scorecardresearch
Thursday, 19 December, 2024
होममत-विमतBJP के हिन्दू तुष्टीकरण की नीति के आगे सपा में ‘मेला होबे’ के क्या हैं राजनीतिक मायने

BJP के हिन्दू तुष्टीकरण की नीति के आगे सपा में ‘मेला होबे’ के क्या हैं राजनीतिक मायने

अब ‘नई सपा है, नई हवा है’ की चुनावी टैगलाईन के साथ अखिलेश यादव बराबर राजनीतिक साझेदारी और समान भागीदारी के संकल्प के साथ ओमप्रकाश राजभर, स्वामी प्रसाद मौर्य, दारा सिंह चौहान जैसे अनेक कद्दावर नेताओं के साथ मिलकर यूपी में चुनावी चक्रव्यूह को भेदना चाहते हैं.

Text Size:

योगी आदित्यनाथ 80 प्रतिशत (हिन्दू) बनाम 20 प्रतिशत (मुस्लिम) का सूत्र देकर उत्तर प्रदेश के चुनाव को सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने की कोशिश कर रहे हैं. वहीं उनकी काट में कांशीराम के नक्शेकदम पर चलकर स्वामी प्रसाद मौर्या, ओमप्रकाश राजभर आदि कद्दावर नेता 85 प्रतिशत बनाम 15 प्रतिशत की बात करते हुए दलित-पिछड़े तथा अल्पसंख्यक वर्ग की सत्ता में समान भागीदारी तथा हिस्सेदारी की वकालत कर रहे हैं.

अब ‘नई सपा है, नई हवा है’ की चुनावी टैगलाइन के साथ अखिलेश यादव बराबर राजनीतिक साझेदारी और समान भागीदारी के संकल्प के साथ ओमप्रकाश राजभर, स्वामी प्रसाद मौर्य, दारा सिंह चौहान जैसे अनेक नेताओं के साथ मिलकर यूपी में चुनावी चक्रव्यूह को भेदना चाहते हैं और साथ ही ‘बबुआ’ की छवि से हटकर अब प्रोग्रेसिव सोच तथा सबको साथ लेकर चलने वाला एक नवयुवक नायक की भूमिका में अपनी राजनीतिक उपस्थिति दर्ज करना चाहते हैं.

अखिलेश यादव इस बार मुखर होकर सामाजिक न्याय पर बोलते नजर आ रहे हैं. वंचित वर्ग की भागीदारी और साझेदारी के निहितार्थ को उनके एक ट्वीट से निकाला जा सकता है, वे लिखते हैं, ‘इस बार सभी शोषितों, वंचितों, उत्पीड़ितों, उपेक्षितों का ‘मेल’ होगा और भाजपा की बांटने व अपमान करने वाली राजनीति के खिलाफ सपा की सबको सम्मान देने वाली राजनीति का इंकलाब होगा. बाइस में सबके मेल मिलाप से सकारात्मक राजनीति का ‘मेला होबे’!

 

‘नई सपा है’ में ‘मेला होबे’ के निहितार्थ

‘नई सपा है’ में ‘मेला होबे’ के नए राजनीतिक विमर्श को तथ्यात्मक ढंग से समझने के लिए हमें यह देखना होगा कि अखिलेश यादव किन प्रमुख मुद्दों को लेकर विधानसभा चुनाव को फतह करना चाहते हैं. सामाजिक न्याय और उत्तर प्रदेश (यूपी) के विकास से संबंधित मुद्दों पर अखिलेश यादव की नई रणनीति क्या होगी. क्या वे सामाजिक प्रतिनिधित्व और विक्टिम कार्ड की राजनीति के बदौलत भाजपा के ओबीसी मतदाताओं को पुनः समाजवादी पार्टी में वापस ला सकेंगे तथा चुनावी किले को फतह कर सकेंगे.

