जब से भारत कोविड-19 महामारी की दूसरी लहर की चपेट में आया है, तब से ‘पश्चिमी मीडिया का पक्षपात’ जैसे शब्द आम बातचीत में छाए हुए हैं. लेकिन इस बार विलेन पाकिस्तान, जेएनयू या शहरी नक्सल नहीं है बल्कि पश्चिमी मीडिया और इसके कवर किए जाने वाला कोविड संकट, जलती चिताएं, ऑक्सीजन सिलिंडर की कतारें, परेशान मरीज़ और काम के बोझ तले दबे डॉक्टर्स हैं.
लेकिन इन सबमें भारतीय टिप्पणीकारों द्वारा जिस पर सबसे ज्यादा आपत्ति दर्ज की गई, वह है जलती चिताओं की तस्वीरें. यहां तक आरोप लगाया जा रहा है कि वेस्टर्न मीडिया पूर्वाग्रह से ग्रस्त होने के साथ साथ भारत को ‘भूखा-नंगा’ दिखाकर उसे असफल दिखाने की कोशिश कर रही है.
एक ऐसी पत्रकार के नाते, जिसने लगभग तीन दशक तक द वॉशिंगटन पोस्ट में काम किया है, मैं आपको बता सकती हूं, कि ये मध्यमवर्गीय भारतीय, सरकारी अधिकारियों, पश्चिम में दशकों तक रहने वाले भारतीयों द्वारा वेस्टर्न मीडिया पर लगाए जाते रहे हैं.
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तस्वीरें सब बयान करती हैं
व्हाट्सएप और ट्विटर पर षडयंत्र की सबसे ज़्यादा प्रचलित थियरी ये है कि अमेरिकी अख़बार अपने यहां मौत और आपदा को उस तरह कवर नहीं करते जिस तरह वो भारत की कोविड मौतों को कवर कर रहे हैं. ये बिल्कुल ग़लत है. आप इस पर फौरन यक़ीन इसलिए कर लेते हैं क्योंकि ये आपके अंदर पल रही उस मनोग्रंथि में फिट हो जाती है जो कि मानती है कि पूरी दुनिया भारत को नीचा दिखाने की साज़िश कर रही है. ऐसे में आप ख़राब योजनाओं, लोगों की आत्मसंतुष्टि और नेताओं पर सवाल खड़े करने के बजाय किसी बाहरी को दुश्मन समझकर दोष देना आपके लिए आसान हो जाता है. इससे घर की शर्मिंदगी को बाहर से छिपाने वाली बात भी पूरी हो जाती है – ‘घर की बात घर में रहने दो’
I’m not going to RT the CNN video from the hospital in India; you can argue all you want as to whether it’s a net benefit to raise awareness; what I see is that the respect for privacy the US media afforded to hospitalized Americans was not deemed necessary for patients in India.
— Emily Moin, MD MBE (@eemoin) May 5, 2021
ये कुछ उदाहरण हैं जिनसे सिद्ध होता है कि अमेरिकी मीडिया ने ख़ुद अपनी और दूसरों की कोविड आपदाओं को कैसे कवर किया है.
हाइपरलिंक किए गए इन लेखों में, आपको एक फोटो दिखेगा जिसमें एक शव का पैर शीट से बाहर निकला हुआ है; एक फोटो क़ब्र खोदने वालों की है, एक में ख़ाली क़ब्र में उतारा जा रहा शव है; बॉडी बैग्स की ढुलाई है; आईसीयू के अंदर का नज़ारा है; प्लास्टिक बैग्स में लिपटे शवों से भरा मुर्दाघर है; शवों को रखने के लिए रेफ्रीजरेटर ट्रक्स हैं; एंबुलेंसेज़ की क़तारें हैं; और एक बेटी है जो एक मुर्दाघर में रखे अपनी मां के शव पर मेकअप और नेल पेंट लगा रही है.
