सरकार का ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ का नारा देश में उन परिवारों के लिये चिंता का कारण बनता जा रहा है जिनके घरों में बेटियां हैं. इसकी प्रमुख वजह देश के विभिन्न हिस्सों में अबोध और नाबालिग बच्चों से यौन शोषण, बलात्कार और उनकी हत्या के अपराध में बेतहाशा वृद्धि है. एक अनुमान के अनुसार इस समय रोज़ाना देश में 133 बच्चे इस तरह के अपराध का शिकार हो रहे हैं जो पहले के वर्षो की तुलना में बहुत अधिक है. बच्चियों के साथ यौन अपराधों की बढ़ती घटनाओं का एक ओर उच्चतम न्यायालय ने स्वतः संज्ञान लिया है तो दूसरी ओर सरकार ने भी यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण कानून ‘पॉक्सो‘ में व्यापक संशोधन करने और इस तरह के अपराध के लिये मौत की सज़ा सहित अनेक कठोर प्रावधान करने का फैसला किया है.
लेकिन सवाल यह है कि क्या पॉक्सो और भारतीय दंड संहिता में बच्चियों, किशोरियों और महिलाओं से बलात्कार, सामूहिक बलात्कार और उनकी हत्या के अपराध के लिये कानून में कड़ी सज़ा की मांग काफी होगी? शायद नहीं. इन अपराधों के लिये कड़ी सज़ा के प्रावधानों के बावजूद इनकी संख्या में तेज़ी से बढ़ रही है.
ऐसे अपराधों पर प्रभावी तरीके से अंकुश पाने के लिये स्थानीय स्तर पर पुलिस को जहां संदिग्ध चरित्र वाले व्यक्तियों की गतिविधियों पर निगाह रखने के लिये अपनी चौकसी बढ़ाने वहीं उसे इस काम में जन सहयोग भी लेना होगा.
इसके अलावा, तत्परता से अपराधी को कानून के अंदर लाने के लिये ऐसी कोई भी वारदात होने पर पुलिस के लिये जांच में प्रोफेशनल और वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाने की ज़रूरत है ताकि ऐसे अपराधी के खिलाफ निचली अदालत और फिर उच्च न्यायालय में भी मामला पूरी तरह संदेह से परे साबित हों.
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बच्चियों और किशोरियों के प्रति यौन हिंसा के मुकदमों की सुनवाई तेज़ी से पूरी करने की आवश्यकता है. इसके लिये उच्च न्यायालयों को उच्चतम न्यायालय के दिशानिर्देशों पर प्रभावी तरीके से कार्यवाही करके सुनिश्चित करना होगा कि ऐसे मुकदमों की सुनवाई को टाला जा सके.
कई बार पुलिस की जांच और आरोप पत्र के आधार पर निचली अदालत से तो अभियुक्त को मृत्यु दंड तक की सज़ा हो जाती है लेकिन उच्च न्यायालय में अपील पर सुनवाई के दौरान पुलिस की जांच की खामियां सामने आती हैं और आरोपी सज़ा से बच निकलने मे कामयाब हो जाता है.
बलात्कार और सामूहिक बलात्कार के अपराध में दोषी को कठोर सज़ा देने का प्रावधान भारतीय दंड संहिता में किये जाने के बाद से ही पॉक्सो कानून में व्यापक संशोधन करने की मांग हो रही थी. अब सरकार ने पॉक्सो कानून, 2012 की धारा 2, 4, 5, 6, 9, 14, 15, 34, 42 और 45 में संशोधन करने का फैसला लिया है ताकि बच्चों के यौन शोषण के पहलुओं से उचित तरीके से निबटा जा सके.
सरकार कानून की धारा 4, 5 और 6 में संशोधन करके बच्चों को यौन हिंसा के अपराध से बचाने के लिये बच्चे के यौन शोषण और उसके साथ शारीरिक संबंध बनाने के अपराध के लिये मौत की सजा सहित कठोर दंड का प्रावधान करने जा रही है. इस समय इस तरह के अपराध के लिये कम से कम दस साल और अधिकतम उम्र कैद की सजा का प्रावधान है.
