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Saturday, 21 December, 2024
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अफगान-तालिबान के बीच चल रही शांति वार्ता से भारत के सामने कौन सी चुनौतियां हैं

तालिबान ने संकेत दिया है कि उनकी सत्ता में भागीदारी या वापसी के बाद काबुल की जमीन से भारत विरोधी आतंकी गतिविधि की इजाजत नहीं दी जाएगी. इस तथ्य को देखते हुए भारत को अपनी अफगान नीति को द्विपक्षीय बनाने की जरूरत है.

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अफगानिस्तान सरकार और तालिबान के बीच लंबे समय से चल रहे संघर्ष को समाप्त करने के लिए कतर की राजधानी दोहा में शांति वार्ता चल रही है. इसे महज एक संयोग लेकिन राजनीतिक तौर पर महत्वपूर्ण माना जा सकता है कि जिस महीने और तारीख को यह वार्ता आरंभ हुई है ठीक उससे 19 वर्ष पूर्व अमेरिका में 9/11 के आतंकवादी हमले हुए थे. एक और ऐतिहासिक तथ्य ध्यान देने योग्य है कि जिस देश में यह वार्ता चल रही है उसी देश कतर ने 1980 के दशक में अफगानिस्तान को सोवियत कब्जे से मुक्त कराने में अहम भूमिका निभाई थी.

कतर  उन कुछ गिने चुने देशों में से एक है जिसके तालिबान की सरकार के साथ अनौपचारिक संबंध थे. यानी अरब देशों की अफगानिस्तान मे भू–राजनैतिक, सामरिक हित के साथ-साथ आर्थिक हित भी शामिल रहे हैं और भविष्य में भी रहेंगे. हाल ही में भारत ने अरब देशों के साथ अपने संबंधों को नए आयाम और विस्तार दिए हैं.अंतर्राष्ट्रीय रिश्तों में दो देशों के संबंधों को अक्सर कई देश प्रभावित करते हैं. अरब देश के अलावा ईरान एक ऐसा देश है जिसका हित भारत और अमेरिका के साथ अफगानिस्तान मुद्दे पर एक हो जाता है. ऐसे में अमेरिकी सेना के काबुल से वापस जाने और तालिबान के वापस सत्ता में आने की उम्मीद के मद्देनज़र भारत की अफगान नीति क्या होनी चाहिए?

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भारत की भूमिका

1989 के सोवियत दखल और 2001 के अमेरिकी युद्ध से भारत ने अपने को कम से कम रणनीतिक तौर पर दूर रखा. फलस्वरूप यह एक सफल सामरिक नीति साबित हुई. अफगानिस्तान की जमीन को भारत के खिलाफ आतंकी गतिविधि के लिए इस्तेमाल करना, तालिबान का अलोकतांत्रिक ढांचा और महिलाओं और धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ बर्बरतापूर्ण व्यवहार के कारण भारत हमेशा से तालिबान के खिलाफ रहा है. परंतु बदली हुई राजनीतिक परिस्थिति और क्षेत्रीय शांति के हित में भारत ने अपनी अफगान नीति में बदलाव का संकेत देते हुए अंतर–अफगान वार्ता के प्रारंभ समारोह में भाग लिया है.

शांति वार्ता में भाग ले रहे अमेरिका के विशेष दूत खलीजाद ने अफगान सरकार को यह सुनिश्चित करने को कहा है कि भविष्य में भारत के खिलाफ अफगानिस्तान की जमीन का इस्तेमाल न किया जाए. परंतु भारत को अमेरिका से इतर एक स्वतंत्र अफगान नीति पर निरंतर काम करने की जरूरत है.

इस आलोक में भारत के लिए दो बातें अहम हैं. पहला अमेरिका के अफगानिस्तान छोड़ने की स्थिति में क्षेत्रीय शक्तियां मसलन ईरान, चीन, रूस और पाकिस्तान जैसे देश काबुल को भू–राजनीतिक और भू–आर्थिक लड़ाई का अखाड़ा बना सकते हैं. ऐसे हालात में अफगानिस्तान एक बार फिर से नए संकट की चपेट में आ सकता है. ऐसी परिस्थिति में भारत के लिए अफगानिस्तान में न अपना राष्ट्रीय हित सुरक्षित करना संभव होगा और न ही अफगानिस्तान को आर्थिक मदद मुहैया कराना मुमकिन हो सकेगा.

