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Monday, 6 May, 2024
होममत-विमततालिबान और अफगानिस्तान के बीच शांति वार्ता के बाद क्या महिलाओं के हक महफूज रह पाएंगे

तालिबान और अफगानिस्तान के बीच शांति वार्ता के बाद क्या महिलाओं के हक महफूज रह पाएंगे

तालिबान अपनी शर्तों पर लौटा तो लंबी जद्दोजहद के बाद अफगान महिलाओं को मिली ताकत और आजादी जमींदोज हो जाएगी.

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कतर की राजधानी दोहा में तालिबान के साथ चल रही बातचीत में अफगानिस्तान सरकार की ओर से शामिल चार महिलाओं ने पूरी दुनिया का ध्यान खींचा है. ये उस नए अफगानिस्तान की प्रतीक हैं, जो तालिबान शासन के बाद के दो दशकों में उभरा है. लेकिन 2001 में तालिबान शासन के खात्मे के बाद अफगानिस्तान की महिलाओं को जो आजादी मिली थी उस पर आज फिर तलवार लटकती दिख रही है.

शायद इसी खतरे को भांपते हुए इन महिलाओं ने कहा है कि यह नया अफगानिस्तान है और तालिबान को महिलाओं की बात सुननी ही होगी. लेकिन शांति वार्ता के बाद अफगानिस्तान की जो तस्वीर उभरेगी क्या उसमें पिछले दो दशक में हासिल महिलाओं के हक महफूज रह पाएंगे?

क्या काबुल की सड़कों पर महिलाओं का बेझिझक आना-जाना जारी रहेगा. अफगानिस्तान की महिलाओं और दुनिया भर में औरतों के हक के प्रति सचेत लोगों के लिए यह एक बड़ा सवाल बन कर उभरा है.


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औरतों के लिए नए अफगानिस्तान के मायने क्या हैं?

अफगानिस्तान में 1996 से 2001 के बीच तालिबान का शासन था और इस दौरान यह महिलाओं के लिए सबसे खौफनाक देश बना हुआ था. लिप्स्टिक और नेल पॉलिश लगाने पर उन्हें कोड़े लगाए जाते थे. घर के मर्दों के बगैर बाहर निकलना मना था. डॉक्टर के पास जाने के लिए घर के पुरुषों को साथ ले जाना पड़ता था. लड़कियां स्कूल नहीं जा सकती थीं और न ही बाहर काम कर सकती थीं. विवाहेतर संबंधों की सजा मौत थी. तालिबान के जुल्मों से तंग आकर बड़ी तादाद में अफगान महिलाएं खुदकुशी कर रही थीं.

लेकिन 2001 में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर और पेंटागन पर हमले के बाद अल-कायदा के खिलाफ अफगानिस्तान में छिड़े अमेरिकी सैन्य अभियान ने तालिबान के पैर उखाड़ दिए. हामिद करज़ई की सरकार बनी और 2004 में अफगानिस्तान ने जो नया संविधान अपनाया, उसमें महिलाओं को हर तरह के अधिकार दिए गए. जॉर्ज बुश से लेकर बराक ओबामा और हिलेरी क्लिंटन तक ने कहा कि अमेरिका ने तालिबान के खिलाफ जो जंग छेड़ी है, उसका एक अहम मकसद अफगानिस्तान की महिलाओं के हितों की सुरक्षा है.

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2004 के बाद अफगान महिलाओं की दुनिया काफी बदल गई. महिलाएं अब संसद की सदस्य हैं. वे मंत्रालयों का जिम्मा संभाल रही हैं और कारोबार कर रही हैं. पूरे काबुल में महिलाएं बिना झिझक कहीं भी आती-जाती दिखती हैं. आप उन्हें तुर्की रेस्तरां में हुक्का पाइप पीते और छोटे-छोटे समूहों में मॉल में खरीदारी करते देख सकते हैं. अफगानिस्तान की सड़कों पर अब नीले बुर्के पहने महिलाएं नहीं दिखती हैं. उनकी जगह आपको पैंट और लॉन्ग शर्ट, चमचमाते रंगों वाले शॉल और स्कार्फ पहने महिलाएं दिखेंगी.

यूनिवर्सिटी, अस्पतालों और सरकारी दफ्तरों में महिलाओं की अच्छी-खासी तादाद है. अफगानिस्तान जवां मुल्क है. लगभग 75 फीसदी आबादी की उम्र 30 साल से कम है. इसका मतलब आज की युवा पीढ़ी की अफगान महिलाओं ने तालिबान के अत्याचार की कहानियां अपनी मां, दादी और नानी से ही सुनी होंगी. वे कभी नहीं चाहेंगी कि वो दौर उनकी जिंदगी में लौटे.

आज, अफगानिस्तान में 21 फीसदी सिविल सर्वेंट्स महिला हैं. तालिबान के शासन के दौरान एक भी महिला सिविल सर्विस में नहीं थी. अब सीनियर मैनेजमेंट लेवल की नौकरियों में उनकी हिस्सेदारी 16 फीसदी है. संसद सदस्यों में करीब 27 फीसदी महिलाएं हैं.


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बहुत कम अफगान पुरुषों को रास आती है औरतों की आजादी

औरतों के मामले में यह बदलाव सिर्फ शहरों में दिखता है और अपर मिडिल क्लास, मिडिल क्लास तक महदूद हैं. पढ़ी-लिखी, दफ्तरों में नौकरी और कारोबार करने वाली मिडिल क्लास महिलाएं नए अफगानिस्तान का चेहरा बनी हुई हैं. लेकिन अभी भी 76 फीसदी महिलाएं गांवों में रहती हैं, जहां तालिबान का बोलबाला है. शहरी इलाके अमेरिकी और अफगान फौजों के कब्जे में हैं लेकिन अंदरूनी इलाकों पर तालिबान का राज है. उनके सामने 2001 के पहले जैसे ही हालात हैं, जब पूरे देश पर तालिबान का शासन था.