इसी तरह, सरकार प्राकृतिक आपदा और इसी तरह की दूसरी परिस्थितियों के दौरान बच्चों को यौन शोषण से बचाने और ऐसे मामले, जिनमें बच्चों को उम्र से पहले ही यौनाचार के लिये परिपक्व बनाने के लिये मादक पदार्थ या हार्मोन बढ़ाने वाले इंजेक्शन दिया जाता है, पॉक्सो कानून की धारा 9 में संशोधन करना चाहती है.
इस तरह अपराध के लिये अभी कम से कम पांच साल की सजा का प्रावधान है जिसे बढ़ाकर सात साल किया जा सकता है. लेकिन सरकार अब इस सजा को और अधिक कड़ा बनाना चाहती है.
देश में बच्चों के प्रति यौन हिंसा और यौन शोषण तथा उनकी हत्या की घटनाओं में अत्यधिक वृद्धि का उच्चतम न्यायालय ने भी स्वतः संज्ञान लिया है. इस प्रकरण के सिलसिले में उच्चतम न्यायालय को उपलब्ध करायी गयी सूचना के अनुसार देश में रोज़ाना औसतन 133 बच्चे विकृत और आपराधिक मानसिकता वाले तत्वों की हवस का शिकार हो रहे हैं जो 2016 की तुलना में दुगुना है.
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देश में इस साल एक जनवरी से 30 जून की अवधि में बच्चों के यौन शोषण के अपराध से संबंधित 24, 212 प्राथमिकी दर्ज की गयी हैं. इनमें से 11,981 घटनाओं की जांच अभी भी जारी है और सिर्फ 12, 231 मामलों में ही अदालत में आरोप पत्र दाखिल किया गया है. बच्चों के यौन शोषण से संबंधित 6,449 मामलों में ही अदालत में सुनवाई शुरू हो पायी है जब कि 4,871 मामलों में कोई प्रगति नहीं हुयी है. निचली अदालत ने इस दौरान 911 मुकदमों में ही फैसला सुनाया है.
केन्द्र और राज्य सरकारों को पुलिस की जांच शाखा को सामान्य कानून व्यवस्था प्रकोष्ठ से अलग कराना होगा. ऐसा करने का लाभ यह होगा कि अलग जांच शाखा होने पर बच्चों के साथ यौन शोषण के अपराध सहित यौन हिंसा और बलात्कार जैसे अपराधों की बेहतर तरीके से जांच करना संभव होगा और यदि जांच सही तरीके से होगी तो निचली अदालत से दोषी ठहराये जाने के बावजूद दोषी व्यक्ति उच्च न्यायालय में अपील पर सुनवाई के दौरान भी बच नहीं पायेंगे.
उत्तर प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक प्रकाश सिंह की याचिका पर उच्चतम न्यायालय ने सितंबर 2006 केन्द्र और राज्य सरकारों को पुलिस तंत्र में कानून व्यवस्था और अपराध की जांच के लिये अलग प्रकोष्ठ बनाने सहित अनेक महत्वपूर्ण निर्देश दिये थे.
शीर्ष अदालत का यही मत रहा है कि अगर पुलिस में कानून और व्यवस्था तथा जांच प्रकोष्ठ अलग कर दिये जायें तो इससे एक ओर राज्यों में सुरक्षा व्यवस्था में सुधार होगा और कोई वारदात होने पर घटनास्थल पर पुलिस का एक प्रकोष्ठ कानून व्यवस्था बनाये रखने में व्यस्त रहेगा तो दूसरी ओर, जांच प्रकोष्ठ में शामिल अधिकारी प्रभावी तरीके से अपनी तफतीश शुरू कर सकेंगे. पुलिस सुधार के बारे में न्यायालय के फैसले के कई सालों बाद दिल्ली, पंजाब, बिहार, और तमिलनाडु सहित कई राज्यों की पुलिस में कानून व्यवस्था और जांच प्रकोष्ठ को अलग किया गया है.