A final pedicure for her mother, who died of Covid last week. Working around the toe tag. A heartbreaking culmination of a lifetime of love. pic.twitter.com/kh4cVb1uht
— Scott Wilson (@PostScottWilson) January 13, 2021
यहां आगे की कहानी में एक वीडियो देखिए, जहां न्यूयॉर्क के हार्ट आइलैण्ड में बड़े पैमाने पर दफ़न किए गए शवों को दिखाया जा रहा है. इन्हें देखना अमेरिकन पाठकों के लिए भी आसान नहीं था. इसके अलावा एक कहानी है डेट्रॉयट में कोविड मौतों की. फोटोग्राफ्स में ताबूतों के अंदर रखे शवों के चेहरों को शोकाकुल लोगों के साथ दिखाया गया था. आप बिल्कुल यक़ीन मत कीजिए जब कोई आपको ऐसा मैसेज फॉरवर्ड करे जिसमें कहा गया हो कि अमेरिकी शवों के चेहरे नहीं दिखाई जाते.
You know why these BBC Morons did not report on Mass Burials in New York because there is HIPAA Law in US where they can be prosecuted. Section 297 of IPC also says trespassing Burial or Cremation grounds to hurt feelings is a criminal offence. https://t.co/PmO19iBRnM
— Navroop Singh (@NavroopSingh_) May 7, 2021
फिर एक ट्वीट था जिसमें कहा गया था कि अमेरिका में हेल्थ इंश्योरेंस पोर्टेबिलिटी एंड अकाउंटेबिलिटी एक्ट (हिपा) के नियमों के तहत पत्रकारों के अस्पतालों में घुसने पर मनाही होती है, लेकिन यही विदेशी मीडिया के लोग भारतीय अस्पतालों में घुस जाते हैं. ट्वीट पर यक़ीन करने से पहले, यहां पर वो नियम पढ़िए:
‘सवाल: एक मरीज़ ने मुझे फोन किया और अस्पताल के उनके अनुभवों के बारे में, उनका इंटरव्यू करने के लिए कहा. मेरे इंटरव्यू करने के बाद, अस्पताल ने मुझ पर हिपा के उल्लंघन का आरोप लगा दिया, क्योंकि मैंने पहले से लिखित मंज़ूरी नहीं ली थी. क्या मैं ग़लत था?
जवाब: नहीं. रिपोर्टर्स हिपा के अंतर्गत ‘कवर की गई इकाइयां’ नहीं हैं, और इसलिए वो हिपा का उल्लंघन नहीं कर सकते (जब तक कि उन्होंने झूठे बहानों से स्वास्थ्य सूचना हासिल न की हो). रिपोर्टरों को मरीज़ों का इंटरव्यू करने के लिए उनके लिखित मंज़ूरी की ज़रूरत नहीं होती है. अधिकतर अस्पतालों में नियम है कि कोई रिपोर्टस और फोटोग्राफर्स जब भी मरीज़ के पास विजिट करेंगे तो अस्पताल का कोई प्रतिनिधि उसके साथ होना चाहिए.’
और अमेरिकी मीडिया ने सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि इटली और ब्राज़ील में भी 2020 के कोविड सर्ज को इसी तरह से कवर किया था.
यहां एक फोटोग्राफ देखिए, जिसमें ब्राज़ील में बड़े पैमाने पर ताज़ा खुदी हुई क़ब्रों की क़तारें नज़र आ रही हैं. बल्कि, ऊपर से ली गईं ब्राज़ील की ये तस्वीरें, भारत की तस्वीरों से अलग नहीं हैं. हां, दफ्न करने का तरीक़ा अलग है, बस. ईरान में दफ्न करने के लिए खोदी गईं ताज़ा कब्रों की सेटेलाइट तस्वीरें. और इटली में एक आईसीयू के अंदर, एक मरीज़ का रॉयटर्स का फोटोग्राफ.
