बिहार चुनाव परिणाम के दिन मेरी एक रिपोर्ट पर दिप्रिंट के एक सब्सक्राइबर @sankalp6872 ने तीखी टिप्पणी की: “कभी न कभी बीजेपी का अपना सीएम होगा, लेकिन इस तरह की अवसरवादी राजनीतिक भविष्यवाणी को चुनौती देना ज़रूरी है. इतने ‘अनुभवी’ लोग इतनी बड़ी ‘सुनामी’ कैसे नहीं देख पाए? लोगों की नब्ज़ पढ़ना मुश्किल नहीं है, लेकिन यह काम योगेंद्र यादव की घर में उगी पत्तियों के असर में रहकर नहीं किया जा सकता.”
मानना पड़ेगा, यह पढ़कर अच्छा नहीं लगा. पत्रकारों की गलतियों के लिए योगेंद्र यादव को क्यों दोष दें? फिर भी, संकल्प की बात में दम था (भले ही मुझे दिप्रिंट के सब्सक्राइबर्स से थोड़ी पक्षपातपूर्ण सहानुभूति हो). हममें से कई लोगों ने देखा था कि नेशनल डेमोक्रेटिक अलायंस (एनडीए) इस चुनाव में आगे है, लेकिन ‘सुनामी’ आने की उम्मीद नहीं की थी.
पहले एक बहाना पेश कर दूं. यह नतीजा केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह, जो बीजेपी के मुख्य रणनीतिकार हैं, उनके लिए भी चौंकाने वाला ही रहा होगा. कुछ दिन पहले, पार्टी सांसद अनिल बलूनी के इगास उत्सव में शाह ने पत्रकारों से कहा था कि एनडीए 160 सीटें जीतेगा. आखिर में एनडीए को 202 सीटें मिलीं. यानी उन्हें भी हल्की लहर की उम्मीद थी, सुनामी की नहीं. ऐसा नहीं था कि इस चुनाव में जाति फैक्टर या पहचान की राजनीति खत्म हो गई हो और पत्रकार इसे देख नहीं पाए हों. बीजेपी, राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी), कांग्रेस, लोक जनशक्ति पार्टी (आरवी) और अन्य दलों के वोट शेयर देखें तो ये लगभग 2020 विधानसभा चुनाव जैसे ही थे.
सिर्फ नीतीश कुमार की जनता दल (यूनाइटेड) का वोट शेयर 2020 की तुलना में लगभग 4 प्रतिशत बढ़ा, लेकिन इसे बिहार की जाति-आधारित राजनीति में कोई बड़ा बदलाव नहीं माना जा सकता. अगर किसी समय सुनामी आई थी, तो वह 2024 लोकसभा चुनाव में ही दिख गई थी, जब एनडीए के पक्ष में वोटों का मजबूत एकीकरण हुआ था—जिसका मुख्य कारण चिराग पासवान का एनडीए में वापसी करना था. यह बात द हिंदू के उस विश्लेषण से साफ है, जिसमें 2020, 2024 और 2025 में पार्टियों को उनके-अपने क्षेत्रों में मिले वोट शेयर का तुलनात्मक अध्ययन किया गया है.
2020 विधानसभा चुनाव में बीजेपी को 42.6% वोट मिले थे. 2024 लोकसभा चुनाव में यह बढ़कर 49.3% हो गया. 2025 विधानसभा चुनाव में यह 48.6% है. जेडी(यू) के लिए ये आंकड़े थे: 32.8% (2020), 46.7% (2024), और 46.3% (2025). तेजस्वी यादव की राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) के आंकड़े थे: 39% (2020), 39.7% (2024), और 38.9% (2025).
चिराग पासवान अहम फैक्टर
चिराग पासवान के एनडीए में वापस आने और उसके घटक दलों के बीच वोट ट्रांसफर की कुशलता की बदौलत, बिहार में सत्ताधारी गठबंधन ने 2024 लोकसभा चुनाव में ही अपने वोट बेस को एकजुट और मजबूत कर लिया था. इसी वोट एकजुटता का असर विधानसभा चुनाव में सीटों पर ज़्यादा प्रभावी तरीके से दिखाई दिया. एनडीए के पास बहुत बड़ा सामाजिक गठबंधन था—अत्यंत पिछड़े वर्ग, गैर-यादव ओबीसी, दलित, ऊंची जातियां जिन्होंने बड़ी जीत दिलाई.
