किया गया, जो भारतीय लोकतंत्र के लिए मायने रखते हैं.
इस अध्ययन में स्वतंत्र कोडिंग करने वालों और शोधकर्ताओं की एक बड़ी टीम ‘शब्द गणना’ के जरिए गणना योग्य पैमाने पर पहुंची है, यानी घोषणा-पत्र में किसी मुद्दे पर कितने शब्द लिखे गए हैं. इस मकसद से सात बड़े मुद्दों (या दायरों) की पहचान की गई है. ये हैं राष्ट्रीय सुरक्षा, राजनीतिक काबिलियत, राजनीतिक तंत्र, सामाजिक तानाबाना, आर्थिक योजना, कल्याणकारी कार्यक्रम, और विकास और इंफ्रास्ट्रक्चर.
इस महत्वाकांक्षी अध्ययन के नतीजे वाकई चकित करने वाले हैं और अकूत डेटा के साथ-साथ राजनीतिक नेताओं, विद्वानों, और पत्रकारों को आइडिया मुहैया कराते हैं, ताकि देश के सामने विशेष मुद्दों की गहरी छानबीन कर सकें, जिनकी ओर बड़ी राजनीतिक पार्टियों का ध्यान गया है.
1952 से घोषणा-पत्रों का अध्ययन देश के पहले चुनाव से राजनीति, अर्थव्यवस्था और समाज के ढांचे में आए गहरे बदलावों की भी मोटी तस्वीर पेश करता है. चुनाव घोषणा-पत्र भले भुलाए जा सकते हैं, मगर वे अपनी ऐतिहासिक छाप छोड़ जाते हैं.
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कुछ दिलचस्प सुर्खियां इस प्रकार हैं:
तीनों राजनीतिक संगठनों के सभी घोषणा-पत्रों में आर्थिक योजना, कल्याणकारी कार्यक्रमों और विकास व इंफ्रास्ट्रक्चर को काफी तवज्जो मिली है. तीनों के घोषणा-पत्रों में इन तीनों दायरों में कुल 55 फीसदी शब्द लिखे गए. हालांकि दशकों में इसके संदर्भ बदल गए हैं. पहले चार दशकों में आर्थिक योजना के सोशलिस्ट मॉडल पर जोर रहा जबकि निजी क्षेत्र की पैरोकार इकलौती बीजेपी रही है. 1991 में आर्थिक उदारीकरण से सभी घोषणा-पत्रों में इस वर्ग में मुद्दों की प्रकृति बदल गई.
सभी पार्टियों ने ग्रामीण भारत के प्रति प्रतिबद्धता के नारे तो उछाले, लेकिन विकास और इंफ्रास्ट्रक्चर के वर्ग में ग्रामीण विकास पर फोकस 1952 में 42 फीसदी से 2019 में गिरकर 5.6 फीसदी पर आ गया.
बीजेपी का लगातार इस देश में भौतिक इंफ्रास्ट्रक्चर पर काफी जोर है. इसी तरह, वह राष्ट्रीय सुरक्षा, स्टार्ट अप और आत्मनिर्भरता पर काफी जोर दे रही है.
वामपंथ का लगातार जोर साम्राज्यवाद विरोध या ‘अमेरिका विरोध’ के थीम पर है. उसका काफी जोर मजदूर अधिकारों और कृषि पर भी है.
विदेश नीति और राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले में पहले चार दशकों में अंतरराष्ट्रीयतावाद, बाहरी असर और विशेष विदेश रिश्तों पर जोर रहा. कांग्रेस का जोर अंतरराष्ट्रीयतावाद पर था, जबकि सीपीआई-एम का जोर विशेष विदेश संबंध रहा, जो चीन/सोवियत संघ के समर्थन और अमेरिका विरोध पर था. बीजेपी के घोषणा-पत्र में उस अवधि में ज्यादा जोर मिलिट्री पर था. 1980 के दशक के बाद से आतंकवाद ज्यादा आम हो गया, बीजेपी ने नाटकीय ढंग से आंतरिक सुरक्षा और आतंकवाद पर फोकस बढ़ा दिया. कांग्रेस और सीपीआई-एम का इन दो मुद्दों पर फोकस उतना जोरदार नहीं रहा.
