‘चंद्रशेखर (वास्तविक नाम नहीं) रेडीमेड वस्त्र उद्योग का प्रशिक्षित कर्मचारी है और उसने गाजीपुर की एक कपड़ा फैक्ट्री में 2013 में नौकरी शुरू की. लेकिन, वह वहीं रह गया और उसने अपना वर्क-परमिट रिन्यू नहीं कराया. अब वह अवैध आप्रवासी के तौर पर वहां रह रहा है और काम कर रहा है.’
इस पूरे वाकये में पेंच ये है कि चंद्रशेखर भारतीय है और जिस गाजीपुर की बात हो रही है, वह बांग्लादेश में है और रेडीमेट वस्त्र उद्योग का बड़ा केंद्र है. बांग्लादेश के एक प्रमुख दैनिक ढाका ट्रिब्यून ने ये खबर छापी है. बांग्लादेश के अखबार अवैध तरीके से वहां रह रहे विदेशियों के बारे में खबरें लगातार छाप रहे हैं. लेकिन, इस विषय को जानने से पहले देख लेते हैं कि अवैध बांग्लादेशी आप्रवासियों के बारे में भारत में कैसी बहस चल रही है.
भारत में चुनावी मुद्दा है अवैध आप्रवासी
भारत में अवैध घुसपैठ एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा है. इस मुद्दे पर चुनाव लड़े और जीते जा रहे हैं. महाराष्ट्र और हरियाणा के विधानसभा चुनावों में नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन यानी एनआरसी का मुद्दा बीजेपी उठा रही है. पिछले कई चुनावों में अवैध बांग्लादेशियों को लेकर कई तरह की बातें की जा चुकी हैं. बीजेपी का आरोप है कि सेकुलर पार्टियां वोट बैंक के लिए इन अवैध आप्रवासियों को संरक्षण दे रही है. एनआरसी के जरिए सरकार असम में 1971 के बाद आए सारे बांग्लादेशी घुसपैठियों को निकाल बाहर करना चाहती है. ऐसे 19 लाख लोगों की लिस्ट बन भी चुकी है. लेकिन, बीजेपी की उम्मीद के विपरीत उसमें बड़ी संख्या में हिंदुओं के नाम आ गए हैं.
दिलचस्प बात ये है कि घुसपैठ की चर्चा बांग्लादेश के मीडिया में भी है. बांग्लादेश का मीडिया भारतीय घुसपैठियों की बात कर रहा है. यानी भारत से बांग्लादेश गए और वहीं रह रहे उन लोगों की, जिनके पास ट्रैवल डॉक्यूमेंट, वर्क-परमिट या वीजा नहीं है. इनके अलावा रोहिंग्या शरणार्थियों की चर्चा भी बांग्लादेश के मीडिया में है.
क्या लिख रहे हैं बांग्लादेशी अखबार
ढाका से प्रकाशित बांग्ला दैनिक बांग्लादेश प्रतिदिन ने इस साल 29 सितंबर को प्रकाशित अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि बांग्लादेश में 5 लाख बिहारी (हिंदी भाषी) अवैध तरीके से रह रहे हैं. अखबार ने इस बात पर चिंता जताई है कि बांग्लादेश में अवैध घुसपैठियों की संख्या बढ़ती जा रही है. रिपोर्ट में कहा गया है इस समय बांग्लादेश में अवैध तरीके से रह रहे विदेशियों की कुल संख्या 10 लाख से ज्यादा है.
इस रिपोर्ट में अपराधशास्त्री और ढाका यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर शेख हफीजुर रहमान कहते हैं कि बांग्लादेश में अवैध घुसपैठ करके रहने वालों की पहचान करने के लिए अलग एजेंसी होनी चाहिए. वे कहते हैं कि अगर इस समस्या को यूं ही छोड़ दिया गया तो ये राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा हो सकती है. रहमान बिल्कुल उसी भाषा में बात कर रहे हैं, जिस भाषा में घुसपैठ की बहस भारत में चलती है!
बांग्लादेश के एक समाचार पोर्टल अभियात्रा में छपी एक रिपोर्ट में इस बात पर चिंता जताई गई है कि अवैध घुसपैठियों की वजह से बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था पर काफी बोझ पड़ रहा है. इस रिपोर्ट में, अवैध घुसपैठ के लिए जिन देशों को खास तौर पर जिम्मेदार माना गया है, वे हैं – पाकिस्तान, भारत और नाइजीरिया.
बांग्लादेश के सबसे बड़े अखबारों में से एक प्रथम आलो ने हाल ही में ढाका पुलिस की उस कार्रवाई की खबर छापी है, जिसमें 31 अवैध विदेशी नागरिकों को पकड़ा गया है. ये लोग अपने वीजा के कागज नहीं पेश कर पाए. इनमें से सभी अफ्रीकी देशों के नागरिक हैं. रिपोर्ट में कहा गया है कि अवैध घुसपैठ बांग्लादेश के लिए बड़ी समस्या है. खास तौर पर ये लोग ढाका में कई तरह के अपराधों में शामिल पाए जाते हैं.