जहां तक बलात्कार और वह भी 12 साल से कम आयु की किशोरियों से इस तरह के जघन्य अपराध के मामले में संसद पहले ही भारतीय दंड संहिता में संशोधन कर चुकी है. इन संशोधन के बाद 12 साल से कम आयु की किशोरियों से बलात्कार और सामूहिक बलात्कार जैसे अपराध के लिये कानून में मौत की सज़ा का प्रावधान किया गया है.
संसद ने पिछले साल अपराध विधि ‘संशोधन’ कानून, के माध्यम से भारतय दंड संहिता, भारतीय साक्ष्य कानून, दंड प्रक्रिया संहिता और यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण कानून में कई संशोधन किये थे.
इस कानून में 12 साल की आयु तक की बच्चियों से बलात्कार के अपराध में कम से कम 20 साल की कैद और इस आयु वर्ग की बच्चियों से सामूहिक बलात्कार के अपराध में जीवन पर्यंत कैद या मृत्यु दंड का प्रावधान किया गया. इसी तरह से 16 साल से कम आयु की किशोरी से बलात्कार के जुर्म में कम से कम दस साल की सजा का प्रावधान है जिसकी अवधि 20 साल अथवा उसे बढ़ाकर जीवनपर्यंत कैद की जा सकती है. इन संशोधनाें के बाद किसी महिला से बलात्कार के अपराध में न्यूनतम सज़ा सात साल से बढ़ाकर दस साल कर दी गयी है जिसे उम्र कैद तक बढ़ाया जा सकता है.
संबंधित कानूनों में बदलाव करके ऐसे अपराधों की जांच दो महीने के भीतर पूरी करने और छह महीने में फैसला सुनाने की व्यवस्था है. लेकिन वास्तव में ऐसा हो नहीं पा रहा है. ऐसे मामलों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है. इसकी एक वजह पर्याप्त संख्या में विशेष अदालतों, न्यायाधीशों, जांच अधिकारियों और लोक अभियोजकों का नहीं होना भी है. यह काम राज्य सरकार का है.
चाइल्ड पोर्नोग्राफी परोसने वाली वेबसाइटों पर प्रतिबंध लगाने का मसला भी कई साल से शीर्ष अदालत की न्यायिक समीक्षा के दायरे में है. गैर सरकारी संगठन ‘प्रज्वला’ की जनहित याचिका पर न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद सरकार इस तरह की सामग्री उपलब्ध कराने वाली करीब चार हजार साइट प्रतिबंधित कर चुकी है लेकिन अभी भी अश्लील सामग्री उपलब्ध कराने वाली वेबसाइटें बड़ी संख्या में सक्रिय हैं.
सरकार को इंटरनेट पर सहजता से अश्लील वीडियो क्लिप और विकृत मानसिकता वाली सामग्री पेश करने वाली सभी वेबसाइट्स पर प्रतिबंध लगाने की कार्रवाई को गति प्रदान करनी होगी और यह सुनिश्चित करना होगा कि भारत में किसी भी स्थिति में वेबसाइटस पर ऐसी सामग्री उपलब्ध नहीं हो.
बच्चों के साथ अश्लील हरकतें करके चाइल्ड पोर्नोग्राफी बनाने जैसी समस्या से सख्ती से निबटने के लिये सकरार का प्रस्ताव पॉक्सो कानून की धारा 14 और 15 में संशोधन करने का है. अभी पहली बार इस अपराध के लिये पांच साल तक की कैद या जुर्माना तथा दूसरी बार इसी अपराध के लिये सात साल तक की कैद या जुर्माने की सज़ा का प्रावधान है. सरकार अब इस तरह की साम्रगी नष्ट नहीं करने और भविष्य में इसे दूसरों के साथ साझा करने की मंशा के मामले में दंड की अवधि और जुर्माने की राशि बढ़ाने का है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं.यह आलेख उनके निजी विचार हैं)