दशकों के दौरान बदलती राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्थितियों में पार्टियों का इकलौता फोकस भी बदला. जैसा पहले बताया गया, 1980 के दशक तक आतंकवाद का जिक्र घोषणा-पत्रों में नहीं मिलता, लेकिन उसके बाद से यह खास मुद्दा बन गया. इसी तरह आर्थिक योजना और सरकारी हस्तक्षेप पर पहले चार दशकों में खासा जोर था, मुक्त बाजार या आर्थिक उदारीकरण का जिक्र तब बमुश्किल ही मिलता है. यह 1991 के बाद नाटकीय ढंग से बदल गया.
बदलती हकीकतों ने भी नए अफसानों को जन्म दिया. 1980 के दशक के बाद से पर्यावरण और टिकाऊपन महत्वपूर्ण मुद्दे बन गए. पहले चार दशकों में ‘शहरी मुद्दों’ पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया, क्योंकि भारत ग्रामीण प्रधान था. लेकिन शहरीकरण में बढ़ोत्तरी से शहरी इलाकों में वोटरों की बड़ी संख्या रहने लगी, तो अब शहरी मुद्दों पर जोर बढ़ गया है.
कल्याणकारी कार्यक्रमों की ओर पलड़ा झुका
लोकसभा चुनावों में कौन-से मुद्दे को पार्टी घोषणा-पत्रों में कितनी जगह मिली, उसकी रैंकिंग
राजनीतिक तंत्र
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के घोषणा-पत्रों में लोकतंत्र का जिक्र बमुश्किल ही मिलता है.
लोकसभा चुनाव घोषणा-पत्रों (1952-2019) में विभिन्न मदों में राजनीतिक तंत्र पर कंटेंट का प्रतिशत.
विकास और इंफ्रास्ट्रक्चर
बीजेपी का फोकस भौतिक इंफ्रास्ट्रक्चर पर, कांग्रेस का टिकाऊपन पर.
लोकसभा चुनाव घोषणा-पत्रों (1952-2019) में विभिन्न मदों में विकास और इंफ्रास्ट्रक्चर पर कंटेंट का प्रतिशत.
कल्याणकारी कार्यक्रम
सभी पार्टियों में कृषि, स्वास्थ्य और शिक्षा लोकप्रिय मुद्दा.
लोकसभा चुनाव घोषणा-पत्रों (1952-2019) में विभिन्न मदों में कल्याणकारी कार्यक्रमों पर कंटेंट का प्रतिशत.
सामाजिक ताना-बाना
अब घोषणा-पत्रों में पार्टियां सामाजिक ताना-बाने पर बात के मामले में ज्यादातर जाति और धर्म की बात करती हैं
लोकसभा चुनाव घोषणा-पत्रों (1952-2019) में विभिन्न मदों में सामाजिक ताना-बाने पर कंटेंट का प्रतिशत.
आर्थिक योजना
पार्टियां अमूमन घोषणा-पत्रों में आर्थिक लक्ष्यों की बात करती हैं, लेकिन महंगाई का जिक्र बमुश्किल ही करती हैं.
लोकसभा चुनाव घोषणा-पत्रों (1952-2019) में विभिन्न मदों में आर्थिक योजना पर कंटेंट का प्रतिशत.
राष्ट्रीय सुरक्षा
राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले में बीजेपी और कांग्रेस लक्ष्यों और मिलिट्री की बात करती हैं.
लोकसभा चुनाव घोषणा-पत्रों (1952-2019) में विभिन्न मदों में आंतरिक सुरक्षा पर कंटेंट का प्रतिशत.
राहुल वर्मा सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च (सीपीआर), नई दिल्ली में फेलो हैं. वे इन घोषणा-पत्रों की कोडिंग और विश्लेषण में मदद करने वाले सीपीआर के सभी शोधकर्ताओं का शुक्रिया अदा करना पसंद करेंगे, प्रणव गुप्ता ने कोडबुक तैयार करने और गुरनाम भाटिया ने विजुअलाइजेशन में मदद की, उनका भी शुक्रिया.
यह लेख सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में सितंबर 2022 में छपे प्रोमिजेज दैट मैटर टु इंडियन डेमोक्रेसी: ए स्टडी ऑफ इलेक्शन मैनिफेस्टोज सिंस 1952 का संपादित अंश है.
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