इस चुनाव में अखिलेश यादव गैर-यादव और ब्राह्मण नेताओं को लाने के लिए प्रयासरत हैं. हाकिम लाल बिंद, दारा सिंह चौहान, सुषमा पटेल, असलम चौधरी, हरगोविंद भार्गव, स्वामी प्रसाद मौर्य, भगवती सागर, बृजेश प्रजापति, रोशन लाल वर्मा, माधुरी वर्मा जैसे दर्जनों दलित-पिछड़े वर्ग से आने वाले सम्मानित नेताओं को अखिलेश यादव समाजवादी पार्टी की सदस्यता दिलवा चुके हैं. ऐसा प्रतीत होता है कि अब शिवपाल यादव के भी पुराने तेवर अब कमजोर पड़ते दिखाई दे रहे हैं, शायद खुदगर्जियों ने खामोश कर दी, पुरानी राजनीतिक सिलवटों के शोर को.

भाजपा के हिन्दू तुष्टिकरण की नीति के आगे अखिलेश यादव आज पार्टी के संस्थापक सदस्य आज़म खान की हिरासत पर बोलने से डर रहे हैं. शायद इसलिए उनकी रिहाई के लिए सड़क पर उतरकर कोई बड़ा आंदोलन नहीं खड़ा किए. इस मुद्दे को लेकर असदुद्दीन ओवैसी और कांग्रेस पार्टी के अल्पसंख्यक वर्ग के नेता सपा को कटघरे में खड़ा करते हैं.

ऐसा प्रतीत होता है कि ‘धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक दृष्टिकोण के साथ एक समाजवादी समाज बनाने’ की वकालत करने का उद्घोष करने वाली सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष आजकल अखिलेश यादव कांग्रेस की तरह सॉफ्ट हिंदुत्व की सकरी डगर पर चलते दिखाई दे रहे हैं. हालांकि, चंद दिनों बाद यह पता भी लग जाएगा कि उन्हें इस लीक पर चलकर सत्ता की चाभी मिलेगी या सपा को अपनी चुनावी रणनीति हमेशा की तरह फिर से बदलना होगा.

राजनीति की सर्पीली राहों में समाजवादी

समाजवादी पार्टी की स्थापना से लेकर अब तक समाजवादियों का उत्कर्ष के साथ-साथ कई राजनीतिक झंझावातों से भी सामना हुआ. मुलायम सिंह यादव तीन बार मुख्यमंत्री तथा एक बार रक्षा मंत्री भी बने तथा अपने कई अन्य सहयोगियों के साथ नौ बार जेल भी गए. अपने जीवन के अंतिम पड़ाव में उन्होंने पिछले वर्ष कुर्सी को लेकर पारिवारिक कलह भी देखा. उस समय कई राजनीतिक पंडितों को लग रहा था कि अब यह पार्टी दो टुकड़ों में विभाजित हो जाएगी. घर के अंदर का असंतोष व पारिवारिक कलह का जिन्न बाहर आ चुका था.

कफ़ील आज़र अमरोहवी की मशहूर नज़्म ‘बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगी’ समाजवादी पार्टी पर हूबहू लागू हो रही थी. समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव ने पार्टी के चुनाव चिन्ह ‘साईकिल’ को लेकर चुनाव आयोग का दरवाजा भी खटखटाया. हालांकि, चुनाव आयोग ने 29 साल की इस युवा पार्टी की कमान मुलायम सिंह यादव के सुपुत्र अखिलेश यादव के हाथ में दिया. आपसी फूट और कलह की कीमत समाजवादी पार्टी को चुकानी पड़ी तथा पिछले विधानसभा चुनाव में करारी हार का सामना करना पड़ा.

वर्तमान विधानसभा चुनाव (वर्ष 2022) में सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव के सामने पार्टी के पुराने जनाधार को वापस लाने से लेकर छोटे पार्टियों के हितों के साथ सामंजस्य बनाने की चुनौती होगी. वहीं विपक्षी दलों के नेताओं के आक्रामक तीखे सवालों का जवाब भी उन्हें एक मझे हुए राजनीतिज्ञ की तरह देना होगा, तभी सत्ता की चौखट तक पहुंचना मुमकिन हो सकेगा.