बांग्ला दैनिक समकाल में छपी एक खबर में इस बात पर चिंता जताई गई है कि बांग्लादेश सरकार को ये पता ही नहीं है कि देश में कितने अवैध विदेशी रह रहे हैं. अखबार का कहना है कि कई विदेशी नागरिक टूरिस्ट वीजा लेकर यहां आते हैं और यहीं रोजगार या नौकरी करने लगते हैं लेकिन वे किसी तरह का टैक्स सरकार को नहीं देते.
बिना आंकड़ों के बहस और राजनीति
भारत और बांग्लादेश दोनों देशों में घुसपैठ की बहस को लेकर एक बात समान है. दोनों ही देशों के पास घुसपैठ यानी अवैध तरीके से रह रहे विदेशियों को लेकर कोई आंकड़े नहीं हैं. भारत में अवैध आप्रवासियों के बारे में लोकसभा में पूछे गए एक सवाल के जवाब में एनडीए सरकार ने इसी साल जुलाई में सदन को बताया कि – ‘ऐसे आप्रवासियों की संख्या के बारे में कोई पक्का आंकड़ा उपलब्ध नहीं है.’ जिस समस्या को इतना बड़ा बताया जा रहा है, उस पर कार्रवाई की बात करें, तो 2018 में भारत सरकार ने सिर्फ 1731 अवैध आप्रवासियों को उनके देशों में वापस भेजा. बांग्लादेश की सरकार ने भी अवैध आप्रवासी समस्या पर कोई आंकड़ा पेश किया हो, ऐसी जानकारी इस लेखक के पास नहीं है.
यह भी पढ़ें : बांग्लादेश की तरक्की, अमित शाह के अवैध प्रवासियों के ‘दीमक’ वाले बयान का मुंहतोड़ जवाब है
लेकिन, आकंड़े न होना बहस और राजनीति में बाधक नहीं है. ये बताने की जरूरत नहीं है कि भारत में अवैध आप्रवासी कितना बड़ा राजनीतिक मुद्दा है. बांग्लादेश में हालांकि इस बारे में मीडिया में चर्चा शुरू हो गई है. अभी तक किसी राजनीतिक दल ने इसे मुद्दा नहीं बनाया है. लेकिन, इसे लेकर सुगबुगाहट शुरू हो गई है.
न्यूयॉर्क में रह रही बांग्लादेश की पत्रकार सयदा समीरा सद्दीक ने 2014 में लिखा कि अवैध बांग्लादेशियों के बारे में भारत में जो कुछ हो रहा है, उसकी बांग्लादेश में गंभीर प्रतिक्रिया हो सकती है. स्क्रॉल के लिए लिखे एक लेख में वे चिंता जताती हैं कि बीजेपी (एनआरसी) को लेकर जिस तरह की बातें कर रही है, वह बांग्लादेश में धर्मनिरपेक्षता के समर्थकों को लिए बुरी खबर है. न्यू एज बांग्लादेश के एक लेख को कोट करते हुए वे लिखती हैं कि भाजपा नेता सुब्रह्मण्यन स्वामी जिस तरह ही बात बांग्लादेशी आप्रवासियों के बारे में बात कर रहे हैं, उसकी बांग्लादेश में सांप्रदायिक प्रतिक्रिया हो सकती है.
सुब्रह्मण्यन स्वामी ने कहा था कि बांग्लादेश को अपनी जमीनें भारत को देनी चाहिए क्योंकि वहां के नागरिक बड़ी संख्या में भारत में रह रहे हैं. इसकी बांग्लादेश में काफी प्रतिक्रिया हुई है.
अवैध आप्रवासन एक वैश्विक समस्या
कोई भी आदमी या समूह अपना देश छोड़कर किसी और देश में अवैध तरीके से जाकर क्यों काम करता है? इसकी दो संभावित वजहें हो सकती हैं या तो उसे अपने देश में काम नहीं मिल रहा है या उसके काम की सही कीमत नहीं मिल रही है और उसका गुजारा नहीं हो पा रहा है. दूसरी वजह से हो सकती है कि धर्म, जाति, राजनीतिक विचार या किसी और कारण से उस पर अत्याचार हो रहा है.
ये मुमकिन है कि बांग्लादेश में तेजी से विकास करती अर्थव्यवस्था के कारण रोजगार के मौके बढ़े हैं और इसलिए कई देशों के लोग वहां आकर काम करने लगे हैं. बांग्लादेश का रेडीमेड वस्त्र उद्योग रोजगार का प्रमुख स्रोत बन गया है.
जहां तक वैध तरीके से नौकरी करने वालों द्वारा अपने देश को भेजे जाने वाले पैसों यानी रेमिटेंस का सवाल है तो भारत में रह रहे बांग्लादेशी नागरिकों ने 2017 में 4,033,000,000 डॉलर अपने देश भेजे. वहीं बांग्लादेश में रह रहे भारतीयों ने उसी साल 126,000,000 डॉलर भारत भेजा.
इससे ये तो साबित होता ही है कि दोनों देशों के लोग एक दूसरे के यहां जाकर काम कर रहे हैं. इसलिए आवश्यक है कि दोनों ही देशों में इस बारे में होने वाली बहस संतुलित तरीके से हो.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और यह लेख उनका निजी विचार है.)