अब सवाल यह हो सकता है: ये सब ज्ञान चुनाव नतीजों से पहले कहां था? इसका जवाब ‘कन्फर्मेशन बायस’ है, जिसे हम बहुत कोशिश के बावजूद पूरी तरह टाल नहीं पाते. हमने नीतीश के कई बयान और गलतियां सुनीं और देखीं, जिससे लगा कि वे यह भी नहीं समझ पा रहे थे कि क्या कह रहे हैं और क्या कर रहे हैं. उनके शासन में तेज़ आर्थिक विकास के आधिकारिक आंकड़े एक तरफ, लेकिन नौ बार मुख्यमंत्री रहे नीतीश की राजनीति और शासन को आम लोगों की नज़र में फीका और निजी हितों वाला माना जा रहा था.
इसके ऊपर, चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर भी थे, जिन्होंने नीतीश और एनडीए के लिए खराब नतीजों की भविष्यवाणी की थी. कौन भूल सकता है उनका 2021 का वह दावा कि अगर बीजेपी पश्चिम बंगाल में 100 से ज़्यादा सीटें जीत गई, तो वे चुनाव सलाहकार का काम छोड़ देंगे? वे सिर्फ कोई सामान्य नेता नहीं थे. यही वह जगह थी जहां से कन्फर्मेशन बायस बढ़ा—लगा कि इतने सालों बाद लोग बदलाव चाहते होंगे. ग्राउंड पर रिपोर्टिंग के दौरान, आम लोग बड़े पैमाने पर नीतीश का समर्थन करते दिखे—चाहे वह 10,000 रुपये के कारण हो, बड़ा सामाजिक गठबंधन हो, या विपक्ष की कमजोर रणनीति. लेकिन इससे लगा कि इतनी एंटी-इनकंबेंसी के बावजूद वे बस किसी तरह जीत लेंगे, लेकिन इतनी भारी जीत!
अब सवाल यह है कि बिहार से मिली इन सीखों को कैसे उन चार राज्यों—पश्चिम बंगाल, असम, तमिलनाडु और केरल और एक केंद्र शासित प्रदेश पुदुचेरी पर लागू करें, जहां अगले साल की शुरुआत में चुनाव होंगे? फिलहाल इसे बीजेपी के नज़रिए से देखें. पिछले कुछ सालों में विधानसभा चुनावों में पार्टी को जैसे कोई गुप्त नुस्खा—एक या कई “जादुई फॉर्मूले”—मिल गए हों.
बिहार का चुनाव परिणाम भारी एंटी-इनकंबेंसी के बावजूद मिली इस स्तर की जीत के लिहाज़ से अकेला नहीं है. मध्य प्रदेश (2023), हरियाणा (2024) और महाराष्ट्र (2024) के नतीजे देखिए—मध्य प्रदेश में 230 में से 163 सीटें, हरियाणा में 90 में से 48 और महाराष्ट्र में बीजेपी का अब तक का सबसे बड़ा आंकड़ा 132 (एनडीए का 232) में से 288. दिल्ली में भी बीजेपी ने 70 में से 48 सीटें जीतीं, हालांकि, वहां श्रेय का एक हिस्सा अरविंद केजरीवाल को भी जाता है.
इन राज्यों और बिहार के नतीजों में क्या समानता है? इस सफलता के नुस्खे का पहला और शायद सबसे असरदार तत्व है—चुनाव से ठीक पहले महिलाओं को नकद राशि का ट्रांसफर : मध्य प्रदेश में लाड़ली बहना योजना, हरियाणा में लाडो लक्ष्मी योजना, महाराष्ट्र में माझी लाडकि बहिण योजना, बिहार में महिला रोजगार योजना.
बीजेपी ने 2022 में गुजरात में ऐतिहासिक जीत दर्ज की थी—182 में से 156 सीटें—वह भी बिना किसी फ्रीबी राजनीति का सहारा लिए, लेकिन गुजरात अलग मामला है—वास्तव में एक अपवाद—क्योंकि 2001 से नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में राज्य की राजनीति का ढांचा ही बदल गया था. गुजरात जीत के बाद अमित शाह ने कहा था कि वोटरों ने फ्रीबी वादे करने वालों को खारिज कर दिया.
