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Sunday, 19 October, 2025
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तालिबान का स्वागत फायदे के लिए सही बताया जा रहा है, लेकिन इसमें कई नैतिक सवाल हैं

तालिबान जैसे शासन के लिए सम्मान और तालियां, जो अफगान महिलाओं को शिक्षा, आज़ादी और गरिमा के साथ जीने का अधिकार तक नहीं देता, सिहरन पैदा करने वाला था.

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भारत अकेले में मौजूद नहीं है और दक्षिण एशिया जैसे क्षेत्र में संपर्क बनाए रखना अक्सर ज़रूरत बन जाता है, चुनाव नहीं. अब जब तालिबान अफगानिस्तान पर काबिज़ है और चीन, पाकिस्तान, ईरान और रूस जैसे क्षेत्रीय देश अपने रिश्ते गहरा रहे हैं, तो नई दिल्ली की पहल यथार्थवादी दृष्टिकोण से लगती है.

तर्क सीधा है — भारत को अपने पश्चिमी हिस्से को सुरक्षित करना है, अपने निवेश की रक्षा करनी है और पाकिस्तान के प्रभाव का सामना करना है, लेकिन इस व्यावहारिकता के पीछे एक पुरानी चुनौती छुपी है. हमने यह खेल पहले भी देखा है: “अच्छा तालिबान” और “बुरा तालिबान” का भ्रम, यह मान लेना कि संपर्क एक डर और नियंत्रण पर आधारित विचारधारा को नरम कर सकता है. यह देखना बाकी है कि भारत की पहल उसकी स्थिति को मजबूत करेगी या केवल उस शासन को वैधता देगी जो दमन पर आधारित है.

जब भारत अफगानिस्तान में अपना दूतावास फिर से खोल रहा है और तालिबान के विदेश मंत्री आमिर खान मुत्तकी का स्वागत कर रहा है, तो एक असहजता का माहौल है. यह कदम, कूटनीति और व्यावहारिकता की भाषा में प्रस्तुत किया गया, उसी समय आया जब एक प्रेस कॉन्फ्रेंस विवाद ने इस संपर्क की नैतिक कमजोरियों को उजागर किया. यह भारत के सामने सवाल रखता है — एक लोकतंत्र कितना दूर जा सकता है उस शासन के साथ बातचीत में जो दमन पर निर्भर है, बिना अपने सिद्धांत खोए.

भारत जैसे लोकतांत्रिक देश के लिए, जो समानता और सामाजिक न्याय के आदर्शों पर बना है, महिला पत्रकारों को बाहर रखने पर गुस्सा होना सिर्फ स्वाभाविक नहीं, बल्कि ज़रूरी भी था. एक ऐसा देश जिसने लंबे समय से महिलाओं के सशक्तिकरण को अपने नैतिक और राजनीतिक विमर्श का केंद्र रखा है, वह इस खुले भेदभाव के सामने चुप नहीं रह सकता.

और यह महत्वपूर्ण है कि यह गुस्सा असर दिखाया — अगली प्रेस कॉन्फ्रेंस में महिला पत्रकार न सिर्फ मौजूद थीं, बल्कि पर्याप्त साहस दिखाया कि उन्होंने सीधे तालिबान से महिलाओं के साथ उनके व्यवहार के बारे में सवाल किए.

यह क्षण मायने रखता है क्योंकि अगर भारत रणनीतिक लाभ चाहता है, तो उसे उसी स्थिति का इस्तेमाल अपने सिद्धांतों पर दृढ़ रहने के लिए भी करना होगा. तालिबान सहयोगियों के लिए बेचैन हो सकता है, लेकिन बिना जवाबदेही के संपर्क केवल उनकी ताकत बढ़ाता है.

महिलाओं के लिए कथित सम्मान

लेकिन इस सब में मेरी ध्यान आकर्षित करने वाली चीज़ कूटनीति या दिखावे नहीं थी; बल्कि वह गर्मजोशी भरा स्वागत था जो तालिबान मंत्री को उत्तर प्रदेश के दारुल उलूम देवबंद में मिला. वह सम्मान, तालियां और जश्न — उस आदमी के लिए जो ऐसे शासन का प्रतिनिधित्व करता है जो महिलाओं को शिक्षा, स्वतंत्रता और गरिमा के साथ जीने का अधिकार तक नहीं देता — सिहरन पैदा करने वाला था.

एक मुस्लिम महिला के रूप में, यह देखना डरावना है कि ऐसे लोग मेरे समुदाय में कितनी आसानी से प्रशंसा के लिए जगह पा जाते हैं. कड़वा सच यह है कि कई मुस्लिम पुरुष, चाहे पढ़े-लिखे हों या न हों, धार्मिक हों या न हों, अगर मौका मिले, तो एक ऐसा ही समाज बनाएंगे जैसा अफगानिस्तान में है, जहां मेरी और मेरी बहनों जैसी महिलाएं हर मौके और अपनी आवाज़ से वंचित होंगी.