यह भी पढ़ें : UP चुनाव से ठीक पहले योगी आदित्यनाथ सरकार क्यों छोड़ रहे हैं मंत्री, ये हैं 5 कारण


सामाजिक न्याय की जमीनी हकीकत

जाति जनगणना करवाने की दुहाई देकर बहुजन समाज का वोट अपने पक्ष में डलवाने की अपील करने वाले सपा प्रमुख अखिलेश यादव की अगर वर्ष 2012-2017 के दौरान अखिलेश यादव सरकार द्वारा किए गए कार्यों की सूची पर एक नजर दौड़ाएं, तो उनकी करनी और कथनी में जमीन-आसमान का फर्क नजर आता है. क्योंकि अखिलेश यादव के सामाजिक न्याय के वादों के इतर कई बातें निकलकर सामने आती हैं, जिसकी चर्चा करना समीचीन होगा. उदाहरण स्वरूप, अखिलेश यादव के शासनकाल में सरकारी अनुबंधों में अनुसूचित जाति और जनजाति के आरक्षण और इस वर्ग के छात्रों के विदेश में पढ़ने की योजना को भी ठंडे बस्ते में डाल दिया गया. इस संदर्भ में अलीगढ़ जिले के निवासी प्रवीन्द्र कहते हैं कि ‘चुनाव आते ही अखिलेश यादव आज आरक्षण की फ़िर से वकालत कर रहे हैं, लेकिन मुझे वो दिन अभी भी याद है जब संसद में ‘प्रमोशन में आरक्षण’ बिल को फाड़ते हुए भी नजर आये थे तथा दलित-बहुजन के सम्मान के प्रतीक कुछ जिलों पंचशील नगर, संत रविदास नगर, भीमनगर, महामाया नगर, ज्योतिबा फुले नगर, प्रबुद्ध नगर, आदि जिलों का नाम बदलकर क्रमशः पुनः हापुड़, भदोही, संभल, हाथरस, अमरोहा और शामली कर दिए. उनके ही शासनकाल में लखनऊ में स्थित छत्रपति शाहूजी महाराज मेडिकल कॉलेज का नाम बदलकर किंग जॉर्ज मेडिकल कॉलेज कर दिया गया.’

अखिलेश यादव को अगर सचमुच में दलित-बहुजन समाज के हितों के लिए इतनी फिक्र है, तो उन्हें अपने घोषणा पत्र में जातीय जनगणना के मुद्दे को शामिल करने के साथ-साथ तमिलनाडु के तर्ज पर आरक्षण को शीघ्र लागू करने की प्रतिज्ञा करना होगा.

इसके साथ ही गैर-यादव जातियों के कद्दावर नेताओं को भी पार्टी के महत्वपूर्ण पदों में हिस्सेदारी देनी होगी, तभी जाकर समाजवादी पार्टी अपने पुराने जनाधार को वापस ला सकेगी और लोहिया के वास्तविक समाजवाद का जमीनी स्तर पर सूत्रपात हो सकेगा.

सामाजिक परिवर्तन का आगाज

अब दलित-पिछड़ा वर्ग में राजनीतिक चेतना का द्वीप प्रज्वलित हो चुका है. अखिलेश यादव को उसे 1990 के दशक वाला ‘मूक समाज’ या सिर्फ ‘वोट बैंक’ मानने की भूल करना महंगा पड़ेगा. आज हर गांव व पुरवा में दलित-बहुजन समाज से आने वाले कई जमीनी नेता देखने को मिल जाते हैं, जिनकी कई बूथों पर अच्छी पकड़ होती है. ऐसे छुटभैया नेता अपने जाति के किसी बड़े नेता से भी निरंतर संपर्क में रहते हैं. जाति और राजनीति के गठजोड़ भी ऐसे जमीनी नेता महती भूमिका अदा करते हैं. इन नेताओं की सक्रियता के कारण आज कोई भी सवर्ण जाति का व्यक्ति अपने कुत्ते या भैंस का नाम ‘मुलायमा’ या ‘मायावातिया’ रखने से पहले दस बार सोचना पड़ता है.