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फ्रीबीज़ की यूएसपी
यह तब हुआ जब कांग्रेस ने 2023 में कर्नाटक में बीजेपी सरकार को अपनी पांच ‘गारंटियों’ या फ्रीबीज़ के दम पर हटा दिया. उसके बाद मोदी-शाह ने तय किया कि विपक्ष को उन्हीं के हथियार से हराया जाए. अब कैश ट्रांसफर, सहायता राशि और फ्रीबीज़ चुनावों में बीजेपी की सबसे बड़ी यूएसपी बन गए हैं. अगर फ्रीबीज़ से वोटर ‘खरीदे’ जा सकते थे, तो यह राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस सरकारों के लिए क्यों काम नहीं आया? क्योंकि राहुल गांधी वाली कांग्रेस में भरोसे और विश्वसनीयता का भारी संकट है. हिमाचल प्रदेश (2022) और कर्नाटक (2023) में कांग्रेस की फ्रीबी योजनाओं पर लोग सकारात्मक थे क्योंकि तब तक पीएम मोदी ‘रेवड़ी’ बांटने के खिलाफ रहे थे, लेकिन जब उन्होंने और उनकी पार्टी ने भी यही शुरू कर दिया, तो वोटरों का कांग्रेस पर अविश्वास वापस उभर आया.
तो फ्रीबीज़ को बीजेपी की चुनावी सफलता की रेसिपी का पहला तत्व मानिए. दूसरा है—बड़े सामाजिक गठबंधन बनाना. देखें कि बीजेपी कैसे हर राज्य में जाति और समुदाय आधारित छोटी पार्टियों को साथ लाती है. पीएम मोदी की अपील, आरएसएस का ढांचा, हिंदुत्व, राष्ट्रवाद, समर्पित कैडर और मजबूत संगठन—ये सब तो स्थायी कारक हैं ही.
पीएम मोदी ने शुक्रवार को अपने विजय भाषण में कहा, “गंगा नदी बिहार से बंगाल की तरफ बहती है और बिहार की जीत, गंगा की तरह, बंगाल में हमारी जीत का रास्ता बना रही है.”
उन्होंने यह अनदेखा कर दिया कि गंगा बिहार से पश्चिम बंगाल झारखंड होते हुए जाती है. लोकसभा चुनावों के बाद हुए विधानसभा चुनावों में बीजेपी को अगर कहीं नुकसान हुआ है, तो वह सिर्फ झारखंड में हुआ—वह भी झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) के हेमंत सोरेन की वजह से.
उनकी साथी कांग्रेस तो चुनाव प्रचार में लगभग गायब ही रही. मेरा मतलब यह है कि क्षेत्रीय पार्टियां बीजेपी के लिए अब भी कठिन चुनौती बनी हुई हैं. उसने ओडिशा में बीजेडी को हरा दिया, लेकिन बाकी जगह मुकाबला उतना आसान नहीं है.
जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव में भी बीजेपी सिर्फ जम्मू क्षेत्र में ही अपनी पकड़ बनाए रख सकी. नेशनल कॉन्फ्रेंस ने मुस्लिम-बहुल कश्मीर घाटी में बीजेपी को बाहर रखा. तेजस्वी की आरजेडी भी एक क्षेत्रीय पार्टी है, लेकिन उन्होंने अपनी पार्टी को कांग्रेस की तरह बना दिया है—जमा हुआ वोट बैंक और वही पुरानी, थकी हुई राजनीति.
अब देखिए, चुनाव वाले राज्यों में बीजेपी के सामने कैसी चुनौती है. पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी 2019 लोकसभा चुनाव में बीजेपी के उभरने के बाद से लगातार उन्हें रोकती आ रही हैं. बंगाल में बीजेपी ने भी एक बड़ा सामाजिक गठबंधन बनाने की कोशिश की—राजबंशी और मतुआ समुदायों को साधने की, जो राज्य के दलितों का लगभग 36% हिस्सा हैं, और दलित जनसंख्या कुल आबादी का 23.5% है. बीजेपी ने 5.8% की जनसंख्या वाले आदिवासियों में भी पैठ बनाई. इन सामाजिक गठबंधनों के साथ पीएम मोदी की अपील, आरएसएस का ज़मीनी नेटवर्क और ध्रुवीकरण की रणनीति ने 2019 में बीजेपी के लिए चमत्कार किया—42 में से 18 लोकसभा सीटें जीतीं.