People are such hypocrites.. we cry over media showing burning pyres.. why did you keep quiet when Brazil burial graves were shown? Its always when its your backyard that you wake up.#Shame #Brazil #crematorium #CovidDeaths pic.twitter.com/rBJ0d93NV3
— kalika abhyankar (@onlykalika) May 3, 2021
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कोई दोहरे मानदंड नहीं
इसलिए ये कहना कि पश्चिमी मीडिया कोविड-19 की कवरेज में दोहरा मानदंड अपनाता है ये दिखाता है कि या तो आपको बिल्कुल कुछ पता नहीं है, या आप चीजों को गलत तरीके से प्रचारित करते हैं, या आप केवल व्हाट्सएप पर फॉर्वर्ड किए गए मैसेज द्वारा प्राप्त जानकारी पर ही निर्भर रहते हैं.
जबकि देश के सामने ऐसी स्थिति है जो कि पीढ़ियों में कभी एक बार आती है और जो बरसों के लिए भारत को बदल देने वाली है, ऐसी स्थिति में भी जमीनी स्तर पर काम करने के बजाय नरेंद्र मोदी सरकार विदेशों में अपनी छवि को लेकर ज़्यादा चिंतित है.
वहीं दूसरी तरफ विदेशी मीडिया में काम करने वाले पत्रकारों पर उनकी कवरेज के लिए सोशल मीडिया में तीखे हमले किए गए हैं. रॉयटर्स के चीफ फोटोग्राफर दानिश सिद्दीक़ी द्वारा लिए गए चिताओं के ड्रोन फोटोग्राफ में किसी के चेहरे नहीं दिखाए गए. उन्होंने ट्वीट किया था: ‘मौतों को दिखाना एक बहुत नाज़ुक काम होता है. इसमें वायरस द्वारा वसूली गई इंसानी जान की क़ीमत और विषय वस्तु की गरिमा के बीच संतुलन बनाए रखना होता है’.
Documenting the deaths is a delicate task, balancing showing the human cost of the virus with preserving the dignity of the subject.
In this case, Narayan’s family, who were angered by a death they saw as preventable, were adamant his story be told. https://t.co/zNCSBwSpQd pic.twitter.com/jyxrjgKwPF— Danish Siddiqui (@dansiddiqui) April 26, 2021
अगर ये हमारे समय की सबसे बड़ी मानवीय त्रासदी है, तो पत्रकारों को उसे दिखाना होगा, बताना होगा, लिखना होगा. पत्रकारिता में कोई राष्ट्रवाद शामिल नहीं होता. मैंने भूकंप, चक्रवात, सुनामी और बम धमाके सब कवर किए हैं. हर एक घटना देखने में दूसरे से ज़्यादा विनाशकारी और भयावह थी. पक्षपात की कोई गुंजाइश ही नहीं थी. हर मृत शरीर की अहमियत होती है.
अंत में, मैं आपसे ये कह सकती हूं: विदेशी मीडिया शायद ही कोई ऐसे लेख लिखता है जो भारतीय मीडिया पहले ही कवर नहीं कर चुका होता. बल्कि भारतीय मीडिया की कवरेज, विदेशी मीडिया के पत्रकारों के लिए शुरूआती बिंदु या कुंजी का काम करती है. वॉशिंगटन पोस्ट, द न्यूयॉर्क टाइम्स, बीबीसी और रॉयटर्स में कोविड मौतों की जिन तस्वीरों को देखकर आपको अच्छा नहीं लगता या आप नाराज़ हो जाते हैं, भारतीय मीडिया वैसी ही तस्वीरें पहले आपको दिखा चुका होता है.
इसलिए, अपने आप से असली सवाल पूछिएः क्या आप बस इस बात से शर्मिंदा हैं कि आप वो वैश्विक महाशक्ति नहीं हैं, जो आप ख़ुद को समझते आए हैं?
(रमा लक्ष्मी दिप्रिंट में ओपीनियन संपादक हैं. वो 27 वर्षों तक द वॉशिंगटन पोस्ट की भारत संवाददाता रहीं, और 2005 में सुनामी त्रासदी की उनकी कवरेज के लिए, उन्हें अमेरिकन सोसाइटी ऑफ न्यूज़ एडिटर्स के पुरस्कार से नवाज़ा गया.)
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