सक्रिय संगठनों की कमी

सिर्फ ‘नई सपा है, नई हवा है’ कह देने से पार्टी के अंदर संरचनात्मक नयापन नहीं आ पायेगा. आज भी समाजवादी पार्टी के पास बहुत कम फ्रंटलाइन सक्रिय समूह हैं. छात्र सभा, युवजन सभा, समाजवादी प्रहरी, मुलायम सिंह यूथ ब्रिगेड, लोहिया वाहिनी, शिक्षक सभा, व्यापार सभा तथा अधिवक्ता सभा आदि सपा के कुछ नाममात्र के फ्रंटलाइन समूह हैं, जिनका जनाधार ग्रामीण समाज में नहीं के बराबर है. अगर अखिलेश यादव राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे जमीनी संगठनों से दलित-पिछड़े वर्ग का मोह भंग करवाना चाहते हैं, तो बहुजन वैचारिकी को जन-जन तक पहुंचना होगा. अन्यथा, नई सपा है या खेला होबे जैसे सियासी टैगलाईन सिर्फ सोशल मीडिया तक ही सीमित रह जायेगा.

अगर अखिलेश यादव लंबी राजनीतिक पारी खेलने के मूंड है और सचमुच वे तीन दशक पुरानी सपा में कुछ नया करना चाहते हैं तो उन्हें ग्रामीण कार्यकर्ताओं में जोश भरने के लिए सांस्कृतिक समूह भी बनाने की जरूरत पड़ेगी. लोहिया, कबीर, रविदास, फुले, अम्बेडकर, पेरियार, जैसे युगपुरुषों के विचारों से अवगत हुए बिना दलित-बहुजन समाज धीरे-धीरे समाजवादी विचारधारा से भी दूर हो जायेगा.

आज समाजवादी झंडा ढोने वाले युवा वर्ग को यह जानना होगा कि 1990 के दशक के बाद उत्तर प्रदेश में एक नए सामाजिक दौर का आगाज हुआ था. वह दौर किसी बड़ी क्रांति से कमतर नही था. सैकड़ों वर्षों से सत्ता का सुख भोग रहे लोगों के लिए भी यह बेचैनी का दौर था. कई स्थानीय बहुजन नेताओं को सहादत भी देनी पड़ी थी, क्योंकि वे बहुजन समाज को जगाने के लिए सत्ता के सामने नहीं झुके और गली-कूचों में जाकर सामाजिक परिवर्तन की अलख जगा रहे थे. सत्ता की चाभी मिलने पर समाजवादी स्थानीय नेताओं को संयम का परिचय देते हुए दलित समुदाय के ऊपर अत्याचार बंद करना होगा, तभी ‘नई सपा है’ का राजनीतिक धागा मजबूत हो पाएगा.

अखिलेश यादव को अपनी काबिलियत उत्तर प्रदेश के वर्तमान विधानसभा के समय में सिद्ध करनी है तथा उन्हें लम्बी पारी खेलने व राजनीतिक जमीन मजबूत करने के लिए लक्जरी रथ से नीचे उतरकर जनता के बीच में जाकर संवाद स्थापित करना होगा.

(लेखक हैदराबाद विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र विभाग में डॉक्टरेट फेलो हैं. इन्हें अखिल भारतीय समाजशास्त्रीय परिषद के द्वारा प्रतिष्ठित ‘एम एन श्रीनिवास पुरस्कार-2021’ से भी नवाजा गया है.)

यहां व्यक्त विचार निजी है


यह भी पढ़ें: विधानसभा से 2024 आम चुनावों तक- महिला मुद्दों पर होगी राजनीतिक पार्टियों की परीक्षा


 

share & View comments