बनर्जी ने जवाब में इन्हीं समुदायों तक और ज्यादा पहुंच बनानी शुरू की, उदाहरण के लिए इनके लिए योजनाएं शुरू करना और राज्य पुलिस में नारायणी बटालियन बनाना, जिसका नाम कोच राजा, नर नारायण के नाम पर है. 2024 लोकसभा चुनाव में बीजेपी कोच-राजबंशी बहुल कूचबिहार में टीएमसी से हार गई, और उत्तर बंगाल की कई सीटों में उसके जीत के अंतर भी घट गए, जहां तक महिलाओं को कैश ट्रांसफर का सवाल है, ममता बनर्जी ने इस साल की शुरुआत में लोकप्रिय ‘लक्ष्मीर भंडार’ योजना में रकम बढ़ाकर आम वर्ग के लिए 500 से 1000 रुपये और दलित-आदिवासियों के लिए 1000 से 1200 रुपये कर दी. चुनाव से पहले और बढ़ोतरी भी हो सकती है. 2019 के बाद से उनकी सरकार लगातार कल्याणकारी योजनाओं पर जोर दे रही है. वह बीजेपी से एक कदम आगे रहने की कोशिश करती हैं—उसकी चालों को पहले से भांपकर रोकती रहती हैं.
तमिलनाडु में बीजेपी सिर्फ मोदी की अपील और हिंदुत्व पर नहीं टिक रही. कभी ब्राह्मण-हिंदी पार्टी समझी जाने वाली बीजेपी ने यहां पिछड़े वर्ग के नेताओं को आगे किया है. तमिलनाडु बीजेपी अध्यक्ष नैनार नागेंद्रन थेवर हैं. उनके पहले अन्नामलाई गौंडर थे. अन्नामलाई से पहले एल. मुरुगन दलित थे. उससे पहले तमिलिसाई सौंदरराजन हिंदू नाडार थीं. उससे पहले पोन राधाकृष्णन थे. राधाकृष्णन और मुरुगन मोदी सरकार में मंत्री रहे, जबकि सौंदरराजन को राज्यपाल बनाया गया.
इन सामाजिक गठबंधनों को मजबूत सपोर्ट ब्लॉक बनाना बीजेपी के लिए अब भी जारी प्रक्रिया है. बिहार के नतीजे तमिलनाडु में बीजेपी के कैडर को उत्साहित कर सकते हैं, लेकिन रास्ता लंबा है. अभी उसे एआईएडीएमके की ‘सवारी’ करनी होगी—जो खुद अंदरूनी लड़ाइयों और करिश्माई नेता की कमी से जूझ रही है. विजय का राजनीति में आना विपक्षी वोटों को और बांट सकता है. इसलिए तमिलनाडु के सीएम और डीएमके प्रमुख एमके स्टालिन को पीएम मोदी की ‘कांग्रेस से सावधान’ वाली सलाह पर मुस्कुरा सकते हैं.
केरल में बीजेपी सामाजिक गठबंधन बनाने और नायर व एझावा समुदायों में पैठ बनाने में लगी है, लेकिन यह रास्ता भी लंबा है—क्योंकि राज्य में 46% अल्पसंख्यक हैं.
बिहार के नतीजे असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा को खुश करेंगे. न सिर्फ इसलिए कि उनकी ध्रुवीकरण वाली राजनीति एक ऐसे राज्य में असरदार रही है जहां अवैध प्रवासियों का मुद्दा संवेदनशील है. सरमा की व्यक्तिगत लोकप्रियता भी बनी हुई है. उनकी कल्याणकारी योजनाएं भी लोकप्रिय हैं, लेकिन बिहार के नतीजों से सरमा को सबसे ज्यादा खुशी इस बात की होगी कि उनका मुख्य मुकाबला कांग्रेस से है.
(डीके सिंह दिप्रिंट के पॉलिटिकल एडिटर हैं. उनका एक्स हैंडल @dksingh73 है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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