चीन के साथ मौजूदा सीमा विवाद के बाद ऐसी परिस्थिति की संभावना और प्रबल जान पड़ती है. हालांकि अभी तक चीन अफगानिस्तान में आर्थिक गतिविधि तक ही सीमित रहा है लेकिन उसकी विस्तारवादी नीति और ‘वन रोड वन बेल्ट’ प्रोजेक्ट से सामरिक खतरा भी आगे चल कर हो सकता है. यानी काबुल में राजनीतिक स्थिरता भारत की अफगान नीति की सफलता की पहली शर्त है, परंतु भारत की अफगान नीति के लिए और काबुल के दीर्घकालिक और व्यापक शांति के लिए बाहरी शक्तियों को हस्तक्षेप से बचना होगा. यहां यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि हस्तक्षेप से बचने का मतलब सहयोग से बचना नहीं है. बिना अंतरष्ट्रीय और क्षेत्रीय आर्थिक सहयोग के अफगानिस्तान में शांति संभव नहीं है.

अफगानिस्तान बिना अंतर्राष्ट्रीय और क्षेत्रीय मदद और व्यापार के प्रगति नहीं कर सकता. इसलिए यह आवश्यक है कि दोहा में चल रहे शांति वार्ता में भारत को अपने पूर्व के घोषित अफगान नियंत्रित, अफगानी स्वामित्व और अफगान नेतृत्व के संकल्प को दोहराना चाहिए. यदि वार्ता का नतीजा ऐसा संभव हो पाता है तभी भारत अफगानिस्तान में अपने सॉफ्ट पॉवर का इस्तेमाल कर अपने राजनीतिक हित साध सकता है. यहां भारत के राजनीतिक हित का मतलब क्षेत्रीय शांति और आतंकवाद के खात्मे से है.

दूसरा, आज की तारीख में तालिबान अफगानिस्तान की सबसे बड़ी राजनीतिक सच्चाई है. इतिहास गवाह है कि अफगानिस्तान में किसी भी प्रकार का सैनिक हस्तक्षेप विफल और नुकसानदायक रहा है. इस तथ्य को देखते हुए भारत को अफगानिस्तान की नेशन बिल्डिंग की प्रक्रिया को आगे बढाने और इसे और अधिक बल देने की जरूरत है.


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राष्ट्र निर्माण में भूमिका निभाने की जरूरत

भारत समेत पूरी दुनिया को यह सुनिश्चित करने की जरूरत है कि तमाम मानवाधिकार अफगानिस्तान के नेशन बिल्डिंग में शामिल हो. दूसरे विश्व युद्ध के बाद वेस्टर्न मॉडल ऑफ डेमोक्रेसी को ही नेशन बिल्डिंग का एकमात्र आधार मान लिया गया. साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद से स्वतंत्र हुए देशों के पास इसे अपनाने के अलावा कोई दूसरा चारा भी नहीं था. परंतु दुनिया के कुछ हिस्सों में ऐसे नेशन बिल्डिंग प्रक्रिया को सफलता नहीं मिल सकी. अफगानिस्तान का तालिबान शासन उन्हीं में से एक है. परंतु तालिबान को भी इन अधिकारों को सुनिश्चित करना ही होगा.

जहां तक भारत का प्रश्न है तालिबान ने संकेत दिया है कि उनकी सत्ता में भागीदारी या वापसी के बाद काबुल की जमीन से भारत विरोधी आतंकी गतिविधि की इजाजत नहीं दी जाएगी. इस तथ्य को देखते हुए भारत को अपनी अफगान नीति को द्विपक्षीय बनाने की जरूरत है.

अफगानिस्तान में चाहे किसी भी गुट की सरकार बने हमें उनके साथ राजनीतिक संबंध मजबूत कर आगे बढ़ने की जरूरत है. हमें द्विपक्षीय वार्ता के तहत अपने समस्याओं को सुलझाना होगा.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के आत्मा राम सनातन धर्म कॉलेज में गेस्ट फैकल्टी हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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1 टिप्पणी

  1. आज प्रकाशित आपका लेख बहुत ही जानकारी पूर्ण एवं संतुलित है भारत के सामने अफगान तालिबान शांति वार्ता से उत्पन्न जो चुनौतियां हैं उसका आपने बहुत ही सही तरीके से उल्लेख किया है पूर्व में जो भारत की नीति रही है वह सफल साबित हुई है इसको भी आपने चिन्हित किया है परंतु आज जो राजनीतिक दल भारत की सत्ता पर काबिज है चालाक और अति महत्वाकांक्षी है ऐसे में यह लोग कोई ऐतिहासिक भूल न कर दें ऐसा मेरा डर है अफगानिस्तान की सत्ता पर कौन काबिज होगा इसमें भारत का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कोई हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए ऐसा मेरा मानना है भारत यह सुनिश्चित कर लें कि अफगानिस्तान की सत्ता में जो भी आए भारत के खिलाफ किसी भी षड्यंत्र में शामिल नहीं होगा अपितु ऐसे षड्यंत्र को रोकने में भारत की मदद करेगा जिसके लिए भारत को बड़ी कीमत आर्थिक मदद के रूप में चुकानी होगी

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