और भी बुरा यह है कि तालिबान के लिए यह समर्थन सिर्फ मदरसों या गांवों तक सीमित नहीं है; यह ऑनलाइन भी बढ़ता है, जो लोग भारत और अन्य जगहों पर मुसलमानों के साथ होने वाले अन्याय की बातें करते नहीं थकते, वो अफगानिस्तान में महिलाओं के साथ तालिबान द्वारा किए जाने वाले अन्याय के प्रति अंधे रहते हैं. कई एक्स यूजर्स ने महिला पत्रकारों को बाहर रखने की घटना को “इस्लामी मूल्यों का सम्मान” बताते हुए सराहा, यह समझे बिना कि वे अपनी ही जंजीरों का जश्न मना रहे हैं.

जब महिला पत्रकारों को अंततः दूसरी प्रेस कॉन्फ्रेंस में शामिल किया गया, तो तालिबान नेताओं ने बोलते समय उनकी ओर देखने से इनकार कर दिया. इसके बाद कई मुस्लिम अकाउंट्स ने सोशल मीडिया पर इसकी प्रशंसा की, कई ने इसे “सौंदर्यपूर्ण सम्मान प्रदर्शन” कहा, यह उदाहरण देते हुए कि पुरुषों को ‘पराई औरत’ के सामने अपनी नज़रें नीची करनी चाहिए.

लेकिन यह कथित सम्मान वास्तव में ऐसा कुछ नहीं है. यह सम्मान नहीं, बल्कि मिटा देना है. विनम्रता की भाषा के पीछे एक विचार छुपा है जो महिलाओं को समान मानव समझने और गरिमा के साथ व्यवहार करने योग्य मानने से इनकार करता है. यह विश्वास है कि महिला की मौजूदगी स्वाभाविक रूप से प्रलोभन है, कि उसकी दिखाई देना ही खतरा है.

वही विचार, जब चरम पर पहुंचता है, महिलाओं को घरों में बंद करना, स्कूलों से रोकना और सार्वजनिक जीवन से मिटा देना सही ठहराता है. जिसे वे पवित्रता कहते हैं, असल में वह महिला के अस्तित्व का यौनिकरण है, जहां केवल दिखाई देना भी पाप बन जाता है.

तालिबानी मानसिकता के साथ घर में

और भी चिंता की बात यह है कि यह मानसिकता मुस्लिम समुदाय में कितनी सामान्य हो गई है, हमारे अपने समाज के कई पुरुषों में, जो इसे अफगानिस्तान से दूर बैठकर भी सराहते हैं. तालिबान भले ही कई मील दूर हों, लेकिन उनकी विचारधारा के यहां भी प्रशंसक हैं — पढ़े-लिखे पुरुषों में, सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स में और उन लोगों में जो अपने फायदे के लिए अधिकार और न्याय की भाषा बोलते हैं. वो एक दिन इस्लामोफोबिया के खिलाफ विरोध कर सकते हैं और अगले ही दिन महिलाओं के दमन की महिमा गा सकते हैं, बिना विरोधाभास देखे. वो समानता के लिए नहीं लड़ रहे; केवल नियंत्रण के लिए लड़ रहे हैं.

यह सच्चाई अपने आप सामने आ रही है, जब मुस्लिम आवाज़ें, जो फासीवाद, धार्मिक असहिष्णुता और हिन्दुत्व दमन के खिलाफ बोलती हैं, अचानक चुप हो जाती हैं, या, इससे भी बुरा, जब दमनकारी उनकी ही आस्था साझा करता है तो बचाव करने लगती हैं. ये लोग न्याय के लिए नहीं लड़ रहे; सिर्फ अपनी ही सत्ता की सोच के लिए लड़ रहे हैं.

वो उदार या वामपंथी दायरों में जगह और वैधता पाते हैं, प्रतिरोध की भाषा बोलते हैं, लेकिन जैसे ही वही अधिकार महिलाओं या किसी ऐसे व्यक्ति तक पहुंचते हैं जो उनकी धार्मिक सोच को चुनौती देता है, उनके मूल्य धराशायी हो जाते हैं. वो दक्षिणपंथी विचारधारा के खिलाफ नहीं हैं; सिर्फ अपनी खुद की दक्षिणपंथी सत्ता चाहते हैं और यह पाखंड, पीड़ित होने की भाषा में छुपा हुआ, कहीं अधिक खतरनाक है क्योंकि यह नैतिकता के मास्क के पीछे छिपा रहता है.

(आमना बेगम अंसारी एक स्तंभकार और टीवी समाचार पैनलिस्ट हैं. वह ‘इंडिया दिस वीक बाय आमना एंड खालिद’ नाम से एक साप्ताहिक यूट्यूब शो चलाती हैं. उनका एक्स हैंडल @Amana_Ansari है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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