ये महिलाएं भारी घरेलू हिंसा की भी शिकार हैं. तालिबान और दूसरे गुटों के बीच लड़ाइयों ने उनके बेटों, पिता और पतियों को छीन लिया है. बड़ी तादाद में विधवाएं हैं, जो जीविका के लिए घरों से बाहर नहीं निकल सकतीं. लड़कियों को पीरियड शुरू होने के बाद स्कूल नहीं जाने दिया जाता है. ज्यादातर लड़कियों की शादियां जबरिया कराई जाती हैं. इन महिलाओं में खुदकुशी के मामले काफी ज्यादा हैं. आए दिन उन्हें जला कर मार डालने की घटनाएं सामने आती हैं. देश के अंदरुनी इलाकों के अस्पतालों के बर्न वार्ड महिलाओं से भरे रहते हैं.

सिर्फ तालिबान ही नहीं अफगानिस्तान (खास कर ग्रामीण इलाकों में) का आम पुरुष भी महिलाओं के मामले में बेहद रुढ़िवादी है. तालिबान के इस्लामी अमीरात और उसके शरीया कानून का भले ही वो समर्थन न करता हो लेकिन सिर्फ 15 फीसदी पुरुष ही महिलाओं के बाहर जाकर काम करने के हिमायती हैं.

डब्ल्यूएचओ की एक स्टडी बताती है कि 80 फीसदी अफगान महिलाएं घरेलू हिंसा की शिकार हैं. अफगानिस्तान की जेलों में बंद कैदियों में 50 फीसदी महिलाएं हैं. इनमें से 95 फीसदी विवाहेतर संबंध के आरोप में कैद की गई हैं. बाकी अपने जुल्मी पतियों की हत्या के मामले में कैद हैं.

न सिर्फ तालिबान बल्कि अफगान समाज में अहमियत रखने वाले दूसरे वर्ग भी महिलाओं के बारे में बेहद रुढ़िवादी हैं. वे शरीया कानूनों के हिमायती हैं और इसकी आड़ में महिलाओं के अधिकारों और आजादी में ज्यादा से ज्यादा कटौती करना चाहते हैं. अफगानिस्तान में सत्ता के सौदागरों को अफगान शूरा (असेंबली) और संसदीय चुनाव में 27 फीसदी महिलाओं का रिजर्वेशन रास नहीं आता. महिला सांसद लगातार खुद को दरकिनार किए जाने की शिकायत करती हैं. उनकी राह में रोड़े अटकाए जाते हैं और उन्हें किसी न किसी तरीके से प्रताड़ित करने का रास्ता खोजा जाता है.


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तालिबान के तेवर कड़े, महिलाओं की चिंता बढ़ी

मौजूदा अफगानिस्तान की जो स्थिति है, उसमें अमेरिकी सेनाओं का वतन लौटना तय हो चुका है. इसके साथ ही तालिबान का किसी न किसी तरीके से सत्ता में भागीदार बनना भी निश्चित है. बातचीत से पहले तालिबान भले ही यह संकेत देता रहा हो कि महिलाओं के खिलाफ अब उसके तेवर पहले जैसे नहीं रहे. लेकिन दोहा की बातचीत से ठीक पहले जिस तरह से आखिरी वक्त में उसकी ओर से उदारवादी शेर मोहम्मद अब्बास स्तानकजाई और मुल्ला बारादर की जगह कट्टरपंथी मौलवी अब्दुल हकीम हक्कानी को प्रमुख वार्ताकार बनाया गया है, उसने कई शंकाओं को जन्म दिया है.

हक्कानी को प्रमुख वार्ताकार बना कर तालिबान ने यह संदेश देने की कोशिश की है कि वह अभी भी इस्लामी अमीरात की व्यवस्था चाहता है, जहां शरीया कानून चले. कुछ देशों में शरीया कानून के तहत महिलाओं को कुछ निश्चित अधिकार मिले हैं. लेकिन तालिबान का शरीया कानून महिलाओं की आजादी के बिल्कुल खिलाफ है और तो और यह मामूली गलतियों पर भी उनके खिलाफ भारी सजा का हिमायती है.

बहरहाल, दोहा में जो बातचीत चल रही है उसमें तालिबान ने अपने तेवर कड़े किए हुए हैं. लिहाजा, 2004 के बाद आए खुलेपन का फायदा उठा कर तरक्की हासिल कर चुकी शहरी और मध्य वर्गीय महिलाओं के लिए आने वाला वक्त बेहद कश्मकश भरा है. इन महिलाओं का मानना है कि देश में शांति कायम करने के लिए जरूरी है कि तालिबान सत्ता में भागीदार बने लेकिन उसकी स्थिति इतनी मजबूत न हो कि वह महिला अधिकारों की सुरक्षा के लिए बने कानूनों को उलट दे.

ऐसा होने से बेहतर है कि शांति वार्ता टूट जाए क्योंकि तालिबान का अपनी शर्तों पर सरकार में लौटना उनके लिए खतरे की घंटी साबित होगी. बातचीत का टूटना भी उनके लिए राहत की बात होगी क्योंकि उन्हें अभी जो अधिकार और आजादी मिली हुई है, कम से कम वह बरकरार रहेगी. तालिबान अपनी शर्तों पर लौटा तो लंबी जद्दोजहद के बाद अफगान महिलाओं को मिली ताकत और आजादी जमींदोज हो जाएगी.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार है. व्यक्त विचार निजी है)


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